
क्या स्वर्ग में बनती है आपकी विवाहित जोड़ी,तो स्वर्ग में कैसे ओर किसने की आपके बेमेल विवाह की असफलता देने वाली प्लानिंग?
आखिर इस संसार मे मनचाहा प्यार क्यो नही मिल पाता?ना प्रेम करने पर विवाह के रूप में सफलता और ना ही अरेंज मैरिज यानी परिवारिक सामाजिक जातिगत विवाह भी बिना प्रेम के अंत मे केवल लड़ते झगड़ते दायित्त्वों के नाम पर जीवन बिताते बीत जाता है,तब ऐसा बेमेल जीवन का कारण क्या है और ये कैसे ओर कब से शुरू हुआ?क्या ईश्वर ही नही चाहता कि,उसके बच्चे या प्रतिरूप प्रेम भरा सुखद जीवन जीये?
तो आप इस ज्ञान कविता के माध्यम से जान सकेंगे कि असल मे अपने समस्त कर्मों के निर्माण से लेकर कर्ता ओर भोगता भी आप ही हो।

असल मे ईश्वर यानी ब्रह्म ने अपने अपनी प्रेम इच्छा से दो भाग किये,यानी ऋण या पुरुष शक्ति नेगेटिव शक्ति ओर धन या स्त्री शक्ति पोजेटिव शक्ति और इन दोनों ऋण पुरुष ओर धन स्त्री की एक संयुक्त अवस्था बीज यानी मूल अवस्था में।जब ब्रह्म ने अपने को स्त्री और पुरुष में बांटा तब वो दोनों के रूप में सम्पूर्ण रहा और उसका मूल उद्धेश्य है स्वयं के प्रेम ओर उसका अनन्त विस्तार यही घोष एकोहम बहुस्याम यानी मैं एक से अनेक हो जाऊं।अब आगे चलकर पुरुष की अपने स्वरूप या सन्तान को प्रजनन नहीं करने के कारण केवल अंदर बाहर यानी भौतिक और आध्यात्मिक शक्ति अच्छी रही और स्त्री के संतान पैदा करने के कारण बढ़े अतिरिक्त दायित्त्वों के चलते वो आध्यात्मिक शक्ति को धीरे धीरे खोती चलती गयी,उसके पास रह गया केवल भौतिक ज्ञान और भोगवाद।अब जब स्त्री ही वर्तमान और भविष्य की जन्म भूमि है तो वह ही भौतिक ओर भोगवादी होती गयी,तो उसपर अंकुश ओर दायित्त्वों के बोझ बढ़ने से दासत्व को प्राप्त होती गयी।परिणाम दास से दास ही पैदा होगा न कि स्वामी।ओर जिसमे स्वामी भाव बना रहा उससे स्वामित्त्व लिये सन्तान आयी,पर कितनी?बहुत कम।यो इसी असंतुलन के चलते माता के अंदर आत्मा की इच्छा मन और इच्छा को कार्य रूप देने वाला तन शरीर असंतुलित होकर बहुत कमजोर और अनसुलझा बन समाज बनता गया।और यही अनसुलझा ओर कमजोर दायित्त्वहीन भरा स्त्री और पुरुषों का परस्पर मिलन जो कथित प्रेम ओर प्रेम विवाह में भी ओर माता पिता की मर्जी से किया विवाह जो कि एक सौदेबाजी है,जिसमें केवल ओर केवल खरीदफरोख्त मात्र है,वो भी असफलता पाता रहा और है और अभी भी स्त्री स्वतंत्रता के बाद भी घोर भौतिकवादी ओर घोर भोगी ही बनी है।तो परिणाम पुत्र के रूप में जन्मे पुरुष बीज को कमजोर बनाकर देती है ओर ऐसे ही स्त्री यानी बेटी को भी अपनी ही परतंत्रता दासत्त्व नेचर के अनगिनत अंकुशों को लगाकर पैदा करती और ऐसे ही पालती है।तो कैसे मिले प्रेम और प्रेमिक सफलता?नहीं मिलेगी।यो स्त्री को ये दास बनाने वाली सभी पूजापाठ अनुष्ठानों व्रतों को बिल्कुल बन्द करना होगा।उसे अपनी आत्मा की शक्ति को बढ़ाने के वैज्ञानिक योग तरीकों को अपनाकर जीवन जीना होगा।समय लगेगा पर जैसे ये बीज बिगड़ा है,वैसे ही सबल भी बनेगा।तभी नीचे स्वर्ग बनेगा और उसी माँ रूपी स्वर्ग में प्रेम के फूल खिलेंगे ओर महकेंगे।यही से जन्मेगा प्रेम का सफलता पाया विवाह और सुखी समझदार स्वामित्त्व पाया और देने वाला मनुष्य समाज।तो स्त्री को भौतिकता के साथ आध्यात्मिकता को पूरी तरहां अपना होगा।
यही सत्यास्मि मिशन का स्त्री युगी आंदोलन अहम सत्यास्मि घोष और इसे पाने का सफलतम आत्मयोगविज्ञान रेहीक्रियायोग विज्ञान है।यो अब पढ़ समझे ये कविता,,
अनादिकाल में ब्रह्म ने
किये अपने दो भाग।
उत्तर भाग नर बना
नार बना वाममयी भाग।।
दो समान शक्ति मति
भोग योग प्रवीण।
स्वेच्छित सम्बंध रखे ज्ञानमय
भाव बढ़ाएं मीत उत्तीर्ण।।
स्वेच्छा यहां परपर दोनों
भोग योग संग उन्नत आत्मसाक्षात्कार।
एकाकार आत्म बोध स्वरूपी
विवाह सप्त वचन प्रेम स्वीकार।।
संतति करें तो ज्ञानमयी
जो संगत दें आत्मज्ञान।
दायित्व प्रेमगत ग्रहस्थ नाम
सिखाएं गुरु बन पाया आत्मरत भान।।
यदि नहीं लगे आवश्यकता
तो संतति बिन दोनों एक।
दिव्य प्रेम जीवन व्यतीत करें
बन आत्ममोक्षय दो से एक।।
जब स्वयं न जाने कौन मैं
इस कौन रहते जन्में तीजा कौन।
अभी मैं को हम तो बनाय दें
तब तक विचार नहीं कौन भौन।।
आगे बढ़ युग बीते
तब ओर संतति बढ़ी ग्रहस्थ।
स्त्री खोती गयी इस दायित्व में
योग भूल भोग हो त्रस्त।।
आध्यात्मिक शक्ति क्षीण हुई
ओर बढ़ी मन की धारा भोग।
खोती गयी भोगवाद में
दासत्व आया हाथ बिन योग।।
प्रेम नाम चल गाड़ी बिगड़ी
दो पहिये हो गये भिन्न।
कभी एक खींचता ग्रहस्थ माल को
कभी दूजा थक छोड़े हो खिन्न।।
एक दूजे कमियां केवल रह गयी
प्रेम नाम चुनाव हुई हार।
यही असमानता बढ़ती घटती
बिन पटे कटी बली चढ़ प्रेम की धार।।
केवल रह गया अल्प आकर्षण
जो मन में तन तक बनकर भूख।
इसी भूख नाम प्यार विहार सब
यही सप्त वचन विवाह आज का चूख।।
आत्मा इच्छा प्रेम नाम मन
मन की दो धारा प्रेम भोग योग।
योग कर्म भोग व्यवहार अर्थ
इन क्रम बिन बिगडा प्रेम वियोग।।
यो आज विफल है सब प्रेम योग
चाहे प्रेम करें तब हो विवाह।
चाहे तय हो रिश्ता बिन प्रेम
कर संगत पर मिले नहीं प्रेम की थाह।।
खो गया आध्यात्मिक ज्ञान ध्यान
ओर भूली जप तप अर्थ।
नारी आज धर्म नाम शोषित स्वयं
उसका पूजन सत्यज्ञान बिन व्यर्थ।।
जब तक नारी आत्मज्ञान बिन
तब तक कभी मिले न प्रेम।
उसके सभी प्रयत्न विफल हो
आत्मयोग करे सफल मन तन प्रेम।।
तभी चरित्र भी टिके सती बन
जब हो मन की धारा एक।
आत्मशक्ति जगा बन शक्तिपुंज
तभी प्रेम बने दिव्य जीवन भरता नेक।।
ब्रह्मचर्य नाम इसी दिव्य ज्ञान का
इसे पाकर उतरो ग्रहस्थ।
दोनों करो मिल मन तन एक कर
भोग सफल प्रेम सिद्ध बिन हुए ग्रहस्थ त्रस्त।।
यो रेहीक्रियायोग करो
बैठ परस्पर एक दूजे ध्यान।
इसी ध्यान बढ़े प्रेम ज्ञान हो
आगे यही प्रेम फलित मिले आत्मा भान।।
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
स्वामी सत्येंद्र सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
Www.satyasmeemission.org
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