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JNU Rape Case में हाईकोर्ट का बड़ा फैसला: ‘कमरे में जाना सहमति नहीं’, अदालत ने दी महिला अधिकारों पर मिसाल



“दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा अगर कोई महिला अपनी मर्जी से किसी के कमरे में जाती है, तो इसका मतलब यह नहीं कि उसने यौन संबंध के लिए सहमति दी।”


Report Manish Kumar Ankur | New Delhi: जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) की एक पीएचडी छात्रा से जुड़े रेप केस में दिल्ली हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को पलटते हुए एक ऐतिहासिक टिप्पणी की है। अदालत ने कहा है कि महिला का किसी के कमरे में अपनी इच्छा से जाना ‘सहमति’ नहीं माना जा सकता, जब तक उसने स्पष्ट रूप से ‘हां’ न कही हो।

हाईकोर्ट के जस्टिस अमित महाजन की एकल पीठ ने कहा कि ट्रायल कोर्ट को इस तरह की टिप्पणियां नहीं करनी चाहिए थीं जो पीड़िता के चरित्र पर सवाल उठाएं। यह फैसला महिला सुरक्षा और यौन सहमति (Consent) की कानूनी परिभाषा को लेकर एक अहम दिशा तय करता है।


मामले की पृष्ठभूमि:
JNU की एक पीएचडी छात्रा ने अपने ही साथी छात्र पर दो बार यौन शोषण का आरोप लगाया था। छात्रा का कहना है कि आरोपी ने दोस्ती का फायदा उठाकर उसे अपने हॉस्टल में बुलाया और रेप किया।

ट्रायल कोर्ट ने इस मामले में आरोपी को जमानत देते हुए कहा था कि महिला पहली घटना के बाद भी आरोपी के संपर्क में रही और दोबारा मिलने की योजना बनाई — जिससे अदालत ने ‘मौन सहमति’ का संकेत माना।


हाईकोर्ट का रुख:
दिल्ली हाईकोर्ट ने इस तर्क को पूरी तरह खारिज करते हुए कहा

“महिला के व्यवहार को उसकी सहमति के रूप में नहीं देखा जा सकता। किसी भी महिला को सिर्फ इसलिए यौन उत्पीड़न का शिकार नहीं बनाया जा सकता क्योंकि वह अपनी इच्छा से किसी के कमरे में गई थी।”

अदालत ने यह भी कहा कि निचली अदालत को जमानत देते समय आरोपों की गंभीरता और परिस्थितियों को ध्यान में रखना चाहिए था, न कि पीड़िता के चरित्र पर टिप्पणी करनी चाहिए थी।


महिला अधिकारों के लिए मिसाल:
यह फैसला भारत में ‘सहमति’ (Consent) के कानूनी और सामाजिक मायनों को एक बार फिर स्पष्ट करता है। अदालत ने दो टूक कहा कि ‘सहमति’ का मतलब केवल मौजूद होना नहीं, बल्कि स्पष्ट ‘हां’ होना है।

यह निर्णय महिलाओं के सम्मान, सुरक्षा और उनके शरीर पर अधिकार से जुड़े मामलों में एक बड़ा संदेश देता है।


और अंत में …
JNU रेप केस में हाईकोर्ट का यह फैसला न केवल आरोपी के खिलाफ कार्रवाई को प्रभावित करेगा बल्कि देशभर की अदालतों के लिए एक मिसाल बनेगा। यह फैसला बताता है कि महिला की चुप्पी या साथ होना ‘सहमति’ नहीं है, और हर स्थिति में उसकी स्पष्ट मंजूरी ही कानूनी सहमति मानी जाएगी।


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