भारत में आजतक लोगों का इस्तेमाल वोट बैंक साधने के लिए होता आया है। कभी किसानों के नाम पर, कभी गरीबी के नाम पर तो कभी मुसलमानों के नाम पर तो, कभी दलितों के नाम पर। हर एक पार्टी आजतक वोटबैंक की राजनीति करती आयी है, लेकिन जमीनी हक़ीक़त बिलकुल परे है। भारत का ना किसान आजतक विकसित हुआ है और ना ही समाज। लेकिन जब जब चुनाव नजदीक आये हैं तब तब इनके उत्थान की बातें नेताओं द्वारा कहीं गयी, परन्तु जमीनी हक़ीक़त बिलकुल परे रही है। आज भारत का किसान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है, दलित अपने सम्मान की लड़ाई लड़ रहा है और गरीब रोटी की।
हज़ारो लाखोंं करोड़ों की योजनाएं आती हैं लेकिन कागजी साबित होकर रह जाती हैं।
2014 के चुनावों से पहले मोदी जी ने कहा था कि भारत के किसान और दलित अगर समृद्ध हो जाएँ, शक्तिशाली बन जाएं तो देश की दिशा दशा सुधर जाएगी लेकिन 2014 के बाद की कहानी बिलकुल उलट है, ना दलित का कुछ हो पाया ना किसानों का। उल्टे दलित को आज हमारे समाज में घृणा की नज़र से देखा जाता है आज भी उनके साथ वैसा ही बर्ताव किया जाता है जैसे वो 19वीं सदी में जी रहे हों।
यूपी, राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, साउथ इंडिया देश के ऐसे हिस्से हैं जिनमें दलितों को ऐसे देखा जाता है जैसे वो इस धरती पर सबसे बड़ा श्राप हों, और उन्होंने इस धरती पर जन्म लेकर कोई गुनाह कर दिया हो!!
अभी हाल ही में सहारनपुर के दंगे इस बात का सबूत हैं लेकिन इस बार दलितों की एकता ने जो किया उससे सब भौचक्के रह गए। दलितों ने आगे आकर जबाव दिया लेकिन उनकी आवाज को दबाने की कोशिश की गयी तब उनकी आवाज बनकर उभरे भीम सेना के चंद्रशेखर जैसे लोग।
जंतर मंतर पर दलितों ने सहारनपुर दंगों के विरोध में एकता क्या दिखाई सभी नेताओं के होश उड़ गए। लगभग ढाई लाख की भीड़ सड़कों पर बैनर पोस्टर लिए अनुसूचित जाति और पिछड़ी जाति के लोगों ने मिलकर जो एकता का प्रदर्शन किया उससे दिल्ली यूपी बैठी सरकारें हिल गयीं। इतना ही नहीं दलितों की मसीहा कहलाने वाली मायावती भी इससे अछूती नहीं रहीं।
सहारनुपर की घटना के बाद दलितों के नए नायक बनकर उभरे चंद्रशेखर ने केंद्र की सत्ताधारी पार्टी से लेकर दलित राजनीति की सबसे बडे हितैषी मानी जाने वाली बसपा प्रमुख मायावती तक की चिंताए बढा दी। घटते राजनीतिक प्रभाव से मायावती पहले से ही परेशान थी। अब उनके पुख्ता दलित वोट पर भी खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। यही वजह है कि मायावती अपने पुराने अंदाज में लौटने को बेताब हैं। लंबे अरसे बाद माया अपने पुराने अंदाज में नजर आएंगी। वहीं केंद्र सरकार भी दलित मतों को साधने के लिए कई नए कदम उठाने की तैयारी में है।
अब दोबारा से ये सभी नेता दलित वोट साधने में प्रयास करने में लग जायेंगे क्योंकि 2019 ज्यादा दूर नहीं है और ऊपर से अभी मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ के चुनाव भी नज़दीक़ हैं।
ऊपर से भीम सेना प्रमुख चंद्रशेखर को दलित बिरादरी में मिल रही नई पहचान से परेशान मायावती लंबे अरसों बाद सड़क की राजनीति करती नजर आएंगी। विलासिता और हवाई राजनीति के आरोपों के बीच माया ने दोबारा से पुराने फार्म में लौटना तय किया है। सहारनपुर से दलित राजनीति को नया उभार देने की कवायद में बसपा प्रमुख मंगलवार 23 मई को शब्बीरपुर जाएंगी। हवाई यात्रा के बजाय माया ने दिल्ली से सड़क मार्ग के जरिए सहारनपुर के शब्बीरपुर गांव जाने का निर्णय लिया है। बसपा ने बाकायदा मीडिया को बयान जारी कर इस बात की जानकारी दी है कि मंगलवार सुबह मायावती दिल्ली स्थित सरकारी आवास से सड़क मार्ग के जरिए सहारनुर जाने का निर्णय लिया है। लंबे अरसे बाद सड़क पर माया के उतरने को दलित वोट बैंक बचाने की कवायद के रूप में देखा जा रहा है।
केंद्र की सत्ताधारी दल भाजपा को भी दलितों की चिंता सता रही है। पीएम मोदी को दोबारा से गद्दी पर आसीन कराने के लिए लोकसभा चुनाव 2019 के लिए भाजपा ने जो ताना—बाना बुना है, उसमें दलित मतों पर खास उसकी रणनीति टिकी हुई है। मायावती की कम होती लोकप्रियता को देखते हुए भाजपा रणनीतिकार यह मान कर चल रहे थे कि 2019 में दलितों का वोट वो अपने पाले में खींच सकते हैं। पर दलितों के नए नायक के रूप में उभरे चंद्रशेखर ने 2019 के लिए पीएम मोदी के सामने भी मुश्किलें खडी कर दी हैं।
दलितों को साधने के लिए केंद्र की नए सिरे से कवायद शुरू हो गयी है सूत्र बताते हैं कि अंबेडकर जयंती को धूम धाम से मनाने और भीम एप्प के बाद भी केंद्र सरकार दलितों को साधने के लिए नए सिरे से कार्यक्रम तैयार कर रही है। इस कवायद में केंद्र के सामाजिक एवं अधिकारिता मंत्रालय ने नए सिरे से दलित महानुभावों को दिए जाने वाले पुरस्कार दोबारा से शुरू करने का निर्णय लिया है। 8 वर्ष के बाद इस वर्ष से इन पुरस्कारों की दोबारा से शुरूआत हो रही है। 26 मई को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी दलित समुदाय के प्रख्यात 4 व्यक्तियों को पुरस्कार से सम्मानित करेंगे। बताया जा रहा है कि विभिन्न क्षेत्रों में बेहत्तर कार्य करने वाले 12 दलित हस्तियों का नाम चयन कर पीएमओ को भेजा है। इनमें से 4 हस्तियों को 26 मई को पुरस्कार प्रदान किया जाएगा। सरकार की इस कवायद को दलित मतों को साधने के प्रयास में देखा जा रहा है।
लेकिन क्या केंद्र सरकार के इन लुभावने वायदों से दलित वोट सध पायेगा? एक तरफ तो सरकार को समर्थन करने वाले वो लोग हैं जो दलितों को एक आँख देखना पसंद नहीं करते और दूसरी ओर वो दलित हैं जो उनके ही लोगों के उत्पीड़न का शिकार होते हैं। अब दलितों के सामने सबसे बड़ा चुनौती है कि वो जाएँ किसके साथ….।
खैर अगर दलितों को अपने अस्तित्व की लड़ाई को आगे बढ़ाना है और अपना सम्मान वापस पाने है तो इस वक़्त दलित एकता ही उनको जीत दिला सकती है। अगर वो संगठित होकर आगे बढ़ेंगे तो इस जंग को जीतने में सफल होंगे।
मनीष कुमार
ख़बर 24 एक्सप्रेस
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