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आत्मनिरक्षण कैसे करें? (भाग एक) आत्मचिंतन या आत्मनिरक्षण से जिंदगी में पड़ने वाला प्रभाव? बता रहे हैं श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज

 

 

 

 

आत्मचिंतन या आत्मनिरक्षण करने वाला व्यक्ति हमेशा महान बनता है, वो अपनी हर बात को अकेले में पुनः दोहराता है और अपनी गलतियों का पुनः निरक्षण करके आगे बढ़ता है।

 

आत्मचिंतन से इंसान के जीवन की बहुत सी त्रुटियां खत्म हो जाती हैं। आत्मचिंतन करने से इंसान के कर्म कार्य अच्छे हो जाते हैं, दिमाग में चल रहे गलत विचार समाप्त हो जाते हैं। वो अपने जीवन के हर कार्य बड़ी सोचसमझ के साथ करने लग जाता है।
आज श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज इसी आत्मचिंतन पर अपने विचार प्रस्तुत कर रहे हैं। जिन्हें पढ़ने और अपनाने के बाद जीवन में जबरदस्त बदलाव देख सकते हैं।

आत्मनिरक्षण या आत्मचिंतन क्या है? इसको श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज विस्तार से बता रहे हैं।

आत्मनिरक्षण का चिंतन कैसे करें (भाग एक):-आपको बता रहे है- स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी:-

 

भाग एक

 

जब भी आप अपने गुरु या स्वयं के अनुसार कोई भी ध्यान विधि को अपना कर नियमित ध्यान साधना करते है,तब हरेक साधक भक्त की कुछ दिन ध्यान साधना करने के पश्चात यह जानने की इच्छा होती हैं की- मेरी कुछ ‘आध्यात्मिक प्रगति’ हुई या नहीं? और ऐसा क्या है? जिससे मैं अपनी ‘आध्यात्मिक प्रगति’ को नाप और भांप सकूँ ? और वो है- आपका अपना मन जिसे आध्यात्मिक भाषा में विकास के तौर पर विभिन्न स्तर पर चित्त कहते है।
यानि की नियमित साधन भजन ध्यान करते हुए आपका अपना मन या चित्त कितना शुद्ध और पवित्र यानि निर्मल हुआ है?
वही आपकी आध्यात्मिक स्थिति की दशा को दर्शाता हैं।यदि अब आपको भी अपनी आध्यात्मिक प्रगति कितनी हुयी, ये जानने की इच्छा हैं, तो आप भी इन निम्नलिखित चित्त के स्तर से अपनी स्वयं की आध्यात्मिक स्थिति को जान सकते हैं।बस अपने ‘चित्त का प्रामाणिकता’ के साथ ही “निरक्षण’ करें। यह आपके लिए अत्यंत आवश्यक विषय हैं-


आओ पहले ये जाने की ये चित्त क्या है,और इसके कितने प्रकार है? क्योकि हम अधिकतर मन को ही जानते और बोलते है की-मेरा मन ऐसा या वेसा है,तो ये मन और चित्त क्या और कितने प्रकार का है:-
आत्मा के दो भाग है-1-X यानि धन,+,स्त्री और -2-Y यानि,-,ऋण,पुरुष और इन दो स्त्री+पुरुष के प्रेम में एक होने की अवस्था का नाम आत्मा है-आत्मा के भी 6 अक्षर भाग है-1-अ+आ+त+म+अ +आ=आत्मा।
अ-पुरुष,Y है-आ- पुरुष में स्थित अर्द्ध स्त्री-X है-त-पुरुष का अर्द्ध बीज है-x1/2-म-स्त्री,X1 है-अ-स्त्री में स्थित अर्द्ध पुरुष तत्व-X2 है-आ-स्त्री का अर्द्ध बीज-y1/2 है-यो ये 5 मिलकर आत्मा बनते है।और दोनों के अर्द्ध-x1/2 + अर्द्ध-y1/2 बीजों के मिलन से ही ये सृष्टि होती है।दोनों में ये विपरीत अर्द्ध बीज ही-आकर्षण+विकर्षण है।तभी दोनों का मिलन होता है।ये सत्यास्मि मिशन की विश्व में पहली योगिक सत्य खोज है।अब यही दोनों एक दूसरे में आधी आधी आकर्षण विकर्षण रूपी अनन्त आनंद इच्छाओं का समूह- मन है।यो दो मन होते है।और इसी मन की अनेक प्रकार चित्त और उसका क्षेत्र यानि आकाश कहलाता है।समझे-
यो तो चित्त और उसके आकाश तीन है-1-चित्त आकाश-2-चिद्ध आकाश-3-अचिद्ध आकाश।
पर सामान्य भक्तों के समझने के लिए मनुष्य के मूलाधार चक्र में 1-स्त्री(धन) + 2-पुरुष(ऋण) + 3-इनका प्रेम मिलन(आकर्षण) + 4-प्रेम विछोह(विकर्षण) से 4 पंखुड़ियों वाला कमल बनता है। और उसी की जाग्रत होने पर क्रिया की प्रतिक्रिया से 4+4=8 अष्टदल कमल निर्मित होता है,और तभी इस 4 क्रिया की 4 प्रतिक्रिया से ही अष्ट कमलदल यानि अष्ट पंखुड़ियों वाले अष्ट विकारों से भरें,प्रकट होता है और फिर इसकी भी 8 विकार की क्रिया और + 8 सुकार की प्रतिक्रिया =16 कलाएं प्रकट होती हुयी 16 कला की अमावस और 16 कला की पूर्णिमां बनती है।यो मूलाधार चक्र में इस चतुर्थ धर्म की क्रिया और प्रतिक्रिया से-एक एक पत्ती में बने रहने वाले अष्ट विकारो-काम-क्रोध-लोभ-मद-ईर्ष्या-द्धेष-घृणा-अहंकार पर आधारित 8 प्रकार के चित्त का यहाँ उल्लेख किया है-

वेसे वेदिक काल से वर्तमान काल तक इन अष्ट विकारों की निम्नता से उच्च अवस्था में अनेक सिद्धों की स्थिति होने पर भी उनमें अष्ट विकार गए नहीं।तब कैसे कह सकते है की-अष्ट विकारों से मुक्ति सम्भव है?आओ जाने:-

1-कामुक चित्त:-ये चित्त का सबसे निचला स्तर हैं ,इसे दूषित चित्त भी कहते है।ये मूलाधार चक्र में स्थित अष्ट कमलदल की एक एक पत्तियों में से एक में सक्रिय चित्त है।यानि काम चित्त। इस स्तर पर रहने वाला साधक का काम चित्त यानि कामुकता से सदा भरा रहता है, और अन्य सभी के दोष ही खोजता और देखता रहता हैं।और दूसरे सबका बुरा किस प्रकार से किया जाए? इसी चिंतन का विचार करता रहता है।सदा दूसरों की प्रगति से सदैव द्धैष व् ‘ईर्ष्या’ करते रहता हैं।और यूँ ही नए-नए उपाय खोजते रहता हैं की- किस उपाय से हम दुसरे को नुकसान पहुँचा सकते हैं।और सदा नकारात्मक बातों करना ,उसी प्रकार की नकारात्मक घटनाओं को देखना और उसमें जीना,तथा नकारात्मक व्यक्तिओं में ही बैठकर नकारात्मक सन्देश देते हुए,उस साधक का यह ‘चित्त’ सक्रिय रहता है।इसे कामना चित्त भी कहते है।यहाँ कामदेव व् रति इसके इष्ट है।और ब्रह्मचर्य से लेकर सारी काम सृष्टि इसका उच्चतर प्रतीक है।

2-क्रोधित चित्त:-ऐसे चित्त वाला साधक सदा जरा जरा सी बातों पर क्रोध से भरकर जीता है।ये साधक सदा अपने साथ हुयी और दूसरों के साथ की गयी भूतकाल की घटनाओं को लेकर,और उसके अधूरे परिणाम को लेकर विक्षिप्त होकर क्रोधित बना रहता हैं।और सदैव भूतकाल में ही खोया हुआ होता हैं।वह सदा किसने क्या किया और वो बीती बातों की घटनाओं में रहने का इतना आधी हो जाता हैं की उसे भूतकाल में रहने में आये क्रोध में ही आनंद को ढूंढकर प्रसन्नता अनुभव करता हैं।यहां क्रोधावतार दुर्वासा मुनि इसके उच्चतर अवस्था के प्रतीक है।

3-लोभित चित्त:- इस प्रकार का चित्त वाला साधक सदा इस बात और योजना में डूबा रहता है की-कैसे सभी बुरी संभावनाओं से दूसरों से लाभ उठाया जाये।सदैव कुछ-न-कुछ दूसरों का बुरा ही होगा,तभी वे मेरे पास आएंगे और मैं उनकी मजबूरी का लाभ अपने अनुसार उठाऊंगा।और उसकी सभी व्रतियों में लालच और चेहरे पर भी लालचिपन दिखाई देता है।यहां समस्त तपेश्वरी देव व् दैत्य या सन्त आदि का संसार की भौतिक व् आध्यात्मिक शक्तियों पर विजय वर की लोभ मांग और उससे उनका पतन के उच्चतर उदाहरण प्रतीक है।

4-मद् चित्त:-यह चित्त वाला साधक अपने सभी किये कर्मों के पुरुषकार भी स्वयं ही तय करता है की-मेरे ऐसा करने पर मुझे ये मिलना चाहिए और वेसा पुरुषाकार नहीं मिलने पर विक्षिप्त होकर दूसरों को कोसने और बदला लेने लगता है।उसे अच्छा लगा तो सब ठीक है।और सब मित्र है।अन्यथा सब बुरे है।यहां अनेक सम्राट् रावण कंस दुर्योधन आदि से वर्तमान तक अनेक उच्चतर उदाहरण प्रतीक है।

5-ईर्ष्या चित्त-इस चित्त वाला साधक अनेकों ‘साल’ तक ध्यान साधना करता हैं।और कुछ भी प्राप्ति नहीं होने पर उसे अन्य साधकों से ईर्ष्या होने लगती है।अब चाहे गुरु के प्रति ईर्ष्या हो की-ये गुरु मेरे लिए कोई प्रयत्न नहीं कर रहे है।या केवल अन्य सबको छोड़कर मुझ पर ही ध्यान दें। और कुछ उपलब्ध हो गया तो,इस ईर्ष्या भरें चित्त से वो जरा सी बात से गुरु से भी या इष्ट से भी प्रतिस्पर्द्धा को तैयार हो जाता है।उसे कितना ही समझाओ,वो उतना ही अपने को हीन समझने की बात को लेकर और ईर्ष्या से भरता जाता है और दूसरे को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष में अपना प्रतियोगी समझ उसे हराने या अपमानित करने की चिंतन में लगा रहता है।यहां आने देव और त्रि देवियों की ईर्ष्या की उच्चतर उदाहरण प्रतीक है।

6- द्धेष चित्त:-इस द्धैषित चित्त के साधक को साधना में भी सदा दूसरे से असन्तोष ही बना रहता है।चाहे वो साधना स्थल का वातावरण हो या प्रकर्ति के परिवर्तन को लेकर आये विध्न से असंतोष हो,या परिवारिक परिजनों की उसके अनुरूप उपस्थिति नहीं या होने से असंतोष हो।या गुरु ने ज्ञान दिया पर मेरे अनुरूप शक्तिपात नहीं किया।या खान पान आदि कुछ भी हो,उसे उन सबसे जरा सी बात पर असंतोष हो जाता है।और इसे इस विक्षिप्त द्धैषित चित्त से ध्यान करने से विशेष उपलब्धि नहीं होती है।यहां शकुनि आदि अनेक उच्चतर उदाहरण प्रतीक है।

7-घृणा चित्त:- इस घ्रणित चित्त में स्थित रहने पर साधक को प्राकृतिक वस्तुओं और छोटे लोगों या अनुपयोगी व्यक्तियों और बदसूरत जीवों से घ्रणा बनी ही रहती है।और वो अपने नहाने के पानी या तौलिया या साबुन या पहनने या ओढ़ने के कपड़े आदि और साधना के आसन और पूजा स्थान या अपनी इष्ट मूर्ति के प्रति इतना लगाव होता है,की किसी ने छु लिया की बस हो गया चित्त खराब और लगे अपशब्द कहने और हो गयी उससे घृणा।ऐसे चित्त वाले सिद्ध् की श्री रामकृष्ण परमहंस के जीवन में उनके विर्विकल्प समाधि कराने वाले गुरु तोतापुरी के साथ हुयी की-वे माया को नहीं मानते थे।और तब एक दिन उनकी प्रज्वलित घूनी से मन्दिर के पुजारी ने आग मिलने में कठनाई देख एक जलती लकड़ी ले ली की-तोतापुरी जेसे निविकल्प सिद्ध भी क्रोधित होकर सेवक के पीछे क्रोधित होकर गाली देते भाग लिए।तब आप समझे की-आप जैसे सामान्य साधक की क्या बिसात??ये है घृणित चित्त की निम्न से उच्चतर अवस्था।यहां अघोर पथ के अनेक सिद्ध उच्चतर उदाहरण प्रतीक है।

8-अहंकार चित्त:- अ से ह तक सारे वर्णाक्षर से उत्पन्न सभी व्रतियों को जानकर तब एक अहं का ज्ञान होता है।तब भी ऐसे साधक में उस अहं के होने का बोध रहता है।यही बोध की अशुद्धता ही अहंकार नामक चित्त कहलाता है।इस अहं के बोध होने में एक सुदृढ़ता होती है की-मैं हूँ..इस में निर्मलता नहीं होती है।यो ये ही चित्त की सर्वोच्चतम और अंतिम विकारी अहं चित्त अवस्था होती है।इसे भी निरन्तर इस अहं पर अपने को एकाग्र रखकर किये अहं रहित चिंतन से विशुद्ध किया जाता है।तब अष्ट विकार का सम्पूर्ण शोधन होता है।इतने यहां अहंकारी चित्त की ये ऐसी अवस्था होती है की-साधना की उच्चता प्राप्ति पर भी ये बना रहता है की मैंने इतना तप जप साधना करके इतना ज्ञान और सिद्धि प्राप्ति कर ली है।अब मेरे सामने कोई नहीं ठहर सकता, यहाँ तक गुरु या इष्ट भगवान भी छोटा लगने लगता है।यहां शैतान का उद्धभव उच्चतर उदाहरण प्रतीक है।

वेसे यहां ये अष्ट विकार की संछिप्त व्याख्या में बहुत बातें समझ नहीं आएगी।पर ध्यान करने वाले को यहां समझने को बहुत कुछ ज्ञान है और उसे समझ आएगा की-मैं अभी इन अष्ट विकारों की किस निम्न अवस्था पर या मध्य अवस्था पर हूँ और मेरा इसी भाव के चलते साधना का उच्चतर अंत कहाँ होगा।यो वो उसी पक्ष को लेकर चिंतन करता शुद्धि लाभ प्राप्त करेगा।
यहाँ आपको बड़ा गहरा रहस्य समझ आएगा की-अभी केवल मूलाधार चक्र में ही आप साधना कर पा रहे है।यो इस मूलाधार की साधना से स्वयं की उत्पत्ति है और इस ब्रह्मांड की उत्पत्ति है।तब इसे जाग्रत कर लोगे तब स्वाधिष्ठान चक्र से सहस्त्रार चक्र तक यात्रा कितनी गम्भीर है।वहां क्या है? वहाँ अष्ट सुकारों का शोधन होता है।तब आत्मसाक्षात्कार की सम्भावना है।यो तब समझ आएगा की आत्मसाक्षात्कार के करने में 100% परिश्रम क्यों और क्यों अनन्त जन्म लग जाते है।
यो इन अष्ट विकार युक्त चित्त को लेकर कोई भी भौतिक या आध्यात्मिक साधना सफल नहीं होती है।यो अपने चित्त का सदा अवलोकन करना चाहिए और तभी गुरु के दिए ज्ञान और प्रयोगिक विधि को समझ में आकर साधना सम्बंधित संशय मिटता है और साधना में तीर्व गति और सफलता मिलती है।
यहाँ ये भी समझ में आएगा की-अष्टमी क्यों मनाई जाती है?वो इन अष्ट विकारों के इस क्रम से शोधन करने की साधना का नाम है-अष्टमी का व्रत यानि आठ विकारों को शोधन करने का संकल्प करना ही व्रत कहलाता है।नाकि केवल भूखे रहकर ज्योत जलाकर देव या देवी को अर्ध्य देकर व्रत करना आदि मन बहलाना मात्र है।
आगामी लेख में बताऊंगा की-अष्ट सुकार को भी लेकर चित्त की 8 निम्न से उच्चतर अवस्थाएं है-उन्हें ही भक्ति मार्ग में नवधा भक्ति कहते है।और ये ही नवधा भक्ति ही नवमी का व्रत करना रहस्य है।

 

 

इस लेख को अधिक से अधिक अपने मित्रों, रिश्तेदारों और शुभचिंतकों को भेजें, पूण्य के भागीदार बनें।”

अगर आप अपने जीवन में कोई कमी महसूस कर रहे हैं घर में सुख-शांति नहीं मिल रही है? वैवाहिक जीवन में उथल-पुथल मची हुई है? पढ़ाई में ध्यान नहीं लग रहा है? कोई आपके ऊपर तंत्र मंत्र कर रहा है? आपका परिवार खुश नहीं है? धन व्यर्थ के कार्यों में खर्च हो रहा है? घर में बीमारी का वास हो रहा है? पूजा पाठ में मन नहीं लग रहा है?
अगर आप इस तरह की कोई भी समस्या अपने जीवन में महसूस कर रहे हैं तो एक बार श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज के पास जाएं और आपकी समस्या क्षण भर में खत्म हो जाएगी।
माता पूर्णिमाँ देवी की चमत्कारी प्रतिमा या बीज मंत्र मंगाने के लिए, श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज से जुड़ने के लिए या किसी प्रकार की सलाह के लिए संपर्क करें +918923316611

ज्ञान लाभ के लिए श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज के यूटीयूब

https://www.youtube.com/channel/UCOKliI3Eh_7RF1LPpzg7ghA से तुरंत जुड़े

 

*****

श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येंद्र जी महाराज

जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः

 

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