बता रहें है महायोगी स्वामी सत्येन्द्र सत्यसाहिब जी
मुख्यतया ध्यान तीन तरहां से किये जाते है-
1-दूसरे में ध्यान:-इसके तीन प्रकार है-
१-जीवित व्यक्ति में ध्यान:-
जिसमें आप प्रेम करते है,आप जैसा ही मनुष्य यानी स्त्री हो या पुरुष।उसमे ध्यान करना।
इसमे प्रारम्भ में विपरीतलिंगी होने से ओर उसके अनजान रहने पर ध्यान करने से उसकी न्यूट्रल ऊर्जा से कैसे ओर क्या लाभ प्राप्त करोगे ओर प्रथम तो परस्पर की सांसारिक वासना शक्ति की प्राप्ति से ही ध्यान भंग होता रहेगा ओर तो बाद में आगे बढोगे।
२-अपने गुरु या अपने से श्रेष्ठ व्यक्तित्त्व में ध्यान करना।
इसमे उनकी आज्ञा अनिवार्य है और क्या वे आपका ध्यान करते है या आप अपनी ओर से ही ध्यान कर उनके उर्जामण्डल में प्रवेश कर अपनी ऊर्जा व्रद्धि कर रहे हो?यदि आज्ञा नही तो उनकी ऊर्जा मंडल में प्रवेश सम्भव नहीं यो तुम्हारा ध्यान भंग हो जाया करेगा।आज्ञा है भी तो उनकी आध्यात्मिक ऊर्जा के तीर्व प्रवाह को अपने भौतिक जीवन की प्राप्ति मे कितनी ऊर्जा झेल पाओगे।ओर आध्यत्मिक तुम उतने हो नहीं,यहां अपने जीवन के भोतिक व आध्यात्मिक दिनचर्या का बारीकी से अध्ययन बहुत जरूरी है अन्यथा ये शक्तिपात झेलने से आपका अनियमित जीवन गड़बड़ा जाएगा।
३-ईश्वर या देवी देवता के स्वरूप में ध्यान करना।
यहां भी ऊपर वाली बात लागू होती है।किसकी आज्ञा है यानी परमिशन ली है या देवता ने स्वप्न या प्रत्यक्ष आकर कहा कि मुझमें ध्यान करना या स्वयं ही जुड़ रहे हो?उनकी बिन आज्ञा के नही प्रवेश कर सकते हो।तब कैसे ध्यान लगेगा,यानी लाभ नही होने पर बार बार नए मन्त्र ओर देवता बदलते रहोगे।जैसा कि आप करते ही हो।
इन तीनों ध्यान के प्रकार में आप दूसरे को अपने से श्रेष्ठ ओर उसकी ऊर्जा से अपनी ऊर्जा की व्रद्धि में सहयोग लेते है।ये भक्ति ध्यान है।यहां अपनी ओर से आपको कम या ज्यादा समर्पण करना पड़ता है,यही यहां के ध्यान का समर्पण होना ही मूल ज्ञान सूत्र है जो परम आवश्यक है।ऐसा नहीं करते तो आप इस ध्यान विधि मे ओर इस ध्यान विधि से सफ़लता नहीं पा सकते है।
2-केवल स्वयं में ध्यान करना यहाँ भी दो प्रकार के ध्यान है-
१-अपने की चक्र विशेष में ध्यान करना फिर उसकी प्राप्ति करते हुए उससे अगले चक्र में ध्यान करना।
इस ध्यान विधि में मन को बहुत एकाग्र करना पड़ता है,उस चक्र का बड़ा बारीक अध्ययन बहुत आवश्यक है अन्यथा बिन जानकारी या सामान्य जानकारी के उस चक्र के तीन लेयरों यानी उस चक्र के मुख्य प्रवेश द्धार ओर फिर अंदर ओर फिर उससे बाहर आना सम्भव नहीं होगा,चक्र का एक चक्रव्यूह होता है,अभिमन्यु वाला हाल हो जाएगा,मन का एक भाग वहां फंस जाने पर आप बिन पूरे मन के विक्षिप्त भी हो सकते हो,ऐसे ही अन्य चक्रों के क्षेत्रो में प्रवेश है,यो किसी अन्य चक्र की ओर मन नहीं जाये अन्यथा मन कभी कोई चक्र पकड़ेगा तो कभी कोई,यो ध्यान भंग होता रहता है।
२-केवल अपने सम्पूर्ण शरीर का यानी अपने ही स्वरूप का एक साथ ध्यान करना।
(यहाँ कुम्भक ज्ञान का सूत्र है)
इसमें आपको अपने शरीर के बाहरी स्वरूप यानी त्वचा और उससे या प्राणमय शरीर से यानी अंदर से निकलती ऊर्जा का ध्यान करना पड़ता है।एक साथ सारे शरीर का ध्यान भी बड़ा कठिन है।अन्यथा अलग अलग अंगों पर मन और ध्यान भागता रहता है।यो ध्यान नही लगेगा।
3-परस्पर एक ही सहमति से एक साथ उपस्थिति में एक दूजे का ध्यान करना।(रेहि क्रियायोग का एक तरीका)
इस ध्यान में सहमति ही समर्पण है और आप परस्पर पर कोई नया पात्र नही बदले। वो एक ही रहेगा व रहना चाहिए अन्यथा आपकी एक दूसरे में आयी प्राप्त ऊर्जा ओर उसे दि गयी अपनी प्राप्त ऊर्जा का आपके पंच शरीर मे एक एक करके अंदर की ओर चलता रेहि मन्थन रुक जाएगा। आप कभी भी अंतर जगत में प्रवेश नही कर पाएंगे।यो एक ही पार्टनर रहना चाहिए।यही यहां तय करना है कि कोई बदलाव नहीं करना है और फिर परिणाम प्राप्ति तक डट कर नियमित ध्यान करना ज्ञान ओर प्रेमिक योग सूत्र है।
ओर अब आता है-इन ध्यान के पीछे के ओर भी गहन रूप से ध्यान करने के कारणों का अध्ययन करना पड़ता है।
मूल में तो सभी कहेंगे कि-मन एकाग्र होने चाहिए।
तो इन तीन प्रकार के ध्यान में से किसी एक पद्धति को अपनाते हुए आपका मन एकाग्र कैसे हो?
यही मन यानी इच्छा को बिन जाने- ध्यान यानी जो उद्धेश्य है उसे ध्याना यानी प्राप्त करना ही ध्यान है और उस ध्यान से जो चाहते हो वो प्राप्त करना और जो प्राप्त किया है उसका उपयोग करते हुए आनन्द प्राप्त करना।
अब इससे आगे आगामी लेख सत्संग में बताऊंगा।तब तक अपनी अपनायी किसी एक विधि का अपनी नियमित डायरी बनाकर पूरे चिंतन के साथ लिखे ओर अपने ही लिखे का रोज ध्यान से पहले ओर बाद में बैठकर विश्लेषण करें।
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
स्वामी सत्येन्द्र सत्यसाहिब जी
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