इस दिवस पर अपनी ज्ञान कविता के माध्यम से जनसंदेश देते महायोगी स्वामी सत्येन्द्र सत्यसाहिब जी कहते है कि,
आधुनिक हिन्दी रंगमंच का पहला हिन्दी नाटक, शीतला प्रसाद त्रिपाठी कृत जानकीमंगल का मंचन, काशी नरेश के सहयोग 3 अप्रैल 1868 में हुआ था। इस नाटक में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने लक्ष्मण की भूमिका निभाई थी। लखनऊ नक्षत्र और संगीत नाट्य भारती के सहयोग से 3 अप्रैल 1968 में इस दिवस की शतवार्षिकीय बनाई गई थी। 1975 में संगीत नाटक अकादमी के माध्यम सें शरद नागर ने तीन अप्रैल को विश्व हिन्दी रंगमंच दिवस के रूप में लोकप्रिय किया।
यहां हिंदी रंगमंच से अभिप्राय है- हिंदी और उसकी बोलियों को अभिव्यक्त करता रंगमंच से है। हिन्दी रंगमंच की जड़ें प्राचीनकाल से ही रामलीला और रासलीला से आरम्भ होती हैं। हिन्दी रंगमंच पर संस्कृत नाटकों का भी प्रभाव रहा और है भी।भारत के महान लेखक नाट्यकार भारतेन्दु हरिश्चंद्र हिन्दी रंगमंच के पुरोधा हैं।
भारतीय रंगमंच का इतिहास विश्व मे सबसे प्राचीन है। ऐसा माना जाता है कि नाट्यकला का विकास ही सबसे पहले हमारे भारत देश में ही हुआ था। ऋग्वेद के कतिपय सूत्रों में यम और यमी, पुरुरवा और उर्वशी आदि के इस सम्बन्धित कुछ ही संवाद हैं। इन संवादों में खोजकर्ता लोग नाटक के विकास का चिह्न पाते हैं। यह अनुमान किया जाता है कि इन्हीं संवादों से प्रेरणा ग्रहण कर जन लागों ने नाटक की रचना की और नाट्यकला का एक बड़े स्तर पर विकास हुआ। यथासमय भरतमुनि ने उसे शास्त्रीय रूप दिया था।
भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में नाटकों के विकास की प्रक्रिया को इस प्रकार व्यक्त किया है:-
नाट्यकला की उत्पत्ति दैवी है, अर्थात् दु:खरहित सत्ययुग बीत जाने पर त्रेतायुग के आरंभ में देवताओं ने स्रष्टा ब्रह्मा से मनोरंजन का कोई ऐसा साधन उत्पन्न करने की प्रार्थना की, जिससे देवता लोग अपना दु:ख भूल सकें और आनंद प्राप्त कर सकें। फलत: उन्होंने ऋग्वेद से कथोपकथन, सामवेद से गायन, यजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से रस लेकर, नाटक का निर्माण किया। विश्वकर्मा ने रंगमंच बनाया।
हिंदी रंगमंच दिवस को 3 अप्रैल के दिन मनाया जाता है।इस सम्बन्धित तथ्यों को ध्यान में रखते हुए स्वामी सत्येन्द्र सत्यसाहिब जी ने अपनी कविता में रंगमंच को यो प्रस्तुत किया है कि
ब्रह्म स्तुति कर देवों ने
दुख मिटा आनन्द कला की मांग।
तब प्रकट हुई कला रंगमंच जग
मनुष्य हुआ कृतार्थ इस कला स्वांग।।
सबसे पहले भारत मे जन्मी
रंगमंच कला स्वर्ग और धरा
यम यमी पुरुरवा उर्वशी द्धारा
अभिव्यक्त हुई ये कला संवाद जरा।।
ऋग्वेद से संवाद सोम से ले गायन
यजुर्वेद से अभिनय अथर्ववेद से रस।
विश्वकर्मा ने रंगमंच बनाया
किये भावविभोर भर सुख सरस।।
देवी रंगमंच उत्पत्य देव हैं
शिव नृत्य चौसठ भाव कलाकार।
विष्णु रसवंते रासविहारी पूरक
ब्रह्म चारों धर्म संवाद उच्चार।।
भरत मुनि से कालिदास तक
शीतल त्रिपाठी से भारतेंदु हरिश्चंद।
शरद नागर ने आधुनिकता देकर
हिंदी रंगमंच प्रारम्भ किया अभिव्यक्ति समुंद्र।।
मनुष्य अभिव्यक्ति से भरें रंग
ओर अभिव्यक्ति को चढ़े मंच।
जीवंत कर दे षोड़श विकार सुकार
वही अभिनेता कहलाये रंगमंच।।
एक स्थान हो दर्शक भरा
जहां साज संगीत संग मोन हो।
वहां उठे स्वर अभिव्यक्ति का
दर्शे बज ताली संग कहे कौन हो।।
मैं भूल जहां जाएं ‘ओर’ होकर
जो कर रहा वही दिखें दर्शक।
खो जाए लोग देश काल जगहां
वही रंगमंच कहलाता जग हर्षक।।
नृत्य संग कला शरीर अंग
भभके बहके दहके तरंग।
हूक उठे बिन दमन उचंग
गान हो बन प्रवाह अथाह अभंग।।
जहां उठ खड़े हो कह वाह वाह
जहां चिपक बैठे हो प्रेम छांय।
सिरहन हो निकले मुंह आह
ये मेरे संग हो रहा अहसास निसहाय।।
हो जहां ओट पर्दे की दखल
खुलते ही हो चहलपहल।
धमक हो तबले मृदङ्ग थाप
सारंग तान अलाप की हो पहल।।
फूटे मटके टूट बिखरें चूड़ी
रंगबिरंगी धीमी हो रोशनी चमक।
अंधेरा ओर छाया कला रूप लें
वहीं रंगमंच जानों शहर गांव दमक।।
अनादिकाल से सदा तक चले
रूप बदलता बहरूपी रंगमंच।
बसे खिले बुझे ओर उजड़े
वही दिन खाली रात सजे रंगमंच।।
आओ इस दिवस मना जुड़े हम
अभिव्यक्त करें अपने सब भाव।
जो न कर सके वह कर सकें इस जग
जी लें अनसुलझे जीवन हर अभाव।।
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
स्वामी सत्येन्द्र सत्यसाहिब जी
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