देश के सबसे जटिल सामाजिक मुद्दों में से एक तीन तलाक से संबंधित याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ में सुनवाई शुरू हो गई है। पीठ में सुनवाई का यहं क्रम इसके निपटारे तक रोज चलेगा। कोर्ट ने इस मामले को बेहद गंभीर मानते हुए रोज सुनवाई करने का फैसला किया है। इस मसले पर गुरुवार को सुनवाई शुरू होते ही, प्रधान न्यायाधीस जेएस खेहर की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने साफ कर दिया है कि वे सिर्फ तीन तलाक पर ही फैसला देगी, एक से अधिक शादियों पर नहीं। हालांकि कोर्ट ने यह जरूर कहा कि तीन तलाक पर सुनवाई के दौरान अगर जरूरत पड़ी तो निकाह हलाला पर भी चर्चा कर सकते हैं। पांच जजों वाली इस संविधान पीठ के समक्ष सुनवाई के लिए कुल सात याचिका हैं, जिनमें से पांच याचिकाएं मुस्लिम महिलाओं ने दायर की है। इनमें मुस्लिम समुदाय में प्रचलित तीन तलाक की प्रथा को चुनौती देते हुए इसे असंवैधानिक बताया गया है। इस पीठ में अन्य सदस्यों में जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस आरएफ नरिमन, जस्टिस उदय उमेश ललित और जस्टिस अब्दुल नजीर शामिल हैं, जो सिख, ईसाई, पारसी, हिंदू और मुस्लिम समुदाय से हैं। संविधान पीठ स्वत: ही लिए लिए गए मुख्य मसले को मुस्लि महिलाओं की समानता की जुस्तजू नाम की याचिका के रूप में भी विचार के लिए लेगी।
इस मामले की सुनवाई इसलिए अधिक महत्वपूर्ण हो गई है, क्योंकि शीर्ष अदालत ने ग्रीष्मावकाश के दौरान इस पर विचार करने का निश्चय किया और उसने सुझाव दिया कि वह शनिवार और रविवार को भी बैठ सकती है, तो इस मामले में उठे संवेदनशील मुद्दों पर शीघ्रता से निर्णय किया जा सके। अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी इस मामले में संविधान पीठ की मदद करेंगे और यह भी देखेंगे कि मुस्लिम पर्सनल लॉ में न्यायालय किस सीमा तक हस्तक्षेप कर सकता है। शीर्ष अदालत ने स्वत: ही इस सवाल का संज्ञान लिया था कि क्या महिलाएं तलाक अथवा उनके पतियों द्वारा दूसरी शादी के कारण लैंगिक पक्षपात का शिकार होती हैं। शीर्ष अदालत इस मसले पर विचार करके मुस्लिम समाज में प्रचलित तीन तलाक, निकाह हलाला और बहुपत्नी प्रथा कि संवैधानिकता और वैधता पर अपना सुविचारित निर्णय भी देगी।
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से पूछा था कि क्या धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के तहत तलाक-ए-बिद्दत (एक बार में 3 तलाक कहना), हलाला और बहुविवाह की इजाजत दी जा सकती है ? समानता का अधिकार, गरिमा के साथ जीने का अधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में प्राथमिकता किसको दी जाए? क्या पर्सनल लॉ को संविधान के अनुच्छेद-13 के तहत कानून माना जाएगा या नहीं? क्या तलाक-ए-बिद्दत, निकाह हलाला और बहुविवाह उन अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत सही है, जिन पर भारत ने भी दस्तखत किए हैं? बता दें कि केंद्र सरकार के अलावा भी मामले से संबंधित कुछ पक्षों ने कोर्ट के सामने अपने सवाल रखे हैं, लेकिन ये सभी सवाल फिर से फ्रेम किए जाएंगे। अदालत वे सवाल खुद तय करेगी, जिस पर सुनवाई होगी।
उत्तराखंड के काशीपुर की शायरा बानो ने पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दायर कर ट्रिपल तलाक और निकाह हलाला के चलन की संवैधानिकता को चुनौती दी थी। साथ ही, मुस्लिमों में प्रचलित बहुविवाह प्रथा को भी चुनौती दी। शायरा ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव के मुद्दे, एकतरफा तलाक और संविधान में गारंटी के बावजूद पहली शादी के रहते हुए शौहर के दूसरी शादी करने के मुद्दे पर विचार करने की प्रार्थना की है। अर्जी में कहा गया है कि तीन तलाक संविधान के अनुच्छेद 14 व 15 के तहत मिले मौलिक अधिकारों का हनन है। इसके बाद, एक के बाद एक कई अन्य याचिकाएं दायर की गईं। एक मामले में सुप्रीम कोर्ट की डबल बेंच ने भी खुद संज्ञान लेते हुए चीफ जस्टिस से आग्रह किया था कि वह स्पेशल बेंच का गठन करें, ताकि भेदभाव की शिकार मुस्लिम महिलाओं के मामलों को देखा जा सके। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के अटॉर्नी जनरल और नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी को जवाब दाखिल करने को कहा था।
इस मामले में सुनवाई और भी महत्वपूर्ण हो गई है, क्योंकि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अप्रैल के अंतिम सप्ताह में ही अपने एक फैसले में तीन तलाक की प्रथा को एकतरफा और कानून की दृष्टि से बेहद खराब बताया था। हाईकोर्ट ने अकील जमील की याचिका खारिज करते हुए यह फैसला सुनाया था। अकील की पत्नी ने उसके खिलाफ आपराधिक शिकायत दायर करके आरोप लगाया था कि वह दहेज की खातिर उसे यातना देता था और जब उसकी मांगू पूरी नहीं हुई तो उसने उसे तलाक दे दिया।
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का कहना है कि ट्रिपल तलाक के खिलाफ दाखिल याचिकाएं खारिज की जानी चाहिए, क्योंकि इसमें जो सवाल उठाए गए हैं, वे न्यायिक समीक्षा के दायरे में नहीं आते। पर्सनल लॉ बोर्ड के मुताबिक, मुस्लिम पर्सनल लॉ को चुनौती नहीं दी जा सकती। पर्सनल लॉ को संविधान के अनुच्छेद-25, 26 और 29 के तहत संरक्षण मिला हुआ है। बोर्ड की तरफ से दाखिल हलफनामे में कहा गया है कि पर्सनल लॉ को सामाजिक बदलाव के नाम पर दोबारा नहीं लिखा जा सकता। बोर्ड का कहना है कि तलाक के मामले में पहले ही सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले आ चुके हैं।
केंद्र सरकार की राय
केंद्र सरकार ने अपने हलफनामे में कहा है कि ट्रिपल तलाक के प्रावधान को संविधान के तहत दिए गए समानता के अधिकार और भेदभाव के खिलाफ अधिकार की रोशनी में देखा जाना चाहिए। केंद्र ने कहा है कि लैंगिक समानता और महिलाओं के मान-सम्मान के साथ समझौता नहीं हो सकता। भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में महिलाओं को संविधान में जो अधिकार दिए गए हैं, उससे उन्हें वंचित नहीं किया जा सकता। मूल अधिकार के तहत संविधान के अनुच्छेद-14 में लैंगिक समानता की बात है।