मूर्ति नहीं आदर्श की पूजा
पूजा नाम है आदर्श कर्म।
आदर्श बने वो अपने कर्मो से
यो पूज्य है मात्र उनके कर्म।।
मूर्ति बना पूजा जो करते
न चलते उनके कर्म के पथ।
वो उस मूर्ति अपमान है करते
उसे नहीं मिले वरदान उन सत।।
उन्हें कैद कर दिया पूजाघर
या बंदी है सवर्ण जड़ित मन्दिर।
जो प्रकाशित स्वयं आत्मा
उन्हें दीप जला सजा दें सुंदर।।
कर्म बुरे आदर्श कर पूजा
बुरी नियत रख मांगे वर।
कैसे सम्भव आदर्श उन्हें दें
बुराई का फल मनवांछित सुंदर।।
पाप कर्म प्रायश्चित कभी न करते
न जपते कभी प्रायश्चित मंत्र।
शपथ लें सच्चे वचन और ईश्वर
नहीं निभाते चल उन आदर्श के तंत्र।।
न मूर्ति कुपित होती इन झूठों
न होती कभी आकाशवाणी।
न स्वप्न आ ज्ञान देते इनको
जो उन्हें पूजते झूठे शाणी।।
यदि वे आदर्श कहीं है जीवित
चाहे रहते मंदिर या स्वर्ग।
उन्हें यदि सच्च सुनना आता
तो तुरंत देते दंड इस झूठे वर्ग।।
न स्त्री की रक्षा को आते
पुकारते ही ये पूज्य आदर्श।
बलात्कार शोषण कभी न रोके
न प्रेरणा दे कर उन्हें सहर्ष।।
आदर्श चाहे स्त्री शक्ति हो
या आदर्श हो पुरुष शक्ति।
सच सहायता मांग की सुनते
ओर पाप मिटाते दे निज भक्ति।।
आदर्श मूर्ति प्रेरक मात्र है कर्मी
की मुझ जैसे शुभ कर्म करो।
न कि पूजो मुझ झूट आडंबर
मुझे मंदिर नहीं अपने कर्म भरो।।
मुझ नीचे न दीप जलाओ
दीप जलाओ निज ह्रदय अंदर।
मैं तो प्रकाशित हूं सद्कर्मो से
तुम प्रकाशित हो कर कर्म सुंदर।।
न मुझे सूंगाओ धूप सुंगंधित
मुझ कर्म महकते प्रेमिक भाव।
मुझे खिलाओ न महंगे भोजन
मुझ रूप खिलाओ जो है इन अभाव।।
यो छोड़ो इन मुझ व्यर्थ की पूजा
पूज्य बनाओ कर जनकल्याण।
शुभ कर्मों के पुष्प खिलाओ
यही आदर्श अर्थ है सर्व निर्वाण।।
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
स्वामी सत्येन्द्र सत्यसाहिब जी
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