भारतीय नेताओं का दिल आम मौतों के लिए दहलना बंद कर दिया है। हर दिन कहीं न कहीं मौतें हो रही हैं। कभी सड़कों पर तो कभी अस्पतालों में तो कभी भगदड़ में। मरने दो उन्हें हमें क्या, मरने वाला कौन सा अपना है। उनके लिए क्यों हमारे दिल में दर्द क्यों होगा जिन्हें हम जानते-पहचानते तक नहीं।
कमोबेश अधिकांश नेताओं की यही सोच बन गई है। उन्हें तो असमय होने वाली मौतों पर चंद चमचेनुमा लोगों और भटैत मीडिया कैमरों के सामने घड़ियाली आँसू बहाने में दिली तसल्ली मिलती है। मरने वाले परिवारों के घर रस्मअदायगी के लिए पहुँच जाते हैं और चंद लफ़्ज़ों में अफ़सोस का नाटक कर वापस लौट आते हैं। जाते भी उसके घर हैं जहाँ जाने से पलिटिकल माइलेज की संभावनाएँ रहती है। आम और ग़ैर सियासी लोगों के यहाँ मातमपुरसी के लिए जाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।
यही सब अब उत्तरप्रदेश के गोरखपुर में देखने मिलेगा क्योंकि यहाँ के बाबा राघवदास मेडिकल कालेज़ में 48 घंटे के भीतर 30 बच्चों की सिर्फ़ इसलिए मौत हो गई कि उन्हें आक्सीज़न की सप्लाई नहीं हो सकी। एक साथ इतने बच्चों की मौत हुई है तो हल्ला मचना स्वाभाविक था। हल्ला मचा भी पर मीडिया ने इसे डायलूट कर दिया। ऐसा लगा जैसे मीडिया की सरकार वहाँ हो। ऐसा पहले भी कई हादसों में मीडिया का रवैया देखा जा चुका है। अव्यवस्था चाहे ट्रेफ़िक की हो, सड़क की हो, अस्पतालों की हो या फिर धार्मिक स्थलों की, यहाँ होने वाली मौतों की चर्चा भर होती है, स्थायी सुधार के लिए निरंतर बहस नहीं होती। देश में हर दिन तरह-तरह के हादसों में सैकड़ों लोग मर जाते हैं। परंतु ये मौतें न तो मीडिया को दिखती हैं और ही जनप्रतिनिधियों को। मीडिया को अपनी टीआरपी और नेताओं को अपनी सरकार और अपनी पार्टी दिखती है। असमय होने वाली मौतें भविष्य में न हो इस पर कोई पहल नहीं करता। चर्चा करेंगे अख़लाक़ पर, पहलू पर और गौ रक्षकों पर, यही इनके लिए अहमियत रखता है।
अब बात करते हैं उन 30 नौनिहालों की जो नाहक वक़्त से पहले मर गए। कुछ दिन पहले इंदौर के एमवाय शासकीय अस्पताल में आक्सीज़न सप्लाई बाधित होने की वजह से 11 जाने चली गईं थी। इन घटनाओं से क्या किसी नेता या सरकारों को फ़र्क़ पड़ेगा। बिलकुल नहीं पड़ेगा, ऐसी बहुत सी घटनाएँ वर्षों से होती चली आ रही है और आगे भी होती रहेंगी। नेतागण अपना औपचारिक कर्तव्य करते रहेंगे। गोरखपुर में जिन बच्चों की मौत हुई है उनके यहाँ नेता लोग अपनी-अपनी सुविधा और कार्यकर्ताओं की डिमांड पर मातमपुरसी के लिए पहुँचेंगे। कुछ दिनों तक सियासी मैदान में बच्चों की मौत को गेंद बनाकर खेलेंगे और फिर सुप्त बैठ जाएँगे।
आख़िर कब तक इंसानी जानों के साथ खिलवाड़ होता रहेगा, कब तक इंसानों की बलि ली जाएगी, यह प्रश्न विचारणीय हैं।
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ज़हीर अंसारी
(लेखक स्वयं पत्रकार हैं)