हमारे सनातन धर्म में सबसे प्राचीन व्रत कथा है-“सत्यनारायण व्रत कथा” जो प्रत्येक पूर्णिमासी को लगभग हिंदू किसी न किसी धर्म पूजा सन्दर्भ में कराता रहता है और गुरुवार इसका साप्ताहिक दिवस है,पर इस प्रसंग को ले कर सदा प्रश्न मेरे मन में बना रहा की-इस कथा में सत्यनारायण बिन अपनी अर्द्धाग्नि यानि स्त्री शक्ति के कैसे पूज्य बने है?
जबकि गृहस्थी की पूजा में स्त्री और पुरुष दोनों होते है और विशेषकर स्त्रियां इस व्रत को अत्याधिक करती है, ये पुरुष प्रधान अकेले देव की पूजा हुयी।और मनोकामना ग्रहस्थ के सम्पूर्णता को होती है,तब ये केसा विरोधाभास? और दूसरी बात इस कथा में अकेले और ब्रह्मचारी भगवान सत्यनारायण अपने ब्रह्मचारी भक्त नारद मुनि को जो ज्ञान उपदेश कथा कहते है,वो क्या थी और क्या है? क्योकि उस कथा का प्रचार ब्रह्मचारी नारद मुनि ने संसार में ग्रहस्थियों में किया,वो तो केवल लीलावती कलावती की कथा प्रसंग मात्र है की-हमे ईश्वर और उसकी कृपा प्रसाद का अनादर या उसे भूलना नहीं चाहिए और वचन के पक्के होने चाहिए,अन्यथा निम्न कथाओं का दुखद परिणाम भक्त को भोगना पड़ता है और करने पर सुखद परिणाम!! पर वो कथा क्या है,ये उल्लेखित नहीं है।और एक बड़ा भ्रम बड़ा फैला हुआ है की-ये चित्र सत्यनारायण का है या विष्णु जी का है? बहुत से दोनों को एक बताते है और कुछ विद्धान इसे विष्णु जी के लक्ष्मी जी से विवाह के पूर्व का चित्रण बताते है, यो ऐसे अनेक इस व्यक्तित्त्व सम्बंधित अनसुलझी और भ्रमात्मक कथाएँ फैली हुयी है।इस सन्दर्भ में ही मेरा ध्यान गया और इस ज्ञान का विषय ये कथा बनी और इस विषय पर भक्तों से भी उनके इस सम्बन्ध में ध्यान करने के उन्हें हुए दर्शनों को लेकर चर्चा हुयी।तब इसी विषय में एक दिन मुझे ध्यान दर्शन हुआ और सत्यनारायण की कथा में जो स्त्री शक्ति छिपा दी गयी थी-सत्यई पूर्णिमाँ का अवतरण हुआ !!
उन दिनों मैने ध्यान को बैठकर कभी थकने पर चिंतन करता हुआ लेटकर और चिंतन के बाद फिर बैठकर ध्यान करने का क्रम को बहुत अधिक बढ़ाया हुआ था-तब मुझे उस ध्यान अवस्था में अनुभव हुआ की-दो ऊर्जायुक्त छवि है यानि जैसे ऊर्जा से बने दो स्त्री और पुरुष है। और ये अनुभूति हुयी की वे एक दूसरे के निकट बैठकर ध्यान कर रहे है,फिर दोनों ने एक दूसरे को आँख खोलकर देखा ओर उनके एक दूसरे में ही आँखों से आँखों में देखते देखते हुए ऊर्जा का चक्र प्रारम्भ होने लगा,जेसे उनकी एक दूसरे की आँखों से आँखों में ऊर्जा होती हुयी,उनके शरीर में गुजरती हुयी उनके बेठे हुए यानि पेरो से गुजर कर फिर से उनके शरीर में चढ़ती हुयी उनके नेत्रों से एक ऊर्जा चक्र बना रही है।कुछ देर मुझे ऐसा दीखते हुए लगा की-वे आपस में उस ऊर्जा चक्र के खिंचाव से आकर्षित होते होते फिर वे एक दूसरे के पास आते आते एक दूसरे को बेठी अवस्था में ही परस्पर अलिंगनयुक्त अवस्था को प्राप्त होते है,तब इस अवस्था में मेने यहाँ तीन स्तिथि देखी-
1-दोनों की परस्पर ऊर्जा का क्षेत्र मिश्रित होकर एक दूसरे को अंडाकार वृत में घेर रहा है।और साथ ही दोनों की उसी ऊर्जा का मिश्रित ऊर्जा रूपी एक चक्र एक दूसरे में अनुलोम विलोम के रूप में धीरे धीरे गति करता हुआ तेज होता जा रहा है।
और इसी अवस्था में यहाँ ऐसा लगा की पुरुष की ऊर्जा का चक्र स्त्री में मुख भाग से मूलाधार भाग तक अंदर समाहित होता यानि अनुलोम चक्रित हो रहा है। और उसके विपरीत स्त्री का उर्जाचक्र उसके अपने मूलाधार की और से पुरुष के मूलाधार के भाग से उसके अंदर से होता हुआ,पुरुष के शरीर से चढ़ता हुआ,पुरुष के मुख से निकल कर फिर से स्त्री के मुख से अंदर जाता हुआ,ऐसे ही स्त्री के शरीर से उसके मूलाधार चक्र तक जाकर फिर से पुरुष के मूलाधार चक्र में प्रवेश करता हुआ,फिर से वेसे ही पुरुष शरीर में चढ़कर पुरुष के मुख से स्त्री के मुख से विलोम गति से चक्रित हो रहा है।
2-दूसरी अवस्था में पलटकर ये ही ऊर्जा का चक्र अब पुरुष के मूलाधार चक्र से स्त्री के मूलाधार चक्र में प्रवेश करता हुआ,स्त्री के शरीर में ऊपर को चढ़ता हुआ,स्त्री के मुख से पुरुष के मुख में प्रवेश करता हुआ,पुरुष के शरीर में भरता हुआ,पुरुष के मूलाधार चक्र में आकर फिर स्त्री के मूलाधार चक्र में प्रवेश करके,स्त्री के शरीर में ऊपर को चढ़ता हुआ,स्त्री के मुख से पुरुष के मुख में प्रवेश करता, ये दोनों में अनुलोम और विलोम गति तेज होते हुए एक दूसरे में ऐसे समाहित हो रही थी की-ये स्त्री और पुरुष दोनों में मिली हुयी एक ही ऊर्जा प्रतीत होने लगी। और अब
3-यानि तीसरी स्थिति बनी-की
उन दोनों की ये ऊर्जा उनके मस्तिष्क और मुख भाग की अपेक्षाकृत ह्रदय भाग पर अधिक स्फुरित होकर दिखाई देने लगी(यहां इस अनुभव को लेखनी व्यक्त करने में असमर्थ होती है) तब ऐसा अनुभूत हुआ की-ये अवस्था पाने पर उनमे यानि स्त्री और पुरुष में उनके जितने भी पूर्वजन्मों की स्म्रतियां है,वे विलुप्त हो जाती है। साथ ही इसी आलिंगन युक्त एक्त्त्व एकल यानि एक होती अवस्था में मनुष्य यदि अधिक समय तक ऊर्जा क्षेत्र में बना रहे, तो उसकी जितनी भी पूर्वजन्म की स्म्रतियां है, उन्हें वो इसी क्षण के उपयोग से समाप्त कर सकता है। और साथ ही समस्त अनंत कालीन हुए “विषय” की अनुभूतियों को अपने चित्त से मिटाकर केवल इसी क्षण से आगामी काल यानि आगामी जन्म के आगामी नवीनता के कर्मो आदि और उसके परिणामों का उदय कर सकता है।इसे ऐसे समझे की- जैसे की लिखने में अत्यधिक परिश्रम और समय और कागज भरते है और मिटने में जरा सा ही समय लगता है।ठीक ऐसे ही इस अवस्था की प्राप्ति होने पर दोनों अपनी इस आत्म ऊर्जा शक्ति से अपने सभी पूर्वजन्म के अनावश्यक कर्म संस्कारों को मिटा सकते है।इस प्रेम शक्ति से सब कुछ सम्भव है।
ठीक तभी ऐसा भी आत्मज्ञान हुआ की-यही ही वो वेद में लिखी अवस्था है-की जब कोई सत था ना असत् और शेष थी। यही एकाकार एक साकार रहित व्यक्तित्व विहीन परन्तु आत्म ऊर्जायुक्त निराकार अवस्था !! जिसे वेद में शून्य कहा है।और इसी अवस्था में जबतक दोनों भिन्न सत्ताओं का अपने अपने अहं रहित व्यक्तित्व की केवल आनन्द अवस्था में शेष बनी रहनी की अवस्था बनी रहेगी,यानि की मैं नही हूँ,बस हम है,ये बिन कहे केवल अनुभूत हो, ठीक तभी तक ये शून्य अवस्था कहलाती है! क्योकि इसी के उपरांत जो स्त्री ओर पुरुष की एक दूसरे में पुनः चेतना और ऊर्जा की तरंगित जागर्ति की क्रिया बननी प्रारम्भ होती है,उसके उदय होने पर ही पुनः सृष्टि होने का प्रारम्भ होता है और तब हलचल होती है,इसे ही शून्य में हलचल होने का वर्णन वेदों में उल्लेखित किया है।
इसी अवस्था से पहले बताई गयी द्धितीय अवस्था में स्त्री और पुरुष की परस्पर एक दूसरे में इस प्रेम आलिंगन अवस्था में जो अनुलोम और विलोम ऊर्जा गति हो रही है,उस में ये रहस्य प्रकट है की-इसी से दोनों भिन्न है और एक दूसरे की ऊर्जा भी भिन्न है,यहाँ पुरुष में सूर्य आभा वाली दो ऊर्जा दिखी। जो मिलकर एक आधी ऊर्जा बनी थी। जिसका रंग प्रातः उषाकाल के सूर्य की आभा का सा प्रतीत होता है और स्त्री वाली ऊर्जा भी दो भिन्न रंग मिलकर, फिर एक संयुक्त पर आधी ऊर्जा शक्ति बन गति करती दिखी। ये पूर्णिमा के चंद्रमा की आभा वाली ऊर्जा प्रतीत होती है और यो दोनों में ऐसा लगा की-ढाई पुरुष की ऊर्जा+ढाई स्त्री की ऊर्जा मिलकर यानि पँच रंगी आभा वाली ऊर्जा और उसका अद्धभुत प्रकाश का आलोक मिलकर दोनों को घेरे है,इस ऊर्जा के स्त्री और पुरुष के मूलाधार की और का रंग मिलकर कुछ लालिमायुक्त दिख रहा था और शरीर के मध्य भाग में कुछ हरा और गुलाबी सा मिश्रित सा भिन्न और और सिरों से लेकर ऊपर तक चमकीली आभा वाला श्वेत रंग का प्रभाती प्रकाश दिख रहा था।तब इसी अवस्था में यदि दोनों चाहे तो अनादिकाल के द्धंद की स्मर्तियों को नष्ट कर सकते है अथवा स्वयं हो जाती है,ऐसा ज्ञान लगा और इसके उपरांत की अवस्था में दोनों के ह्रदय से ये संयुक्त ऊर्जा दोनों के मूलाधार तक आई दिखी और तब लगा की-पुरुष स्त्री के सीधी और था, उससे पुरुष की ऊर्जा स्त्री में प्रवेश की और ठीक यही अवस्था में मुझे पुनः आत्मज्ञान उद्धभासित हुआ और धीरे धीरे जो शब्द बोले गए,वे कुछ सन्धि विच्छेद लिए उच्चारित थे- की-सत्य..नार..आयन..!! और लगा की-जो पुरुष है वो सत्य है और उससे सामने जो स्त्री है यानि नार है..उसमें जो कुछ ऊर्जा संयुक्त होती प्रवेश कर रही है.वो आयन है..अर्थात सत्य पुरुष की ऊर्जा का नार में प्रवेश या अवतरण होना ही “सत्यनारायण” का स्त्री और पुरुष की संयुक्त अवस्था का नाम है !!
ठीक इसी दर्शन के उपरांत या मध्य जो देखा, की-दोनों के एक अवस्था में अर्द्धनारीश्वर दर्शन देखे थे,पर दोनों के भिन्न भिन्न अर्द्धनारीश्वर स्वरूप दर्शन भी हुए-पुरुष में सीधे भाग में पुरुष और उलटे भाग में स्त्री का संयुक्त चित्रण था और स्त्री में उलटे भाग में स्त्री और सीधे भाग में पुरुष चित्रण था।लेकिन इन दोनों की कोई सजोसज्जा जैसे-वस्त्र,आभूषण आदि कुछ नहीं था,केवल दिगम्बरी उर्जात्मक स्वरूप स्पष्ट था।तब इसके उपरांत देखा की-स्त्री के उर्जात्मक शरीर में भिन्नता बढ़ती गयी।यहाँ ऐसा अनुभूत हुआ जैसे की-स्त्री में तीन स्थिति है या तीन तत्व है और उनका भिन्न प्रकाश भी है।
नीचे के थोड़े से भाग में कत्थई रंगीत ऊर्जा है और उससे ऊपर चमकीले तोतयी सा हरित रंग की ऊर्जा है, जो नाभि से ह्रदय तक है और फिर कण्ठ से आज्ञा यानि मुख तक चन्द्रमा के दूधिया प्रकाश के रंग की ऊर्जा है। और पुनः नीचे दृष्टि जाने पर जो हरित ऊर्जा है,वहाँ एक छोटी से तिरछी सी ज्योतिर्मय ज्योति है और उसके चारों और भी पहले कत्थई फिर हरित फिर गुलाबी फिर श्वेत ऊर्जा अंडाकार स्फुरित सी होती दिखी।
अब यहाँ पुरुष स्त्री को देखता हुआ ध्यानस्थ दिखा और स्त्री स्वयं में ही अपने को ध्याति हुयी ध्यानस्थ है और पुरुष की ऊर्जा जो शून्य जैसी आभा वाली है, वो स्त्री के ओरामण्डल में प्रवेश करती लग रही है।और ऐसा भी लगा की-वो स्त्री में जो ज्योतिर्मय अंडाकार ऊर्जा समूह है,उस तक जाकर प्रभाव डाल रही है,और तब वहाँ कुछ प्रस्फुरण हो रहा है! तब इस द्रश्य पर मेरी जिज्ञासा गयी और गहनता से देखता पाया की-वहाँ पहले स्तर पर स्त्री शक्ति की ऊर्जा अधिक है,उसके उपरांत कुछ समय सा लगा, तब अनुभूत हुआ की-अब पुरुष ऊर्जा अधिक है।तब ऐसा ज्ञान भासित हुआ की जैसे-ये पहली अवस्था स्त्री के शिशु रूप कन्या की है और इसके उपरांत की ऊर्जा पुरुष रूपी लड़के की है।यो लगा की जन्म समय में भ्रूण पहले स्त्री यानि कन्या स्वरूप होता है। उसके उपरांत पुरुष स्वरूप होता है और यदि यहाँ इन्हीं दो स्तरों पर जन्म होता है,तो पहले कन्या इसके उपरांत आगामी स्तर लड़का के का होता है।कुछ ऐसा ज्ञान हुआ।यहीं बाद में ध्यान उपरांत चिंतन पर लगा की-आयुर्वेद में कन्या भ्रूण को पुरुष भ्रूण में बदलने की जो ओषधि प्रयोग है,वो सम्भव है,इसी योग दर्शन पर आधारित होगा।इस विषय पर फिर कभी कहूँगा।ओर स्त्री में स्वरों के सूर्य और चंद्र के सम स्वर के चलते गर्भाधान स्थिति में बीज स्वरूप भ्रूण जन्म लेता है। जिसे किन्नर कहते है,इस विषय पर भी फिर कभी कहूँगा।ये सब ज्ञान दर्शन यहाँ नहीं अनुभव हुआ।बाद में हुए।
तब अंत में देखा की-स्त्री से एक एक करके दो पूर्ण उर्जापिंड मूलाधार से प्रसव हुए।एक स्त्री स्वरूप और दूसरा पुरुष स्वरूप।यही निकट बैठे पुरुष ने अपनी ध्यान मुद्रा भंग की और दोनों बच्चों को अपनी गोद में उठाया और उनके निकट मुख लेकर कुछ उच्चारित किया!!
तब बाद में मुझे चिंतन से ज्ञान हुआ की-पुरुष ने अपनी और स्त्री की स्वयं की प्रतिमूर्ति का नामकरण उच्चारण किया था।वो क्या था,ये ज्ञात नहीं!! सम्भव है,ये यो ही ज्ञात नहीं हुआ क्योकि-अनंत स्त्री और अनंत पुरुष प्रतिमूर्तियों के अनन्त नाम है,पर मुझे ऐसा भी लगा की-जैसे ये ही शब्द का पुनर्जागरण या अवतरण है। जिससे वर्णाक्षर और भाषा बनती गयी।यो यहाँ बहुत कुछ दर्शन स्म्रति से लेखन और कहने में अभिव्यक्त नहीं हो पाये है।जो हुए उनका निष्कर्ष यही है कि- सत्य पुरुष ने अपनी नार में अपना बीजारोपण करके जो नवीन सृष्टि की वही दोनों का स्वरूप ही सत्य नारायण नाम है।जिसमें स्त्री सत्य की शक्ति ही सत्यई है और दोनों के ये प्रेम योग क्रिया से ही समस्त “क्रिया योग” का जन्म है की-जो स्त्री और पुरुष अपनी अपनी अर्द्ध ऊर्जा को ध्यान के उच्च स्तर पर ले जाकर,आपस में इसी प्रकार से प्रेम रमण से एक करता हुआ एक ऐसी अवस्था को प्राप्त होता है,जहाँ दोनों उर्जात्मक स्तर पर एक होते है,तब तन और मन का सम्बन्ध समाप्त होकर दो अर्द्ध “मैं” मिटकर केवल “हम” शेष रह जाते है,तब जो महाऊर्जा की एक नवीन और सम्पूर्ण स्थिति बनती है,वही “पूर्णिमा” कहलाती है।यो इसी अवस्था को पुरुष प्रधान युग में स्त्री तत्व को हटा कर केवल पुरुष “सत्य की पूर्णिमा” नाम से प्रचारित किया।जो की सच में एक स्त्री और पुरुष का आध्यात्मिक योग विज्ञानं दर्शन है और इसका अपने ग्रहस्थ जीवन में जो स्त्री और पुरुष पालन नहीं करता है,वो अपूर्ण संतति और अपूर्ण प्रेम की प्राप्ति करता दुखद जीवन को जीता है,यो नारद मुनि का सत्य ब्रह्म और सत्य पुरुष और सत्यई स्त्री के संयोग से उत्पन्न पुरुष ब्रह्मचर्य प्रतीक सन्तान और भविष्य का मनुष्य को दिया जाने वाला पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान अर्थ है !!
इसी स्त्री के उर्जात्मक स्वरूप में अनुभव हुआ की-स्त्री शक्ति विध्वंसक नहीं,बल्कि सर्जनहार और पालक है। और स्वयं की आकर्षण शक्ति से सत्य ब्रह्म पुरुष को आकर्षित करते हुए अपने में आत्मसात करती है और तब उससे उसके अर्द्धबीज को अपने में ग्रहण करती हुयी अपने में उसे अपने अर्द्धबीज से संयुक्त करके सम्पूर्ण बनाती है,यो उसके अंदर पुरुष की अपेक्षा अधिक कलाएं स्वरूप है-यो वो पुरुष के अर्द्ध अष्ट+अपने अर्द्ध अष्ट=सौलह कलाओं को अपने में मिलाकर षोढषी शक्ति कहलाती है।और यही पूर्णिमा का सम्पूर्ण स्वरूप “पूर्णिमाँ” कहलाती है,यो उसके उपरोक्त चित्रण प्रदर्शित है।
और यहाँ मेरा उर्जात्मक दर्शन अनुभूति में स्त्री और पुरुष का गौर या सांवल रंग का नहीं दिखाना भी यही अर्थ ज्ञान है की-मूल अवस्था में मनुष्य आत्मा और उसकी शक्ति ऊर्जा स्वरूप ही होता है।
यहीं से मुझे सनातन क्रिया योग की प्राप्ति हुयी।जिसका विस्तार से वर्णन मेरी आगामी नवीन पुस्तक- “प्रेम रमण से निर्वाण प्राप्ति” में पढ़ने को मिलेगा।।इसी का अनुभत और संछिप्त क्रिया योग सत्यास्मि भक्तों को दीक्षा के रूप में मिला है की-आप ब्रह्मचर्य अवस्था में अपने स्वयं में अभ्यास करो,यो ये उत्तर मार्ग साधना कहलाती है। और ग्रहस्थ जीवन में अपने अर्द्ध विपरीत शक्ति में ऊपर बताई विधि से प्रेम रमण करते हुए ध्यान साधना करोगे, तो यही सच्ची वाममार्ग साधना कहलाती है।यो जब भी कोई ध्यान कर्ता वो चाहे ब्रह्मचारी हो तो भी वो सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त प्रत्यक्ष और सूक्ष्म स्त्री शक्ति की ऊर्जा से संयुक्त होकर ये युगल दर्शन के उपरांत अंत में स्वयं को ही आदि अनादि और अंत स्वरूप प्रथम देखता है। और जो गृहस्थी है,वो भी देर सवेर प्रत्यक्ष की अपनी स्त्री या पुरुष शक्ति के साथ रमित होता हुआ,इस आध्यात्मिक योग के संयुक्तिकरण के द्धारा स्वयं और विपरीत शक्ति के युगल स्वरूप यानि अर्द्धनारीश्वर या अर्द्धनारेश्वर रूप का दर्शन करने के उपरांत स्वयं को ही आदि-अनादि और अंत में देखता है।यो बिन प्रकर्ति भेदन यानि विपरीत शक्ति की साहयता से सम्पूर्ण हुए बिना वो आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति नहीं कर सकता है।यही है शास्त्रगत शक्ति पूजन या प्रकर्ति भेदन या कुण्डलिनी जागरण आदि आदि नामांतरण व्याख्या।यो स्वयं द्रष्टा के अपने सभी दर्शनों के अंत में निर्विचार या निर्विकल्प समाधि अवस्था के उपरांत भी शाश्वत रहना और उसका नवीन स्वरूप में नवीनता लिए पुनः अनन्तकाल को पुनर्जागरण होना।जिसे वेदों में शून्य से सृष्टि आदि क्रम बताया है।जो ये अनुभूत करता है,वही प्रथम और मध्य और अंतिम मनुष्य कहलाता है। यो जीवंत पति और पत्नी का परस्पर भोग और योग क्रिया से इसी प्रचलित गृहस्थी में आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति की जाती है।बस आवश्यक है की-दोनों उपरोक्त विधि से एक दुसरे में ध्यान करें।और ऐसे ही एक दूसरे की अर्द्ध ऊर्जा और अर्द्ध बीज को इस ध्यान विधि द्धारा करते हुए केवल संतति उत्पत्ति को ही भोग करें।अन्यथा अपनी ऊर्जा के क्षरण को इसी ध्यान विधि से परस्पर एकाकार करते हुए,अपने अपने आत्म स्वरूप में स्थित हो,यही जीवन्त अवस्था में मोक्ष कहलाता है।
इसे यहां दिए मेरे ज्ञान के और इन चित्रों के बारम्बार चिंतन से ध्यान द्धारा अनुभूत किया जा सकता है!!
यो ही अनेको प्रयोगों के द्धारा गुरुओं ने अपने ब्रह्मचारी स्त्री और पुरुष शिष्यों को उन्हें अपने यानि गुरु में ध्यान करने को निषेध किया।और आज्ञा दी की-वे अपने में ही मन शक्ति के इस ध्यान योग क्रिया से अनुलोम विलोम ध्यान करें और विवाह उपरांत अपनी पत्नी या पति में करें।और इसी लिए बाद के वर्षो में गुरुओं ने एक पुरुष मूर्ति का गठन किया और स्त्री मूर्ति का माँ स्वरूप में गठन किया की-इनमें शिष्य अपना ध्यान करें,परन्तु इन मूर्तियों से केवल चित्त एकाग्र हुआ,पर उस चित्त को अपने अंदर करने को सदा गुरुओं ने ही शक्तिपात किया। यो गुरु ही मुख्य बनते गए।पर इससे सभी को इतने उन्नत गुरु कहाँ मिले? यो कच्चे गुरुओं में भोगी साधक का भोग ध्यान से प्रवेश करने से गुरु शिष्य परम्परा पथभ्रष्ट होती गयी।और गुरु की मुक्ति में भी अवरोध आता है।साथ ही गुरु कितनो को शक्तिपात करेगा और कबतक? यो इस विषय पर फिर कभी आगे विस्तार से कहूँगा।यो अपने में ही ध्यान करो और
इस अनुभत दर्शन का जो भी भक्त निरन्तर ध्यान और चिंतन करता है,वही अपने जीवन में दिव्य प्रेम और दिव्य ज्ञान की प्राप्ति करता हुआ अंत में आत्मसाक्षात्कार स्वरूपी स्वयं मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।यही सत्यनारायण की पूर्णिमा कथा है और यही मेरे सौलह कला युक्त स्त्री शक्ति के प्रतीक “पूर्णिमाँ” देवी के अनुभूति दर्शन है।।
इस दर्शन के उपरांत अनेक भक्तों को उनके ध्यान में पूर्णिमाँ देवी के दर्शन होने प्रारम्भ हुए और कृपा भी।
यो यहाँ मेने ये ज्ञान दर्शन संछिप्त में कहा गया है और इसी पर सत्यास्मि दर्शन ग्रन्थ है,जिसका अध्ययन पाठक हमारी वेबसाइट सत्यास्मि.ऑर्ग पर भी कर सकते है।और
इसकी वीडियो हमारे you tube- swami satyandra ji चैनल पर अवश्य देखें।
श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येंद्र जी महाराज
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
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