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आत्मनिरीक्षण (Self Realization) यानि आत्मचिंतन कैसे करें? (भाग तीन), जीवन को सार्थक बनाने का सबसे सरल तरीका बता रहे हैं श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज

 

 

 

जो इंसान स्वयं का आत्मनिरीक्षण, आत्मचिंतन, आत्म मंथन करता हो और उसके बाद उनका अनुसरण करता हो तो यकीन मानिए ऐसा इंसान जिंदगी में शायद ही विफल हो, वो जो भी कार्य करेगा उसको सोच विचारकर समझकर करेगा। वो जहां भी हाथ डालेगा सफलता ऐसे व्यक्ति के कदम चूमेगी।

 

श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज आत्मनिरक्षण (Self Realization) यानि आत्मचिंतन के तीसरे भाग में कुछ ऐसी बातों का वर्णन कर रहे हैं जो आपको सफलता के उस मार्ग पर ले जाएगी जहां पहुंचना सपना होता है।

 

 

 

आत्मचिंतन या आत्मनिरीक्षण कैसे करें (भाग 2)? आत्मसाक्षात्कार से प्राप्त होती है मन की शांति और मन शांत होने के बाद ही मिलते हैं ईश्वर : श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज

 

पूर्व भाग में अष्ट सुकार के विषय में नवदा भक्ति का सत्यास्मि वर्णित सत्यस्वरुप का संछिप्त ज्ञान यहाँ कह रहा हूँ:-

[भाग-3]

 

जो भक्ति मार्गियो ने केवल जगत मे एक ही पुरुष कृष्ण जी के प्रति प्रेम हेतु बदल कर गलत गलत रुप मे मनुष्य समाज को दिया है। जबकि मनुष्य को भगवान रुपी दो अर्द्धांग अपने पति+पत्नी प्रेम से कैसे- नो रुपो मे एकाकार हो कर जीवंत अवस्था में ही आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करें, दिया था। आओ जाने-की मै का अन्तर भेद मिटाना ही मन्त्र है। मै का मैं में जो त्राण यानि “लय'” करना ही मन्त्र है।इस अभेद स्थिति कि प्राप्ति हेतु नो अवस्था है।जो गुरु द्धारा बतायी गयी साधना विधि से भक्ति यानि “एकीकरण” प्राप्ति को ही “वैधि भक्ति” कहते है। मैं जब अपने मे लय होकर अपने द्रष्टा से स्रष्टा होने का ज्ञान प्राप्त करता है। कि- मैं ही आजन्मा-कर्ता-अकर्ता-भोगता ओर शेष हूँ। तब जो अभेद स्थिति होती है। उसी का नामान्तर नाम है- भक्ति। अर्थात जो साधक या प्रेमी या भक्त यानि बटा हुआ है, वो ई माने एकाकार हुआ है। इस बटे हुये भक्त के नो भाग है:

 

1-श्रवण-2-कीर्तन-3-स्मरण-4-पाददेवा-5-अर्चन-6-वन्दन-7-दास्य-8-सख्य-9-आत्मनिवेदन्॥

1-श्रवण:-जब मैं अपने से अपने मैं यानि जिससे प्रेम करता है। उसकी वार्ता को पूरे मन से सुनता है। कि मैं कौन हूँ? ओर ये कौन है? ओर मैं इससे क्यो प्रेम करता हूँ? और मेरा सच्चा उदेश्य क्या है? इसे आपस मे बेठ कर मिलकर केसे प्राप्त करे? ये सब एक दूसरे से कहना व सुनने की एकाग्र अवस्था को ही भक्ति में “श्रवण” नामक प्रेम की प्रथम अवस्था कहते है। इस श्रवण से अन्तर्वाणी,अनहद नांद कि प्राप्ति होती है, व मंत्र सिद्धि की प्राप्ति होती है॥

2-कीर्तन:-मै जब अपने दूसरे प्रेमिक मैं के साथ जीवन जीने का उद्धेश्य जानता है। तब उस उद्धेश्य अर्थात आनन्द कि प्राप्ति ही हम दोनो मैं का आदि व अन्तिम उद्धेश्य है। इस मे निगमन होकर जो आनन्द प्राप्त करता है। उसका निरन्तर अपने कान से ले कर पाँच इंद्रियों द्धारा श्रवण-मनन कि पुनरावर्ति ही के सात”वचन” के सत्य स्वरुपो का गुणगान ही कीर्तन नामक प्रेम भक्ति की दूसरी अवस्था है।इस कीर्तन से राग प्रेम कि आठ अवस्था -1-स्तम्भ-2-स्वेद-3-रोमांच-4-स्वर भंग-5-कम्प-6-वैवव्य-7-अश्रु-8-प्रलय, कि प्राप्ति होती है। ओर प्रेम प्रगाढ़ होता है।

3-स्मरण:-मै अपने ओर अपने दूसरे मै का मूल उद्देश्य क्या है? जो एकाकार हो कर प्रेमात्मसाक्षात्कार है। उसका निरन्तर श्रवण मनन कीर्तन से पुनरावर्ति करते रहने का नाम”स्मरण” नामक प्रेमा भक्ति की तीसरी अवस्था है। इस स्मरण से दो प्रेमिक “मैं” एकाकार होते चलते है। ओर दो मन यानि इग्ला व पिग्ला रूपी सूक्ष्म स्त्री+पुरुष रुपी प्रेमी का मिलन से कुण्डलिनि जाग्रत होती है। इससे आत्म ज्ञान मे सत्य प्रेम क्या है? ये ज्ञान होता है॥

4-पादसेवा:-मै अपने को व्यक्त करने वाले इस शरीर के समस्त अंग-पांचों इन्द्रियो व दसो प्राणो के द्वारा अपने दूसरे ‘मैं’ यानि जिससे मैं प्रेम करता हूँ कि- उसकी अह: रहित सेवा करना ही “पादसेवा” नामक प्रेम की चौथी अवस्था कहलाती है। यहाँ दोनो को ऐसा ही एक दूसरे के प्रति करना है।यहाँ पादसेवा का अर्थ- दूसरे के चरणों कि सेवा करना नही है। बल्कि ‘प’ माने प्राण यानि अपने सारे प्राणो से करना है। ‘आ’ माने आवरण यानि कि- ये दसो प्राणो को धारण करने वाला शरीर से है।और ‘द’ माने दाता देने वाला व दे कर ग्रहण करने वाला भी मैं ही हूँ।यो दोनो ओर मैं ही प्रेमी व प्रेमिका हूँ। ये भेदाभेद में अभेद स्थिति के पाने का नाम ही “पादसेवा” नामक पांचवी प्रेमा भक्ति अवस्था है।

5-अर्चन:-मैं आत्मा ओर उसका दूसरा अर्द्ध शक्ति मैं, जो दूसरी प्रेमिक आत्मा है। ये दोनो मैं के लिये है कि- हम प्रेम करने वाले एक आत्मा है। तो दूसरा मैं पहली मैं रूपी आत्मा की आत्म शक्ति है। तभी दो मैं एक “हम” बनकर एक दूसरे के प्रेम पूरक है।यही मैं(आत्म)का मैं(शक्ति) द्धारा निरन्तर आत्म मँथन यानि खोज करने की क्रियात्मक आचरण को ही “अर्चन” नामक प्रेमा भक्ति की छठी अवस्था कहते है।इसे सामन्य शब्दो मे कहे, तो मैं का अपनी ही आत्मशक्ति के द्धारा अपनी ही उपासना करना “अर्चन” कहलाता है।और ये अर्चन अपने समस्त अंगो के द्धारा आचरित करते हुये, अपने दूसरे मैं को प्रेम समर्पित करता है।और अपने को दूसरे ‘मैं’ के साथ अपने समस्त अंगो के साथ एकाकार कर, जो आत्म मँथित करना यानि एकाकार होने की क्रिया करना व उस मँथित क्रिया कर जो आन्नद की उपलब्धि पाता है।उसी का नामान्तर नाम “अर्चन” है। इससे दोनो मैं को एक दूसरे के प्रति सारे अंगो के सम्पूर्ण समर्पण होने के तीर्व कारण से, जो सम्पूर्ण शरीर मे भँयकर आन्नद का आवेग का कँम्पन बनता है।और उससे जो उनके शरीर मे नीचे से ऊपर व ऊपर से नीचे कम्पन तीर्व गति करता है।तब इस अनुलोम-विलोम होती क्रिया से श्वासो की गति बढ़ जाने पर स्वयं ही दोनों के शरीर में सच्चा आन्तरिक प्राणायाम होता है। इसे ही “कम्प” नामक प्रेम भक्ति का सुकार कहते है। अत; इस कम्प प्राणायाम से दोनो “मैं” के अन्नमय शरीर यानि बाहरी शरीर व आंतरिक शरीर यानि प्राणमय शरीर का शोधन हो कर कुण्डलिनि का जाग्रण प्रारम्भ होता है।

6-वन्दन:– मै आत्मा अपनी दूसरी आत्म प्रेमिक शक्ति मैं से मिलकर जो आन्नद इच्छा से जो आन्नद क्रिया करता हुआ, उस प्राप्त आन्नद आवेश से जो परस्पर आन्नद प्राप्त करते है।उसे एक साथ एक दूसरे के साथ आनन्द से मनाना ही,एक मै का दूसरे मैं के लिए “वन्दन” नामक प्रेम की सातवीं प्रेमा भक्ति अवस्था कहलाती है। अर्थात अपनी ही अपने द्धारा अपने प्रेमिक मैं की वन्दना करना “वन्दन” अर्थ है।यानि यहां दोनों प्रेमिक मैं को एक होते हुए भी एक दूसरे से स्वतंत्र रूप में भिन्न भी और एकाकार रूप में भी, मैं ही सत्य स्वरुप नित्य आत्मा हूँ।यह आत्म अनुभव होता है।और यही सच्चा प्रेमिक आत्मवन्दन कहलाता है। तब इस अवस्था की क्रिया से “वैवर्व्य”नामक छटा सुकार प्राप्त होता है।अर्थात मैं का दूसरे मैं से पूर्ण आन्तरिक व बाहरिक एकाकार अवस्था का जब परस्पर अनुभव होने लगता है, कि- वो मैं एक है। तब एक अदभुत अवस्था का उदय होता है। जिसे “एकांकी” होना कहते है।तब वो एकांत मे भी दूसरे का एकत्य यानि वो और मैं एक है,का दिव्य अनुभव करता हुआ अपने आपे में ही केन्द्रित रहता है।वो अब बिना किसी के एकांत में भी एकांकी होते हुए भी अकेला अनुभव नहीं करता है।तब उसके जीवन मे एक स्थिरता सी आ जाती है। इसे ही योग भाषा मे आसन कि प्राप्ति व आसन सिद्धि कहते है। वो अपने प्रेमी या प्रेमिका के किसी भी कर्म और व्यवहार से कभी विचलित नही होता है। यही अविचलन अवस्था का नाम “वैवर्व्य” नामक प्रेमा भक्ति की दिव्य अवस्था कहालाती है।यहाँ -“वै” का अर्थ है-विश्व “व” का अर्थ है-विस्मर्त और “व” का अर्थ है-व्यक्त ओर “र” का अर्थ है-रति या आत्म आन्नद से रमित होना और “य” का अर्थ है-उर्ध्व होना।अत; सारा अर्थ ये कहेंगे कि- दोनो मैं के अन्तर और बहिर एकाकार अवस्था से उत्पन्न रति क्रिया से प्राप्त आन्नद के कारण, ये जगत विश्व को अ्पनी व्यक्त प्रेम अवस्था से विस्मर्त(भूल)कर, अपनी प्राप्त उर्ध्व आन्नद अवस्था मे स्थिर व स्थित रहना ही “वैवर्व्य” कहलाता है। इससे कुण्डलिनी शक्ति कँठ चक्र मे प्रवेश करती है।

7-दास्य:-जब दोनों मैं ही अपने आनन्द की प्राप्ति हेतु अपनी ही द्धैत शक्ति-प्रेमी या प्रेमिका से निम्न और भिन्न भी हूँ,अर्थात मैं छोटा होकर सेवक होकर ही प्रेमानन्द प्राप्त कर सकता हूँ।यहाँ मैं का प्रेम भाव दास्य भाव है।तब इस भाव के प्रभाव से शरीर पर नेत्रों के माध्यम से जो पदार्थ निकलता है।एक बिना प्रयत्न के मात्र आभाव की द्रढ़ता से निकलने वाले “गर्म आँशु”होते है।और जो आत्म आनन्द के कारण आँखों के बहिर कोनों से आँशु निकले यानि वे “ठंडे अश्रु” कहलाते है।इन ठंडे आंशुओं से पूर्ण तृप्ति का दिव्य अनुभव मिलता है।ऐसी अवस्था में कुंडलिनी शक्ति के प्रभाव से दोनों भाव जगत यानि चित्त और चिद्ध आकाश में प्रेम का अद्धभुत द्रश्य दर्शन होने लगता है।यहाँ प्रेम की जो इच्छा थी उसे शक्ति की प्राप्ति होती है और परिणाम बिना प्रयास के ही प्रेम दर्शन होने लगते है।यहीँ सभी प्रकार की घृणा विकार मिटकर केवल निस्वार्थ सेवा का सुकार की प्राप्ति होती है।और यहां आनन्द समाधि की प्राप्ति और उसमें स्थिरता की प्राप्ति होती है।

8 सख्य:-इस अवस्था में आकर, अपने अपने मैं के रूप में दोनों प्रेमी और प्रेनिका ही अपनी आत्मशक्ति अर्थात अपने जैसा दूसरा स्वरूप प्रेमी व् प्रेमिका या सखा सहेली के साथ आनन्द युक्त हूँ.. ऐसा दिव्य अनुभव होता है।तथा हमें नित्य एक दूसरे की उपस्थिति सहयोग की परमवश्यकता है,वो मेरे बिना कुछ नहीं है और मैं उसके बिना कुछ नहीं हूँ।यही अपने ह्रदय में समान रूप से निरन्तर धारण किये रखना ही “सख्य” नामक प्रेमा भक्ति की पँद्रहवीं अवस्था कहलाती है।तब कुंडलिनी शक्ति आज्ञाचक्र पर पहुँच कर मैं के लय का अनुभव “समान” रूप से करती है।यहीं भेद रहित अभेद प्रेम समाधि की प्राप्ति होती है।और अहंकार नामक विकार बदलकर प्रेमाकार सदाकार सुकार व् एकल युगल दर्शन और सविकल्प समाधि का अंत और निर्विकल्प समाधि की प्राप्ति होती है।यानि तब दोनों के शरीर में भेदाभेद अर्थात “पर” का भाव समाप्त हो जाता है।तब इसी प्रेम शरीर के एकीकरण को “प्रलय” नामक सुकार भाव की दिव्यता प्राप्त होती है।यहां ‘पर’ यानि दूसरे के होने के सभी भावों की समाप्त हो जाती है और अपने अंदर से लेकर सभी जगत में उसे केवल एक ही है,की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है।की-कोई दूसरा नहीं है,जितने भी प्रकार के भेद और भिन्नताएं है,उनका स्रोत स्वयं में ही प्रत्यक्ष अनुभव होता है और उस अवस्था पर विज्ञानवत अधिकार भी होता है।

9-आत्म निवेदन:-जब दोनों मैं यानि एक आत्मा “पुरुष” और एक आत्मा शक्ति “स्त्री” परस्पर प्रेमानन्द हेतु एक समान “प्रेमाइच्छा” की एक दूसरे से प्रस्तुति करते है,की-अब हमें प्रेम या आत्म उपलब्धि चाहिए।वेसे यहां ये चाहत प्राप्ति आदि सब शब्दावली और अभिव्यक्तियाँ विलय यानि समाप्त हो जाती है।केवल रह जाता है-जो एकल अनुभूत दर्शन हो रहे है,उसमें अभी जो दो की अनुभूति हो रही है की-एक मैं में दूसरा मैं प्रलय कर एक है,ये द्धैत अनुभूति को मिटाने की स्थिति का आत्म इच्छा होना की-अब एक ही रहे।कोई दूसरा नहीं रहे।यहाँ दूसरे की समाप्ति की इच्छा नहीं की जा रही है।बल्कि वो भी मैं ही हूँ.,का पक्का बोध का आत्म प्रयास का होना है।यहीं आत्म आनन्द की एक ही मे समान इच्छा “आत्मनिवेदन” नामक प्रेम की सोलहवीं दिव्य अवस्था कहलाती है।यहाँ पर शरीर-प्राण-मन-विज्ञानं यानि काल और क्षण सब समाप्त हो जाते है।और एक मात्र दोनों के एक होकर “चैतन्य बोध” यानि “हूँ” का शेष रह जाना घटित होता है।और यही एक मात्र शेष प्रेमवस्था ही “भक्ति” नामक दिव्य अवस्था की प्राप्ति होती है।जिसका एक मात्र परिणाम होता है-प्रेम। यहीं निर्विकल्प समाधि घटित और स्थिर होती है।पर कोई भी अवस्था स्थिर नहीं है।और जो नित्य स्थिर है और एक प्रेम बीज के रूप में पुनः प्राप्ति होती है।जिसे वेद शून्य अवस्था कहते है,की जब न कोई सत् था नअसत् था।केवल एक चैतन्य शून्य था।और यही वह अनादि और शाश्वत ईश्वर है। और इसी प्रेम बीज से पुनः दोनों ‘मैं’ यानि मैं स्त्री और मैं पुरुष का पुनर्जागरण होता है।जिसे वेद एकोहम् बहुस्याम यानि एक से अनेक हो जाऊ का विस्फोटक घोष हुआ और पुनः सृष्टि का प्रारम्भ हुआ।
यही प्रेम की सोलह कला ही “प्रेम-पूर्णिमां” कहलाती है।जिसे प्रत्येक प्रेमी और प्रेमिका अपने दैनिक जीवन में इसी क्रम से अपना कर दिव्य प्रेम की जीवन्त प्राप्ति कर जीवंत आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति करता है।

इस लेख को बार बार अध्ययन करने से आप इसकी गहराई को समझ सकते है।

जो शेष रह गया उसे अगले लेख भाग-4 में बताता हूँ

 

इस लेख को अधिक से अधिक अपने मित्रों, रिश्तेदारों और शुभचिंतकों को भेजें, पूण्य के भागीदार बनें।”

अगर आप अपने जीवन में कोई कमी महसूस कर रहे हैं घर में सुख-शांति नहीं मिल रही है? वैवाहिक जीवन में उथल-पुथल मची हुई है? पढ़ाई में ध्यान नहीं लग रहा है? कोई आपके ऊपर तंत्र मंत्र कर रहा है? आपका परिवार खुश नहीं है? धन व्यर्थ के कार्यों में खर्च हो रहा है? घर में बीमारी का वास हो रहा है? पूजा पाठ में मन नहीं लग रहा है?
अगर आप इस तरह की कोई भी समस्या अपने जीवन में महसूस कर रहे हैं तो एक बार श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज के पास जाएं और आपकी समस्या क्षण भर में खत्म हो जाएगी।
माता पूर्णिमाँ देवी की चमत्कारी प्रतिमा या बीज मंत्र मंगाने के लिए, श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज से जुड़ने के लिए या किसी प्रकार की सलाह के लिए संपर्क करें +918923316611

ज्ञान लाभ के लिए श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज के यूटीयूब

https://www.youtube.com/channel/UCOKliI3Eh_7RF1LPpzg7ghA से तुरंत जुड़े

 

 

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श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येंद्र जी महाराज

जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः

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