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आत्मनिरीक्षण यानि आत्मचिंतन कैसे करें? (भाग चार), हमारे मूल स्वभाव व उसके परिवर्तन के कारण क्या हैं? श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज

 

 

 

आत्मनिरीक्षण,आत्मचिंतन पर स्वामी जी काफी गहन अध्ययन के बाद आप सबके सामने इसके भाग प्रस्तुत कर रहे हैं, जिन्हें पढ़ने के बाद आप अपने जीवन में बड़े बदलाव ला सकते हैं।

 

आत्मनिरीक्षण (Self Realization) यानि आत्मचिंतन कैसे करें? (भाग तीन), जीवन को सार्थक बनाने का सबसे सरल तरीका बता रहे हैं श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज

 

आत्मनिरीक्षण (Self Realization) यानि आत्मचिंतन कैसे करें? (भाग तीन), जीवन को सार्थक बनाने का सबसे सरल तरीका बता रहे हैं श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज

 

“Self-Realization is the goal of all human endeavors and of all spiritual paths. It is the merging of the ego-self (which identifies with one body, one personality, one family, one nationality) with the Universal Self. This “realization” is something akin to what we experience when awakening from a nightmare of being trapped in a small, dark place: We feel intense relief, boundless joy and gratitude for having awakened in freedom.”

 

किसी ने सच ही कहा है कि “जीवन में अनुभवों से सीखकर खुद को बदलने की जरूरत होती है। अगर हम बदलना बंद कर देते हैं तो एक ही जगह रुक जाते हैं। जो बदलता है वही आगे बढ़ता है।

जीवन को बदलाव की प्रक्रिया से गुजरना ही पड़ता है। अगर बदलाव आपका लक्ष्य नहीं है तो फिर जीवन ठहर जाएगा। बदलाव नहीं होगा तो जीवन की धारा रुक जाएगी। हर अनुभव हमें प्रेम, धैर्य और आनंद प्राप्त करना सिखाता है। अनुभव ही हमें बहुत सी चीजें सिखाते हैं। हमारे विकास में सहायक होते हैं। हमारा लक्ष्य होना चाहिए कि हम ‘संसार’ को ‘निर्वाण’ में बदलें। या दूसरे शब्दों में कहें कि ‘बंधन’ को ‘मुक्ति’ में बदलें। ऐसा होने के लिए जरूरी है कि आत्म स्मरण या खुद को याद रखें।

अगर हम अपने भीतर के विचारों, निष्कर्ष क्षमता, भावनाओं, पसंद-नापसंद को लगातार बनाए या जगाए रखते हैं तो एक नई तरह का सत्य हमारे सामने खुलता है और हम अपनी ही कैद से मुक्त होते जाते हैं। दुनिया में दो तरह के डर होते हैं। एक सामने उपस्थित डर और एक सोचा हुआ डर। जब एक बाघ हमारे सामने आ जाए तो डर होगा वह वास्तविक डर होगा।”

 

श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज का भी सबको यही संदेश होता है कि खुद को तो बदलकर देखिए, पहले अपने अंदर झांकिए, अपने अंधकार को दूर करिये बाकी चीजें अपने आप साफ हो जाएंगी। मन के मेल को जितना जल्दी हो सके साफ कर लीजिए यही आपका सबसे बड़ा आत्मनिरीक्षण है।

 

और आज इसी पक्ष को रखते हुए इसके चौथे भाग में “हमारा मूल स्वभाव और उसमें परिवर्तन के कारण के विषय पर शरू सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज बता रहे हैं-

 

 

स्वभाव का अर्थ:-स्व का भाव यानि अपनी उपस्थिति ही स्वभाव कहलाता है।ये स्वयं की भाव सहित उपस्थिति क्या है? ये भाव क्या है?हम कभी भी अपने को नहीं देखते की-हम क्या है? हम केवल दूसरे को ही देखते है की-वो क्या है? कभी अपने बिना किसी विधि के केवल अपने को बिना आईने के,केवल अपनी मन की आँखों से विश्लेषण करते हुए देखा है की-मैं क्या और कौन हूँ? तो आप कह उठेंगे की-नहीं।हां देखा है-तो केवल अपने आप में और शरीर पर कमियों को..और तुरन्त उसे किसी क्रतिम वस्तु से ढककर सजाकर छिपाने में लग जाते है।ये है- आपका स्वभाव जो आपका नहीं है।तो अपने अपना स्वभाव खो दिया और ओढ़ लिया औरों का स्वभाव और ऐसे ही सभी एक दूसरे के ओढ़े हुए स्वभाव को ओढ़कर जी..रहे..यो ये ओढ़ा हुआ स्वभाव त्याग दो और जानो की-तुम्हारा मूल स्वभाव क्या है? और उसे ही अपनाओ।

स्वभाव के 5 प्रकार है:-रूप-रस गंध-स्पर्श-शब्द। इन्हीं पांचों के परस्पर संतुलन पर मनुष्य का स्वभाव संतुलित रहता है।इनमें से किसी भी भाव की अधिकता या कमी या आभाव से मानव के स्वभाव में परिवतर्न आ जाता है।
जैसे-रूप की अधिकता से अहंकार का स्वभाव आ जाता है।
रूप की कमी से उपेक्षा का स्वभाव आ जाता है।
रस की अधिकता से कामुकता का स्वभाव आ जाता है।
रस की कमी से नपुंसकता-उदासीनता का स्वभाव आ जाता है।
गंध की अधिकता से दिव्यता का स्वभाव आ जाता है।
गंध की कमी से शुष्कता,एकांतिक स्वभाव आ जाता है।
स्पर्श की अधिकता से निकटता और शक्ति की लेन देन से ऊर्जा शक्ति का ह्रास होता है।
स्पर्श की कमी से स्नेह,सानिध्य आदि गुण की कमी से दुःख का आभाव बढ़ता है।
शब्द की अधिकता से विद्धवता व् क्रोध बढ़ता है, और अंत में अनहद नाँद से।मोन का स्वभाव आ जाता है।
शब्द की अल्पता से मूढ़ता,शून्यता का स्वभाव आ जाता है।
यो ये पंच तत्वों से पँच इन्द्रियां और उनके स्वभाव के स्वं भाव ही स्वयं यानि हम रूपी आत्मा के अष्ट विकार और अष्ट सुकार के सम्मलित स्वरूप सौलह भाव है। और इन सभी स्वभावों का अंत है-आत्मसाक्षात्कार यानि पूर्णिमां।यो अष्ट विकारों यानि भावों की भी सोलह कला के रूप में अमावस है और अष्ट सुकारों यानि भावों के रूप में सोलह कला स्वरूप पूर्णिमां है और इन सब कलाओं का मूल स्वरूप है-मन यानि समस्त इच्छाओं की क्रिया प्रतिक्रियाओं का समूह।और इस मन का जनक है-आत्मा यानि हम स्वयं।यो जो बुरा स्वभाव है-उसे अष्ट विकार से युक्त अंधकार की अमावस मानो और उसकी भी उपयोगिता है।और जो अच्छा स्वभाव है,उसे प्रकाशित पूर्णिमां मानों।दोनों ही एक मन के दो पूरक छोर है।जैसे-पुष्प और गंध।दोनों भिन्न होते हुए भी एक ही है।यो हमें अपने स्वभाव को जानना चाहिए और उसे अपनी ही समझ से जानते हुए सुधारना चाहिए।इसमें गुरु साहयक अवश्य होता है।पर सुधारना स्वयं को ही होता है।यो..

आप अपने स्वभाव में इसलिए परिवर्तन नही करें-की लोग उस परिवर्तन के कारण आपको पसंद करेंगे..

बल्कि इसलिए परिवर्तन करें की- वो आपके उस स्वभाव का सम्पूर्ण विकास बने…

तब आपका स्वभाव की सम्पूर्णता आपके साथ साथ सभी को शांति देगा…

अधिकतर लोग स्वभाव बदलने का नाम पर अपनी मुस्कान को नकली बना लेते है। उनकी आँखें कुछ कहती है। और उनकी हल्की सी मुस्कान कुछ कहती है। देखने वाले को स्पष्ट पता चल जाता है, की- इनके अंदर कुछ चल रहा है।और ताड जाते है की- जो ये बताना नही चाहते और मुस्करा कर यो अंतर्मन से कह रहे है, की- हम पर हमारी आई समस्या का कोई प्रभाव नही पड रहा है। परन्तु पड़ रहा होता है। तभी तो ये हाल है-अपने को नही बाँटने का।और आप उन्हीं लोगों के वॉट्सऐप या फेसबुक पर उनके रोज बदले उपदेश चित्रों और उनके माध्यम से शेरों शायरी में उनका उपेक्षित हुआ दर्द पूरी तरहां स्पष्ट दीखता है की-वे पीड़ित है।और क्या बात है सर..कहते ही,ये लोग उसी नकली मुस्कान और खमोश निगाहों के बेमेल मिलाप से कहेंगे-अरे कोई बात नहीं।
ऐसे लोग नही चाहते लोग उनकी मजबूरी का गलत मतलब लगाये। जबकि ऐसा नही होता है।पूछने वाले भी जान जाते है की- ये नही बताना चाहते है। तब उनकी भी उपेक्षा प्रारम्भ हो जाती है। की ठीक है- भाई- जेसी आपकी इच्छा।अब और पीड़ा से भर जाते है की-अरे ये मजाक उड़ाने को ही पूछ रहा था।प्रेम होता तो-अवश्य जिद्द करता और हम बताते नहीं क्या?ये तो रही प्रचलित स्वभाव और उसके बदलने से स्वयं पर ही पड़ने वाला बुरा प्रभाव।
यो ऐसी अवस्था उत्पन्न होने पर या ऐसा लगने पर, आप सदा अपने स्वभाव का ही ध्यान करो। उसे मन की आखों से देखने का अभ्यास डालो। उस ध्यान में परखों की+ मैं अपने लिए बदल रहा हूँ? या दूसरों के लिए? ओर क्यों बदल रहा हूँ? इस बदलाव का मुझ पर और औरों पर क्या व् कब तक असर पड़ेगा? व् रहेगा? अन्यथा इस अपूर्ण स्वभाव बदलाव से आप ही परेशान रहेगें। किसी पर कोई प्रभाव नही पड़ता। क्योकि वे भी यही तो करते है। और कर रहे है। यो ही तो आज चारों और नकली चहरों की नुमाइश लगी है। सब एक दूसरे के नकली चहरे देखते घूम रहे है।और प्रसन्न लगते हुए भी कोई प्रसन्न नही है। यो इस बदलाव को त्यागो। और अपना ध्यान करो। क्योकि आजकल प्रचलित ये तथाकथित पूजापाठ भी एक नकलीपना ही लिए है। आप पहले तो अपने लिए पूजापाठ करते है। बाद में कुछ विशेष उपलब्ध नही होने पर आप धार्मिक होने का ढोंग रचते हैं। और लोगो को ये दिखाने में ज्यादा समय खर्च करते है, की- मैं धार्मिक और अपने नियम के प्रति कट्टर हूँ। और अपने सच्चे स्वभाव को खो बैठते है। और अंदर से अशांत और दुखी रहते है। यो सनातन धर्म का वेद से गीता तक और सत्यास्मि ज्ञान यही बारम्बार कहता है। की अपने को जानो, अपनी आत्मा का अनुभव करो। वही सच्ची शांति और आनन्द है। यो जो भी नियम बनाओ, वो अपनी उन्नति को बनाओ। उसमे किसी अन्य को मत जोड़ो। केवल अपने को ही जोड़ो। क्योकि दूसरा उसे फिर बिगड़ देगा। यो प्रातः उठों पानी पियो और अपना व्यायाम करो या टहलने जाओ। साथ ही कुत्तों को, चींटियों को कुछ खाने को देने की आदत डालो। ताकि ऐसा करते रहने से आपको सकारात्मक भाव के विकास से प्रसन्ता मिलेगी। पर ध्यान रहे की- चींटियों को ऐसी जगह डालो, जहाँ चलते लोगो के पैर नही पड़े। क्योकि आपने तो अपना काम कर दिया, पर चींटियों पर पैर पड़ कर लोग पापी बनेगे। यो अपने धार्मिक हो या सामाजिक या परिवारिक व् मित्रवत कार्य के करने में भी ध्यान रखो की- आपका किया कार्य आपको तो लाभ देगा, पर दूसरों की परेशानी मिलने से जाने अनजाने उनको मिली परेशानी से उतपन्न उनका कोप आपको ही पड़ेगा। फिर आप कहेंगे की- मैं तो इतना सब करता हूँ।परन्तु कुछ लाभ के स्थान पर हानि ही होती है। यही सब जांचने का नाम ध्यान है। ना की आँख मूँद कर बैठना ध्यान है। और उस ध्यान में भी चिंता करते हुए लोगो की कमियाँ निकल रहे होते है। ये बड़ा ही खतरनाक ध्यान होता है, की- आप अपनी आत्म ऊर्जा के निकट होते है। और वहाँ आप बुरा सोचते है, तब औरों के साथ साथ आपका भी बुरा ही होता है। क्योकि ध्यान में इच्छा की पूर्ति के लिए ऊर्जा यानि शक्ति पैदा होती है। तो आपकी वो इच्छा अवश्य देर सवेर ही सही अवश्य पूरी होगी। और दूसरों के साथ आपको भी परिणाम मिलेगा। यो ही ज्ञानियों ने ध्यान से पहले पवित्र मंत्र चालीस आदि का जप करते मन को शुद्ध करने का प्रवधान किया है। ताकि आपकी इच्छा शुद्ध होकर ही आप ध्यान यानि ऊर्जा क्षेत्र में प्रवेश का आत्म शांति पाये। यो अपने किये प्रत्येक व्यवहार को जानो उस पर नजर रखों। यही है सत्यास्मि रेहि क्रिया योग के करते करते स्वयं उपस्थित साक्षी ध्यान विधि,उसे करो और अपने ही स्वभाव का पूर्णतम विकास करते हुए आत्म आनन्द ले।

इसे मैं कवित्त्व में समझाता हूँ की-
स्वयं को जानो स्वयं ध्यान कर
स्वंम समझों स्वयं के भाव।
रूप रस गंध स्पर्श शब्द से
बना है पंच आत्म स्वभाव।।
रूप अधिकता अहंकार में बदले
रस अधिक बदले काम भाव।
गंध अधिक चंदन सर्प लिपटे
स्पर्श अधिक शक्ति आभाव।।
शब्द अधिक विद्धवता क्रोध लाये
और ये पँच तत्व कमी दें आभाव।
इनकी अल्पता सदा दुःख देती
पंच तत्व संतुलन ही स्वं स्वभाव।।
यो स्वं के पंच भाव को समझों
और उसकी का करो विकास।
यही स्वभाव सभी आभाव मिटाते
यही बन अंतर्ज्ञान दें परमनिदान।।
जो कहना है उसको समझो
समझ तभी कहा बोलो।
समझ यदि स्वयं नही आता
तो मौन स्वयं में हो लो।।
अपनी भाषा और शब्दों पर
सदा रखो निज ध्यान।
क्या कहना तुम चाहते
वही बोलो रख कर ज्ञान।।
दूजा भी क्या कहना चाहे
उसे सुनो रख ध्यान।
बात सदा पूरी ही सुनना
तब कहना सच समाधान।।
कभी ना जल्दी करना सुनकर
ना शीघ्रता भरा व्यवहार।
पूछो की तुम्हें क्या राय चाहिए
कहे तो दो सत सार।।
अधिक ना बोलो एक बात को
ना बोलो रटा रटाया।
जो भी कहो बताओ अपना
अनुभव कम या जो भी पाया।।
अधिक बोलना कभी न करता
अपना ना दूजे कल्यान।
विरोध क्रोध ही बढ़ता जाता
मित्रता मिटा ले दे अपमान।।
मैं हूँ यहाँ दो अर्थ पाता
साहयता अर्थ और अभिमान।
नहीँ बोलना और चुप ही रहना
किये प्रश्न का उत्तर नही देना।
बात बदलना अर्थहीन शब्द
मित्रता सदा इन आदत खोना।।
प्रश्न करना तो क्या करना
उत्तर देना तो क्या जान।
बोली चाहे जो भी बोलो
उसमें मधुर प्रेम रस सान।।
समझ नियंत्रण बोली रख्खों
बोलो घर बाहर बिन अभिमान।
हास्य परिहास अवश्य सब करना
पर मर्यादा का रख ध्यान।।
समझ नियंत्रण ना अंकुश है
समझ आपका सम्पूर्ण स्वभाव।
पुष्प और सुगंध ज्यों एक है
वही समझ प्रेम आत्म स्वभाव।।
समझ मिटाये संशय विभक्ति
समझ हमारी इशवत भक्ति।
समझ से ही वेराग्य विवेक हो
समझ ही हमारी आत्मज्ञान शक्ति।।
समझ विस्तार नाम वेद पुराण
अहम ब्रह्मास्मि समझ वेदांत।
श्री भागवत समझ प्रेमरास महा
अहम् सत्यास्मि समझ मुक्तांत।।

शेष अगले भाग में बताता हूँ..

 

 

 

इस लेख को अधिक से अधिक अपने मित्रों, रिश्तेदारों और शुभचिंतकों को भेजें, पूण्य के भागीदार बनें।”

अगर आप अपने जीवन में कोई कमी महसूस कर रहे हैं घर में सुख-शांति नहीं मिल रही है? वैवाहिक जीवन में उथल-पुथल मची हुई है? पढ़ाई में ध्यान नहीं लग रहा है? कोई आपके ऊपर तंत्र मंत्र कर रहा है? आपका परिवार खुश नहीं है? धन व्यर्थ के कार्यों में खर्च हो रहा है? घर में बीमारी का वास हो रहा है? पूजा पाठ में मन नहीं लग रहा है?
अगर आप इस तरह की कोई भी समस्या अपने जीवन में महसूस कर रहे हैं तो एक बार श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज के पास जाएं और आपकी समस्या क्षण भर में खत्म हो जाएगी।
माता पूर्णिमाँ देवी की चमत्कारी प्रतिमा या बीज मंत्र मंगाने के लिए, श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज से जुड़ने के लिए या किसी प्रकार की सलाह के लिए संपर्क करें +918923316611

ज्ञान लाभ के लिए श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज के यूटीयूब

https://www.youtube.com/channel/UCOKliI3Eh_7RF1LPpzg7ghA से तुरंत जुड़े

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श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येंद्र जी महाराज

जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः


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