रेही क्रिया योग
पहले हम जाने- अपने प्राकृतिक शरीर को जिसका वस्त्र है,ये हमारा शरीर,जिसे हम नग्न होने पर दिगम्बर कहते है,और उसे केवल एकांत में ही देखने का साहस करते है,और तो और इस प्राकृतिक सच्चे शरीर को क्रतिम वस्त्र से ढक कर, इसका वस्त्रों के द्धारा क्रतिम 5 तत्वों की विकृति को देकर सत्यानाश कर डाला है,इसी रहस्य को समझ आने पर योगी अंत में प्राकृतिक शरीर में ही रहने लगते है,जिसे दिगम्बर बाबा या योगी कहते है,ये अति प्राचीनकाल से परम्परा चली आ रही है,जिसका रुक रुक कर महावीर स्वामी के रूप में या अन्य योगियों के रूप में देख सकते है।आओ इस विषय को जानते है,तभी रेहि क्रिया योग विज्ञानं समझ आएगा-
प्राचीनकाल से ही मनुष्य में ये ज्ञान है की- मैं जैसा हूँ..वेसा ही क्यों न रहूँ..और वो इसी चिंतन को की- मैं आया ऐसा ही हूँ.. और जाऊंगा भी वेसा ही..।तब मुझे जो ईश्वर ने प्राकृतिक पंचतत्वी शरीर का वस्त्र दिया है या मेने ही इसे ग्रहण कर धारण किया है,तो सदा इसे ही क्यों न धारण किये ही रहूँ।
मने कैसे..किसी अन्य वस्त्र को धारण करते करते एक धारणा बना ली की- मैं उसके बिना केवल अपने प्राकृतिक शरीर रूपी वस्त्र में नग्न हूँ?
यानि मैं अपने में अपने वस्त्र में गर्वित अनुभव नहीं करता हूँ?
जबकि सभी जीव अपने प्राकृतिक शरीर रूपी वस्त्र में ही सदा बने रहते है।और तभी उनमें एक दूसरे को प्राकृतिक रूप में देखने से कभी काल्पनिक नग्नता के देखने की इच्छा नहीं उत्पन्न होती है।जैसा की हमें अब अन्य वस्त्र पहनने पर उसके पीछे किस प्रकार की नग्नता है? इसकी ही कल्पना में सारा समय और जीवन निकल जाता है और आज हम ऐसी ही अनेक कल्पनाओं को धारण करते करते कमजोर और “काल्पनिक मनुष्य” बनते जा रहे है।और अंत में हमे अपने सच्चे स्वरूप को प्राप्त करने के लिए फिर से “कथित ध्यान” करने के विकट अभ्यास से जन्मों तक, जीवन भर जूझना पड़ता है।और इन सभी साधनाओं के अंत में भी हम प्राकृतिक शरीर को ही प्राप्त करते है।यही प्राकृतिक शरीर या दिगम्बरी साधना का दर्शन और ध्यान का विषय है।
इसी चिंतन से जन्म हुआ-पंचतत्वी धारणा और ध्यान और समाधि के दर्शन का उदय।जो की हमें सदा से प्राप्त था।
अब ये पँच तत्व ध्यान क्या है जाने:-
हमारा पँच तत्व के रूप में पांच शरीर है-
1-अन्न शरीर जो की पृथ्वी से उत्पन्न होने वाले खादय पदार्थों के खाने या ग्रहण करने से बना है।और योगी जब इस पृथ्वी तत्व पर अधिकार कर लेता है,तब उसे समस्त प्रकार के पृथ्वी पर पाये जाने वाले खादय पदार्थ-जैसे-गेहूं चावल या फल या पत्ती के खाने की आवशयकता नहीं रहती है,वो सीधा ही पृथ्वी तत्व से उसके समस्त खाने के पदार्थों को अपने ध्यान से अपने शरीर के ओरामण्डल से ग्रहण करता हुआ,बिना किसी आमाशय के अपने “असली मूलाधार चक्र” मूलाधार चक्र भी दो है-1-भोग चक्र-2-योग चक्र..और हमारे पास अभी भोग चक्र के रूप में पहला मूलाधार चक्र होता है,जिससे हमारी जनेंद्रिय लिंग और योनि बनी है।और ध्यान के बल से हम भोग मूलाधार चक्र से ऊपर के योग मूलाधार चक्र को जाग्रत करके उसी के माध्यम से पृथ्वी तत्व से बनी सभी खादय वस्तुओं को सीधी ऊर्जा से प्राप्त करके अपने भोग शरीर को स्वस्थ और पूर्ण कर पाते है,इसी योग मूलाधार चक्र के जाग्रत होने पर ही सच्चा स्थायी ब्रह्मचर्य की उर्ध्वगामी सिद्धि होकर कुण्डलिनी जाग्रत होती है।यो योगी को उस योग चक्र से पृथ्वी तत्व की मूल तत्व की ऊर्जा प्राप्ति से अपने भोग शरीर के रूपांतरित योग ऊर्जा शरीर को पोषित करता दीघायु बनकर अनंतकाल तक युवा बनकर जीवित रहता है।
दूसरा है-प्राणमय शरीर:-
ये शरीर जल से निर्मित होता है,उसका हमारे शरीर में पहले की तरहां ही दूसरे स्वाधिष्ठान चक्र के द्धारा ग्रहण करते हुए हमें पोषण के रूप में नियंत्रण होता है।तब योगी जल तत्व की सीधी धारणा करने पर समस्त जल से बने पदार्थों या साइंस की भाषा में मिनरल विटामिन्स को अपने ध्यान के बल के आकर्षण बल से सीधा ही योग स्वाधिष्ठान चक्र के द्धारा जल की ऊर्जा को ग्रहण करके अपने को पोषित करता है।
इससे पहले ऊपर लेख में शेष- पृथ्वी तत्व को ग्रहण करके हमारे शरीर को पोषित करने का कार्य है-योग मूलाधार चक्र में।जो पुरुष में उर्ध्व शिवलिंग की भांति चित्रित है और स्त्री में श्रीभगपीठ की तरहां चित्रित है।यो पुरुष को शिवलिंग रूपी मूलाधार चक्र का और स्त्री को अपने श्रीभगपीठ यानि योनि चक्र रूपी। योग मूलाधार चक्र का ध्यान करना चाहिए।और यदि ये दोनों केवल पृथ्वी तत्व का ध्यान करते है, तो इन्हें किसी शिवलिंग या योनि चक्र रूपी मूलाधार चक्र का ध्यान करने ही आवश्यकता नही होगी।इसका अर्थ ये नहीं की-ये बेकार है,नहीं बल्कि ये उनके भीतर बाद में पृथ्वी तत्व को ग्रहण करते और कैसे अपने शरीर को नियंत्रित करते हुए पोषित करते है,इसका उर्जात्मक दर्शन पाते है,तब दीखता है,एक अनंत ऊर्जा से भरा और अनंत विस्तृत आकार वाला उर्ध्व शिवलिंग या उर्ध्व योनि चक्र दर्शन।जिसका योग और तंत्र शास्त्र वर्णन करते है।वो इस अवस्था के ध्यान में ही दर्शित होता है। समझे।
अब आता है-अग्नि तत्व की साधना यानि नाभि चक्र जागरण:-
जो हमारे शरीर में नाभि चक्र के माध्यम से हमारे शरीर को भिन्न भिन्न प्रकार की अग्नि के रूप में बदल कर शरीर में आये पृथ्वी और जल तत्वों को गलित यानि ऊर्जा में बदलकर उसे हमें देती हुयी पोषित करती है।
यो जब हम सीधे ही अग्नि के किसी भी रूप यानि छोटी सी ज्योति या यज्ञ करते में यज्ञ ज्वाला को या अग्नि के मूल स्रोत सूर्य की धारणा और ध्यान करते है,तब हमें वो अग्नि सीधे रूप में हमें हमारे ओरामण्डल से होती हुयी हमारे जाग्रत हुए दूसरे नाभि चक्र में इकट्ठी होती हुयी वहां से हमारे सारे शरीर में प्रवाहित होती हमे पोषित करती है।तब हमें कोई भी अग्नि हानि नहीं पहुँचा सकती है।हम सीधे रूप में अग्नि को बाहर से भी यानि प्रकर्ति से भी और अपने अंदर से प्रकट कर अपने उपयोग में ले सकते है।जैसा की योगियों के जीवन कथाओं में प्रमाण है।
तभी योगी साधना में नाभि चक्र में एक तेजोमयी बिंदु या अग्नि को धारण करके ध्यान करते इसी रहस्य की सिद्धि को पाते है।
अब आते है-वायु तत्व यानि ह्रदय चक्र जागरण:-
हमारे वायु तत्व से बने वायु शरीर के विषय में,जिसे हम योग भाषा में “मन शरीर” यानि “सूक्ष्म शरीर” या “भाव शरीर” कहते है।जिसका हमारे शरीर में ह्रदय चक्र के रूप में केंद्र है।
ये ह्रदय चक्र दो है-1-भौतिक चक्र जो की सामान्य धड़कता दिल बोलते है।-2-दूसरा है-आध्यात्मिक ह्रदय चक्र।
और यही मूल शक्ति चक्र है-जो हमारे शरीर के सूक्ष्म शरीर यानि मन शरीर में होता है।ये हमारे मेरुदण्ड के कुछ सीधी और होता है।यही से और इसी के द्धारा हम स्वप्न देखते है और जब ये स्वप्न भौतिक होते है, जो की हमारी भौतिक इच्छाओं के रूप में हमें दीखते है और जब हम आध्यात्मिक जीवन की और धीरे धीरे बढ़ते है,तब इस चक्र का विकास होता है और हमें इसी चक्र यानि ह्रदय में अपनी आध्यात्मिक स्थिति के अनुसार विभिन्न दर्शन होते है,जिन्हें प्रारम्भ में “भाव दर्शन” कहते है और अंत में यहीं भाव दर्शन का अंत हमारी कल्पनाओं का अंतिम दर्शन हमारे कथित ईश्वर दर्शन के रूप में दिख कर होता है।पर ये सब भी सत्य होते हुए भी पूर्ण सत्य नही होता है।ये वायु तत्व के हमारी कल्पना के साथ जुड़कर एक काल्पनिक दर्शन मात्र है।यो इन दर्शनों से भी शांति नहीं मिलती है।तभी भक्ति ने भक्तों की ऐसे दर्शनों के बाद भी शांति या तृप्ति नहीं मिली और अंत में उन्हें इन सभी दर्शनों से परे, जो गुरु ने पाया है, उस गुरु की शरण से ज्ञान प्राप्त होता है और तब उन्हें वायु तत्व से परे आकाश तत्व में पहुँच होती हैं।ये वायु तत्व के सभी कल्पना के जीवित और हमारे साथ जीवन्त व्यवहार करते लगते चमत्कारिक इष्ट या ईश्वर दर्शन को त्याग कर या समझ कर एक निराकार तत्व में प्रवेश करना पड़ता है।जिसे “शून्य” कहते है।एक अनन्त शून्य के दर्शन।यही आकाश तत्व है।इसी का वेद सृष्टि की उत्पत्ति के पहले होने का वर्णन करते है।
और वायु तत्व के जीविन्त ईश्वरीय दर्शनों से परे जाने की भक्तों मीरा, चैतन्य या इनसे भी ऊपर के योगियों रामकृष्ण परमहंस के काली दर्शन के उपरांत निर्विकल्प समाधी की प्राप्ति का उनकी जीवनी में वर्णन है।पर ये भी वायु तत्व से परे केवल आकाश तत्व में स्थित होने के दर्शन है।जिसे निर्विकल्प समाधी कहते है।
वायु तत्व मन है और मन की समाप्ति ही सभी कल्पनाओं की समाप्ति होना है और निर्विकल्प का अर्थ है-निरी कल्पनाओ से परे जाना।
ये अर्थ अपने कहीं नहीं पढ़ा होगा न सुना होगा।
क्योकि जिन्होंने निर्विकल्प समाधी की प्राप्ति की है, वे भी केवल आकाश तत्व तक ही पहुँचे थे।
आकाश तत्व की साधना ज्ञान:-
आकाश कोई तत्व नहीं है,ये सभी पीछे के चार तत्वों का समिश्रण मात्र है,तभी इसे महतत्व कहा गया है यानि महातत्व।
एक अरंग यानि रंग रहित या जिसका कोई रंग नही हो वो महातत्व।यो आकाश का कोई रंग नहीं है,कुछों ने वर्णन किया है और इसके स्वाद को भी बताया है क्योकि तत्व तो तत्व है और अवश्य इसका कोई कथित रंग और रूप और स्वाद भी होगा।और इसी कल्पना ने इस आकाश के रूप और रंग और स्वाद की भी कल्पना बनाई और इसे नाम दिया।जबकि ये तत्व अनाम है और उसे ही महाशून्य कहा गया है।जिसे महात्मा बुद्ध ने दर्शन में देखा था और यो ही उनके दर्शन को शून्यवादी दर्शन कहा है और इसे हमारे वैदिक ऋषियों ने देखा और वे इसके भी पार गए।
यो ये आकाश तत्व ही सभी तत्वों का समिश्रण होने से महातत्व बनकर हमारा मन से परे “विज्ञानमयी शरीर” है और उसी की प्राप्ति होने पर योगी को समस्त मन की अष्ट सिद्धि और मन से भी परे की नव निधियों यानि हमारी आत्मा की 8+9=17 सिद्धि या क्षमताओं की प्राप्ति होती है।यहाँ 16 कला से परे जो 17 वीं कला है,वो हमारी आत्मा में प्रवेश का द्धार रूपी अंतिम कला है।यो मुख्य तो 16 ही कला है।इसके बाद कोई कला नही है और जो 16 के बाद 36 या 64 या 84 या 108 कलाएं बताई है,वे 16 कला की ही 4 गुणों या 4 तत्वों के गुणन है, जिन्हें 4 धर्म भी कहते है,उनका गुणन फल अर्थ मात्र ही जानो।कलाएं केवल 16 ही है।
अब आकाश तत्व में क्या दर्शन होता है?
अपने ही अनन्त रूपों का दर्शन होता है।की मैं ही समस्त जड़ और चेतन और आदि और अन्नादि तत्व हूँ।यो अभी तत्व की ही अनुभूति होती है और जितने भी 5 तत्व और उनके गुणन फल तत्व बनते है,उनके संयोग या समिश्रण से बने सभी जीव जगत आदि के कैसे बनते है और इन पर कैसे नियंत्रण होता है और नियंत्रण के बाद कैसे उपयोग होता या किया जाता है।तब ये प्रयोगिक ज्ञान हो जाता है और योगी समस्त ब्रह्म और उसकी समस्त विद्या विज्ञानं का अधिकारी बन जाता है।तब ब्राह्मण कहलाता है,इससे पहले अपने को ब्राह्मण कोई नही कह और लगा सकता है।
ये आकाश तत्व हमारे शरीर में “कंठ चक्र” में होता है।और इसी पे अधिकार होते ही योगी पंचतत्वों से बनी ये काया पर अधिकार कर कायातीत यानि शरीर से परे जो आत्म शरीर है-महाशरीर या शाश्वत शरीर- उसमें प्रवेश करता है।तब वो अपने शरीर में भी रहते हुए सभी शरीरों का उपयोग कर सकता है और अनन्त नवीन शरीर बिना किसी और की साहयता लिए स्वयं में ही जो पँच तत्व है,उनसे बना सकता है।पर यहाँ ये शरीर केवल उसी की आत्मा से संचालित और नियंत्रित होने से उसी योगी की सभी में या उसे सभी में अपनी अनुभूति होती है।
यहाँ योग साधक मेरे लिखे का चिंतन बार बार करें, तब ये रहस्य समझ में आएगा।
यानि अभी वो ही आत्मा सब जगह होती है,साथ ही जगत में और भी आत्मा उससे अलग होती है।यो इस बहुत ऊँची अवस्था में भी उसे दो की अनुभूति बनी ही रहती है।क्योकि ये योगी अभी पंचतत्वों तक ही पहुँचा है।
अब इससे आगे है दो चक्र और यो 5 पहले और 2 ये मिलकर बने 7 चक्र। तो अभी योगी 7 चक्रों के चक्कर में ही है।जेसे सूर्य की 7 किरणें होती है,और सूर्य इन 7 किरणों का समिश्रण होते हुए भी 2 और 1 और 3 तत्वों से बना रहता है।ठीक ऐसे है हम है।7 चक्रों से परे 3 चक्र है,जो योग भाषा से चक्र है,पर असल में वे चक्र नहीं है,वे वास्तविक और मूल तत्व है-
1-पुरुष तत्व-2-स्त्री तत्व-3- इन दोनों का समिश्रण तत्व यानि बीज।
इनके बारे में आगे विस्तार से कभी फिर बताऊंगा।
यो ये पंचतत्वों से बनी काया यानि शरीर की जो वास्तविकता है,उसे जानकर साधना करने पर ही प्राकृतिक यानि योग शरीर या दिगम्बरी साधना की यानि पंचतत्व के इस शरीर की सिद्धि होती है।और तब ये जैन धर्म के असल सिद्ध महावीर की स्थिति की प्राप्ति होती है।नाकि ये कथित जैनियों के कथित दिगम्बरों की।और ऐसे ही दिगम्बर योगियों की सिद्धावस्था का रहस्य ज्ञान पकड़ में आता है।
कुछ प्रश्न जो शेष है,उन्हें आगामी लेख में बताऊंगा..
1-कैसे करें ये प्राकृतिक योग शरीर या दिगम्बरी यानि कायातीत या सर्वसिद्ध शरीर की प्राप्ति की पंचतत्वी सिद्धि साधना?
2-कैसे पहले भोग चक्र और दूसरे योग चक्र मूलाधार की साधना करनी होगी जाने?
3-फिर क्या सब प्राकृतिक या शाश्वत शरीर या दिगम्बर ही रहे?
नही.. इससे परे जो अवस्था है,उसका ज्ञान होने पर आप जैसा चाहे वेसा रहे।सबके पीछे-मध्य-आगे भी आप ही है और सभी के निमार्ण में भी आप ही है।तब कोई भेद दिगम्बर और श्वेताम्बर का नहीं बचता है।वो रहस्य आगे कभी बताऊंगा।
अब आता है- छटा चक्र यानि आज्ञा चक्र:-
जिसे योगी आज्ञा चक्र कहते है,असल में ये पँच तत्वी शरीर के बाद का “आनन्दमय शरीर” है।अर्थात जहाँ पंचतत्वों के बाद केवल आनन्द की प्राप्ति होती है और आनन्द केवल शरीर में ही प्राप्त होता है यो छटा शरीर जो स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीर के एक शरीर बन जाने के बाद आता है।उस शरीर में ये सच्चा और सम्पूर्ण आनन्द की प्राप्ति होती है।
इसी बाद आता है सातवां शरीर यानि जहाँ द्धैत भाव की समाप्ति यानि एकीकरण होता है यानि स्त्री और पुरुष एक होकर केवल उस एक अवस्था में शेष रहते है यही उनकी बीज अबस्था यानि बीज शरीर की प्राप्ति है।ये ही अद्धैत शरीर यानि शाश्वत शरीर या ब्रह्म शरीर है।इसे शरीर क्यूँ कह रहा हूँ?
सभी अवस्थाएं चाहे वो द्धैत हो या अद्धैत हो,वे सब स्थित और स्थिर किसमें रखकर अनुभव होंगी।यानि कौन है जिसे ये अद्धैत अवस्था की अनुभूति हो रही है और सबसे बड़ी बात किसमें ये अनुभव हो रही है?अर्थात जिसमे ये अनुभव हो रही है,वो एक अवस्था ही एक शरीर है,जिसे बहुत से योगी अशरीर भी कहते है,जबकि अशरीर कुछ नहीं होता है बल्कि वो भी एक अतिसूक्ष्मातीत शरीर ही है,समस्त अनुभूतियों का केंद्र या शरीर है।
अब आता है पुरुष अपने मूलाधार चक्र शिवलिंग से पृथ्वी तत्व का कैसे ध्यान करें और स्त्री कैसे अपने मूलाधार चक्र यानि श्रीभगपीठ से पृथ्वी तत्व का कैसे ध्यान करें?:-
और वो स्त्री और पुरुष के अलग अलग 5- 5 बीज मंत्र कौन से है?:-
पुरुष का मूलाधार से पृथ्वी तत्व की प्राप्ति को ळं बीज मंत्र है और ऐसे ही स्त्री का भं बीज मंत्र है और ये कैसे है और इसका अर्थ क्या है और क्या ये अकेला ही कैसे पृथ्वी तत्व को अपने में जाग्रत कर आकर्षित कर उपयोग ले सकता है?:-
हमारे शरीर में पहले से ही पांच बीज स्थित होते है और वे किसी भी एक बीज को जपने से उसका सहयोग कैसे करते है?
इन सब ज्ञान के लिए मेरे पिछले ज्ञान लेख स्त्री के 5 कुण्डलिनी बीज मंत्र,पुरुष के 5 बीज मंत्र से भिन्न है।उसे पढ़े..
कुण्डलिनी जागरण (भाग-5) गीता में छिपे हैं जीवन के गहरे राज जिनको जानकर आप रह जाएंगे हैरान, बता रहे हैं श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज
क्या ये 5 तत्व की साधना और सिद्धि को स्त्री और पुरुष के परस्पर रेहि क्रिया योग ध्यान विधि से प्राप्त किया जा सकता है कैसे? आओ विधि जाने:-
रेहि क्रिया योग और उससे चक्र जागरण:-
जब गृहस्थी यानि पति और पत्नी हो या अभी नए प्रेम करने वाले स्त्री और पुरुष हो,वे मेरे बताई “रेहि क्रिया योग विधि” से परस्पर ध्यान करेंगे तब उन्हें-एक एक करके पंचतत्वो से बने इस भौतिक और आध्यात्मिक शरीर की इस क्रम से “प्रेम से समाधि तक” की उपलब्धि होगी-
1-मूलाधार चक्र जागरण और पृथ्वी तत्व दर्शन सिद्धि:-
जब दोनों साथ साथ में थोड़ी दुरी रखकर आमने सामने आपस में बेठकर या जो अन्य शहर या स्थान पर दूर है वे, ये तय करके की अब हम इस समय पर एक दूसरे को स्मरण करते हुए की-हम एक दूसरे के पास और सामने बेठे है,यो ध्यान करेंगे। तब उनमें परस्पर एक दूसरे के शरीर से ध्यान की शक्ति से बार बार गुजरने से एक दूसरे के प्रति आंतरिक प्रेम का गहरा अनुभव होना प्रारम्भ होगा और एक प्रेम की ऊर्जा, जो की उनके कामबीजों यानि उनके अंदर स्थित वीर्य और रज बीज के मंथन से उत्पन्न होगी,उसके निरन्तर विकास होते चलने से उनका बाहरी शरीर जो “अन्नमय शरीर” कहलाता है और जो पृथ्वी तत्व से बना है और इस पृथ्वी तत्व से बने शरीर में जो ऋण और धन तत्व है,उनका भी आपस के ऐसे ध्यान से आकर्षण होगा और सम्पूर्ण पृथ्वी तत्व का संघठन होगा और तब दोनों एक दूसरे के पूरक बनेगें,जिससे दोनों को पृथ्वी तत्व से बने इस अन्नमय शरीर में अद्धभुत अनुभव होने प्रारम्भ होंगे जैसे-
पहले गहरी साँस का चलना और बढ़ते बढ़ते सच्ची भस्त्रिका चलने लगेगी,जिसके निरन्तर चलने से दोनों को अपने अपने अंदर पहले स्थिरता और प्रकाश के अनेक रंगों से बने अलग अलग प्रकाश के दर्शन होते चलेंगे और ऐसे जीवंत ध्यान करने में बड़ा ही आनन्द आने लगेगा।फिर त्रिबन्ध लगने लगेंगे-1-मूलबंध-2-उड्डियान बंध-3-जालंधर बंध..और इसे के निरन्तर अभ्यास से विभिन्न प्रकार की सुगंधे जो योग शास्त्रों में वर्णित है,वो अपने में या एक दूसरे में अनुभव आएगी और यही सुगंधे ही दोनों को सभी बाहरी क्रतिम सुंगध यानि कॉस्मेटिक्स लगाने की व्यर्थ रूचि को मिटा देगा।और सभी रोग मिटकर सम्पूर्ण स्वस्थ की प्राप्ति होगी।और प्रकर्ति के साक्षात् दर्शन होने प्रारम्भ होंगे,पितृदोष कालसर्प दोष और सभी ग्रहों के होने वाले दोषों मिटकर मनोकामनाएं स्वयं ही पूर्ण होने लगेगी।सभी प्रकार के प्राकृतिक आपदाओं और अनजाने अज्ञात भयों से मुक्ति मिलने लगेगी।सबसे बड़ा आनन्द परस्पर प्रेम और समझदारी भरी समझ और सम्मान देने के साथ साथ सच्ची स्वतन्त्रता,सभी अविश्वास मिटकर, एक दूसरे पर भरोसा, विश्वास बढ़ता चलेगा,जो गृहस्थी जीवन हो या अन्य प्रेम के रिश्ते,पहले जो भोग कइ बाद भी खालीपन,अतृप्ति बनी रहती थी,वो मिटकर,अपने में और सभी में और सभी से रस भरा प्रेम और शांति की प्राप्ति होगी।मनुष्य को और क्या चाहिए।अब इससे आगे जल तत्व से बने प्राणमय शरीर और उसके केंद्र स्वाधिष्ठान चक्र में प्रवेश होगा।
स्वाधिष्ठान चक्र और प्राणमय शरीर:-
और ज्यो ज्यों आपका परस्पर बैठकर ध्यान चक्र बढ़ता जायेगा,तब बाद में आप ज्यादा देर तक ये क्रिया नहीं कर पायेगे बल्कि कुछ ही चक्र पुरे करते हुए ही ध्यान में खो जायेंगे।और तब आपको अथाह जल और अपने मन जो भी पवित्र नदियां आदि है, उनके दर्शन होंगे और उनमे से निकलते हुए उस नदी की देवी देव के दर्शन और उनसे वार्तालाप आदि होने लगता है।अभी मन और उसकी अनंत जन्मों की कल्पनायें आपके सामने प्रकट होती और मिटती रहेंगे।और तब भी अनेक प्रकार की दिव्य गन्ध और विशेषकर अनेको पदार्थो के आपकी जीभ पर स्वाद का अनुभव होगा।मन बिन खाये ही तृप्ति का गहरा अनुभव करेगा।भूख मिटती और कम होती चली जायेगी।दर्शनों की कोई थाह नहीं होगी।सबसे बड़ा अनुभव आप दोनों को अपने अपने में होगा-रस का यानि रस की सिद्धि होगी और यहीं इसी अवस्था में आपको “रस का रहस्य” समझ आएगा की कैसे-रस और रास का परस्पर लीला और आनन्द है।
यहाँ आप दोनों ही सच्चे अन्तररमण यानि आंतरिक भोग जो की रस प्रधान होगा और बिना किसी वीर्य और रज के स्खलन के होगा।आपको लगेगा की अरे- हम तो इतना स्पष्ट अनुभव भरा रमण कर रहे है और स्खलन भी हो रहा है,लिंग और योनि वीर्य और रज के बड़े प्रवाह से भरी भरी लगती है,पर ये क्या प्रत्यक्ष में कुछ भी नहीं हुआ और सामान्य भोग यानि सम्भोग से अनन्त प्रकार का आनन्ददायक होगा और अत्यधिक समय तक होता रहेगा।ये कल्पना नहीं..ये योग की दुनियां की सच्चे दर्शन और अनुभव का ज्ञान दर्शन है। तब आप दोनों जानोगे की-सच्चा भोग में सच्चा योग से कैसे और सच्चा ब्रह्मचर्य की उपलब्धि होकर हम दोनों भोगी से उर्ध्व ब्रह्मचारी बनते हुए योगी बनते जा रहे है और साथ ही ठीक यही अवस्था में आप वो रहस्य जानेगे की-“रसिक” किसे कहते है? और रसिक शरीर की प्राप्ति और उसके क्या लाभ है।
और इससे भी बड़ा रहस्य समझ में आएगा की- संतति सुख और दिव्यता लिए सन्तान की कैसे प्राप्ति होती है? और आगे जो सन्तान हो गयी, उसे कैसे सही मार्ग पे ले जाकर उच्चतम योगी सन्तान बनाये।क्योकि हमारी सन्तान का हमारे शरीर में से जो 72 हजार नाड़ियों का समूह विश्व भर में फेला पड़ा है,उसी में से एक या जितनी सन्तान है,उतनी नाड़ियों का उनसे सम्बन्ध होता है और उन्हीं नाड़ियों, जिन्हें “मनोहवा नाड़ियाँ” कहते है, में से किसी एक में ध्यान द्धारा प्रवेश करके मन की सद भावना के प्रवाह को उसमे पहुँचाने से अपनी सन्तान को हम आध्यात्मिक बल देकर उनका कल्याण कर सकते है।क्योकि यहाँ आप दोनों उनके माता पिता है और आपसे उनका सीधा संस्कार है और आगामी जन्मों तक रहेगा,यो इसी सच्ची विधि से आप अपने भी पितृदोषो का सच्चा निवारण कर पाएंगे
अब ये क्या कम चमत्कार है परस्पर जीवन्त प्रेम ध्यान करके जीवन्त ज्ञान प्राप्ति का।।
इससे आगे के चक्र और तत्वों के विषय में आगामी लेख में कहूँगा।यहाँ स्थान की कमी है।यो अभी इतना ही अध्ययन करते हुए साधना करें…
रेहि क्रिया योग विधि से गृहस्थी पति और पत्नी स्त्री और पुरुष या जो नवीन प्रेम में प्रेमिक हैं, उनके परस्पर ध्यान से द्धैत से अद्धैत की जीवंत साधना और आत्मसाक्षात्कार सिद्धि की प्राप्ति विधि :-
रेहि क्रिया योग-rehi kriya yog vidhi-
विश्व का सबसे प्राचीन और सरल और सम्पूर्ण-सत्यास्मि नवांग योग और शक्तिपात क्रिया योग:-
0-शून्य-1-स्थिर-2-स्थित-3-संगम-4-द्रष्टा-5-स्रष्टा-6-सर्वज्ञ-7-सर्वत्र-8-सम्पूर्ण-9-सत्य।
दीक्षा:-स्त्री और पुरुष के परस्पर प्रेम के आदान प्रदान को दीक्षा-“-द-द्धैत और इक्षा-शाश्वत प्रेम” यानि दीक्षा कहते है।
-जीवंत शक्तिपात क्रिया योग से अति शीघ्र कुंडलिनी जागरण विधि:- पति और पत्नी अथवा पिता और पुत्र अथवा माता और बेटी या भाई और बहिन या दो मित्र या प्रेमी जन का एक जोड़ा बनाये और आप प्रातः शौच से निवर्त होकर एक दूसरे के सामने बैठ जाये और इस विधि में कोई एक गुरु बनेगा और कोई एक शिष्य बनेगा अर्थात जो गुरु बनेगा वो अपने सामने बैठे व्यक्ति में अपनी शक्तिपात करेगा और सामने बेठा व्यक्ति केवल अपने में ही ध्यान करेगा।और बाद में यही दोनों पलट कर करेंगे।अब कैसे करेंगे ये जाने:-जो शक्तिपात करेगा वो व्यक्ति अपनी आँखे बन्द करके अपने सामने बैठे व्यक्ति सहयोगी को अपनी मन की आँखों से देखे और अपनी मानसिक शक्ति को उसमे पहले देने के कारण उसके सिर को देखता हुआ ये मंत्र जपे-“सत्य ॐ सिद्धायै नमः” अब सामने वाले के चेहरे को मन की आँखों से देखते हुए,यदि स्पष्ट नहीं देख पा रहा है तो कोई बात नहीं केवल जो भी जैसा भी चेहरा दिख रहा है उसी का अनुमान लगाते हुए फिर से मंत्र बोलते हुए अपनी शक्ति उसमे प्रवाहित होने की कल्पना करे,जो अभी कम होगी बाद में बढ़ती जायेगी यो केवल करता रहे,अब गला फि छाती फिर पेट,फिर मूलाधार से लेकर सारे पेरो को और नीचे अंगूठों तक देखते हुए मंत्र बोले-सत्य ॐ सिद्धायै नमः।अब यही पेरो की देखता हुआ कुछ समय टिके और लगभग 7 बार मंत्र बोले या फिर पैरों से उल्टा ऊपर को सामने वाले को देखता हुआ और मंत्र बोलता हुआ-पेट और छाती और गला और चेहरा और माथा और सिर के ऊपरी भाग तक पहुँच कर कुछ देर सिर को देखता हुआ,मंत्र जपे।कम से कम 7 बार तो जपे।अब फिर से पहले जैसा ही सामने वाले में नीचे तक देखता हुआ जपे।ऐसे ही कम से कम 51 या 108 उल्टा और सीधा क्रम को पूरा करें।
और सामने वाला व्यक्ति यही क्रम केवल अपने सिर से प्रारम्भ करें,चूँकि उसे शक्ति लेनी है यो वो उस शक्ति को अपने सिर से चहरे फिर गले फिर छाती फिर पेट फिर अपने मूलाधार से दोनों पैरों के अंगूठो के अंत तक मंत्र जपते हुए शक्ति को ग्रहण करता हुआ,आँखे बन्द करके ध्यान करे और फिर नीचे से सिर तक ऐसे ही 51 या 108 ध्यान जप क्रम को पूरा करें।
अब 9 दिनों बाद शक्ति देने वाला जिसे गुरु कहते है,वो केवल अपने में ध्यान करेगा और अब शक्ति लेने जिसे शिष्य कहते है वो शक्ति देने वाला बनकर पहले जैसा ही मन्त्र जपते हुए शक्तिपात योग करेगा।तो आप दोनों अति शीघ्र ही इस प्रत्यक्ष शक्तिपात के निरन्तर अभ्यास से ऊपर लिखे 7 चक्रों और उनसे निर्मित 7 शरीरों के सभी अलौकिक दर्शन और अनुभवों से गुजरेंगे।जाने कितने ज्योतिर्मय अलोकिक प्रकाश से भरते हुए कुण्डलिनी जागरण के सहज क्रम से गुजरते हुए आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त होंगे।इस लेख को बार बार पढ़े समझे और करें।कुछ गहरा ज्ञान यहाँ नहीं बताया गया है,क्योकि वो केवल गुरु दीक्षा और उनके निरन्तर सम्पर्क से ही प्राप्त किया जाता है।
बिन गुरु न ज्ञान,ध्यान,न भगवान।
ये ही सच्चा सनातन योग का अति रहस्यमय और प्राचीन क्रिया योग विद्या रहस्य है।जो देखने में सहज है और विश्व का सर्वश्रेष्ठ क्रिया योग है।यही सत्यास्मि धर्म ग्रन्थ में विस्तार से वर्णित है। जो स्वामी जी ने संसार के कल्याण को प्रकट किया है।
रेहि क्रिया योग विधि की वीडियो देखें..
“इस लेख को अधिक से अधिक अपने मित्रों, रिश्तेदारों और शुभचिंतकों को भेजें, पूण्य के भागीदार बनें।”
अगर आप अपने जीवन में कोई कमी महसूस कर रहे हैं? घर में सुख-शांति नहीं मिल रही है? वैवाहिक जीवन में उथल-पुथल मची हुई है? पढ़ाई में ध्यान नहीं लग रहा है? कोई आपके ऊपर तंत्र मंत्र कर रहा है? आपका परिवार खुश नहीं है? धन व्यर्थ के कार्यों में खर्च हो रहा है? घर में बीमारी का वास हो रहा है? पूजा पाठ में मन नहीं लग रहा है?
अगर आप इस तरह की कोई भी समस्या अपने जीवन में महसूस कर रहे हैं तो एक बार श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज के पास जाएं और आपकी समस्या क्षण भर में खत्म हो जाएगी।
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श्री सत्यसाहिबस्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः