गुरु पूर्णिमा पर्व पर सत्य ॐ सिद्ध आश्रम में श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज के भक्तों ने गुरु पूर्णिमा पर्व मनाया और गुरु जी से आशीर्वाद प्राप्त किया। दूर-दूर से आये भक्त अपने मन में बहुत सारे सवाल भी लेकर आये थे। भक्तों ने अपने सवाल गुरु जी से पूंछे तो अपनी परेशानियों का निवारण भी गुरु जी से पूंछा।
आज 27 जुलाई गुरु पूर्णिमां पर्व पर श्री गुरुदेव स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी का भक्तों के प्रश्न का उत्तर कि- क्या मंत्र जप का एक दूसरे के कर्म काटने और शुभ फल प्राप्ति को लेकर कोईं विशेष प्रभाव होता है? इस प्रकार से है कि भौतिक संसार हो या आध्यात्मिक संसार यो ये दोनों संसार है और दोनों माया जगत के दो पक्ष ही है इन दोनों के मध्य और उसको जानकर उसमें प्रवेश ही सत्य का आत्म साक्षात्कार करने वाला ही “गुरु” कहलाता है और इन दोनों में किसी एक या दोनों के प्रभाव में है वो सब संसारी ही कहे और माने जाते है,ये है वर्तमान स्वयंभु कहे जाने वाले भगवान, गुरुओं,सन्तों आदि नामों का अर्थ जो की सच्चे अर्थ नही है ये सब मायावादी ही होकर मायावादी प्रभावो के प्रपंचों में पड़े दिखाई देंगे,अब
इन पूर्व भौतिक और अध्यात्म दोनों विषय में मुख्य तीन स्तर है जो की सभी क्षेत्र में होते है;-
1-इच्छा-2-क्रिया-3-ज्ञान।
-1-इच्छा-मनुष्य की किसी भी इच्छा या मनोरथ का एक क्रम यानि सिस्टम होता है यदि वो नही है तो मनोरथ पूरा नही हो सकता है-जैसे-आग..आग कहने या भाँग..भाँग कहने से और ना राम..राम कहने से ना आग लगेगी और ना भांग का नशा चढ़ेगा और ना राम बनोगे इन सबके लिए एक सिस्टम यानि क्रमबंधता होती है-जैसे आग जलाने को-लकड़ी+माचिस+हवा से बचाव+तेल आदि तब आग लगेगी,ठीक ऐसे ही भांग को भाँग के पोधे से उसे रगड़ कर प्राप्त करना+ मीठे या किसी चिलम में रखना+फिर उसका संतुलित उपयोग कर खाना या धूम्रपान करना है तब वहा प्रभावी होगी।और ऐसे ही केवल राम कहने से रामचन्द्र जी नहीं हो जाओगे उनके भी चरित्र को अपने चरित्र में गढ़ने के लिए अनगिनत परिश्रम करना होगा।
ठीक यही मनोरथ पूर्ति का एक क्रम शब्दावली है-जिसका नाम-मंत्र-श्लोक-चालीसा-स्त्रोत्र आदि है यो केवल इनके पाठ या रटने से काम नही होता है बल्कि इसके लिए मन को एकाग्र करते हुए जो इच्छा है उसका सही और सम्पूर्ण चित्रण बनाना भी आवशयक है तब वो इच्छा अपना अर्थ के साथ अपना फल,ज्ञान प्रकट करेगी।
-2- क्रिया यानि शक्ति की प्राप्ति का क्रम या उपाय-जब तक इच्छा नही, तब तक शक्ति भी व्यर्थ है-जैसे घर में विधुत यानि लाईट तो है पर ना बल्ब,पंखे आदि उसको उपयोग हेतु नही है तब लाईट का क्या लाभ? ठीक ऐसे ही-बल्ब और पंखे है पर लाईट नही, तब इनका क्या लाभ? ठीक ऐसे ही इच्छा है, पर शक्ति नहीं, तब इच्छा किससे पूरी होगी? शक्ति की प्राप्ति को एक पूरा क्रम यानि सिस्टम है-जल को रोक कर बांध बनाकर उसकी धारा को एक विशाल पंखे पर गिराते हुए उनके घूमने से एक विशाल मोटर को चलाया जाता है वो मोटर भी बड़े विज्ञानं के क्रम से बनी है तब कहीं इन सब अनेक उपायों से विधुत उप्तन्न की जाती है और उसे तारों आदि आदि और भी क्रम भाग से घर और पंखों आदि चलने लायक सभी साधनो के प्रयोग में उपयोग किया जाता है और यदि उपकरण और उपयोगिता अधिक हुयी और विधुत का उत्पादन कम तो भी काम नही चलेगा।
ठीक यही उदाहरण यहां है की गुरु विधुत उत्पन्न करने का एक यन्त्र है जो शक्ति देता है इसकी भी त्रिगुण प्रकर्ति अनुसार एक सामर्थ्य होती है और भक्त और इनके मनोरथ अधिक है तो अत्यधिक दबाब के चलते गुरु की शक्ति क्षीण हो जायेगी यो ही गुरु लोग भक्तों को अपने मंत्र और दीक्षा देते शक्ति देते हुए अपने से जोड़ते है और इधर शिष्य अपनी दी गयी शक्ति से अधिक अपने मनोरथ पुरे करने को गुरु से शक्ति खींचता है तो वही हाल होता है जो विधुत के ट्रांसफार्मरों के फूंकने का होता है,पता चला जो सहज काम हो रहे थे उनसे भी गुरु और शिष्य दोनों ही हाथ धो बैठे।जो वर्तमान में हुआ है और भविष्य में होता रहेगा।क्योकि स्मरण रहे ये वो दोनों प्रकर्ति की शक्ति से परे सिद्ध नहीं है।जो इनसे परे होता है वो अपने शिष्यों को आत्मस्वभलम्भी बनाता है ना की अपना दास।।
-3-ज्ञान या फल-यहाँ जो इच्छा और शक्ति के मेल से मिला वो फल है या ज्ञान है।तब यहाँ भी सूत्र है की-तुम्हारी इच्छा थी राजा होने की और शक्ति है एक चपरासी या कुछ बड़ा मंत्री तक होने की तब कैसे राजा बनोगे? तब तुम्हें प्राप्त फल रूपी पद से सन्तोष यानि फल या ज्ञान में आनंद नही आएगा।
तब आप अपने पद और ज्ञान या फल की व्रद्धि करने का उपाय ढूंढोगे की ये कैसे और अच्छा दिखे?-यो उसमें कृतिमता की व्रद्धि करोगे, तब वो ज्ञान या फल या पद तो उतना ही है, परन्तु उसमें कृतिमता के आने से उसका आनन्द खो या मिट जायेगा।यही है इन गुरुओं के आडम्बरों के ज्ञानी-ध्यानी-सिद्धि सम्पन्नता दिखने के पीछे का रहस्य,जो एक दिन ज्यादा भक्तों के बढ़ने से मांग और पूर्ति के असन्तुलित सिद्धांत से गड़बड़ा जाता है और परिणाम ना घर के ना घाट के रहते है।जैसे-कोई आम का फल है उसे दो या चार व्यक्तियों में तो बाँट कर कुछ स्वाद लिया जा सकता है परंतु ये कहने से की मेरे पास जो आम है वो देखने में सामान्य आम जैसा ही है पर ये ज्यादा आनन्द देगा ये आडम्बर है और जब उस आम को अनेक लोगों में काट कर बांटोगे तो नतीजा यही निकलेगा जो इन गुरुओं का निकला।
स्मरण रखों-की उतना पैर पसारो,जितनी चादर तुम्हारे पास हो।।यो ये संत की परिभाषा में यही अंतर् है की उसकी कथनी और करनी सदा एक सी रहेगी,वो जो पहले था,वही सदा वर्तमान और अंत तक बना रहता है।हाँ कुछ साधन अवश्य बदलेंगे वो भी भक्तो के उपयोग को-जैसे-संत को आवश्यक नही की वो मलमल की गद्दी पर बेठे,क्योकि उसने तो कठोर पत्थर या भूमि पर बैठ लेट तप किया है, पर हाँ शिष्यों को बैठने को ठीक सा फर्श वहां अवश्य डाल देगा ताकि लोग सहज बैठ सके क्योकि उन्हें अभ्यास नही है।वो अपने आचरण से उन्हें निरन्तर अभ्यास की और ले जाता है।वही सच्चा गुरु भी है और ऐसी ही अभ्यास भरी मनोवर्ति अपनी सन्तान में अपने सद आचरण से उत्पन्न करने वाले ही सच्चे माता और पिता कहलाते है ठीक यही ईश्वर का अर्थ भी है अन्यथा वो स्वयं ही अपनी स्वरूप तुम सन्तान या स्वयं के कार्य बिना अभ्यास और परीक्षाओं के कराये कर और करा देता,जैसा की आजतक नहीं हुया है-ज्यों श्री राम और कृष्ण और बुद्ध ने अपना काम अपने परिश्रम और सामर्थ्य से किया और हनुमान जी और सभी सिद्ध सन्तों-आदि गुरु शङ्कराचार्य,दयानन्द,विवेकानंद और भी वर्तमान में ऐसे है वे भी यहीं कर रहे है यही है कथनी और करनी में एकता जो इसे जानता और मानता है वो स्त्री और पुरुष चाहे कोई हो कभी शोषित नहीं होगा ओर ना करेगा।
यो स्वच्छ और अच्छा रहना, दिखना एक भिन्न विषय है और वेभ्वयुक्त रहना, ये सन्तों का विषय नही है “”क्योकि संत या आत्मसाक्षात्कारी की आत्मा से बड़ा वेभ्वशाली इस ब्रह्माण्ड में कोई नहीं है”” यो वो वेभ्व का स्वामी और दाता है ना की वेभ्व का दास और लेता,यो जो इस अर्थ का चिंतन करता गुरु बनाता है और स्वयं भी शिष्य की इस परिभाषा के अंतर्गत अपना निरक्षण करता है की-मैं स्वयं कितना सुयोग्य और निस्वार्थी हूँ अन्यथा कर्ण और परशुराम की कथा घटित होती है।यो दोष अपने में देखों क्योकि तुम्हे सुधरना है ना की किसी और को।
-मंत्र विज्ञानं–यो मंत्र को रटो मत,उसके अर्थ को भी जानो और उसका चिंतन करते सुदृढ़ता से ध्यान करो तब इच्छा और शक्ति मिलेगी।
यूँ ही ध्यान की अनेक अवस्था है-जिनमें तीन मुख्य है-1-केवल लक्ष्य या दर्शय या वस्तु का कल्पित चित्रण का अनुमान लगाते हुए ध्यान करना जिसमें साधक को अपनी देह का भी भान यानि पता होता है यो साधक रँगविहीन द्रश्यों की कल्पना यानि आभास भर को देखता ध्यान करता कहता है कुछ नही छाया सी ही दिखती है।प्रारम्भ में इसी प्रथम स्तर के यही साधकों की भरमार होती है।
और -2-इस अवस्था में साधक को अपनी इच्छा या मनोरथ का कल्पित चित्र तो बिलकुल स्पष्ट दीखता है पर उसमें शक्ति नही होती है ये उस भांति है जैसे- बिन सुगंध का फूल या बिन स्वाद का फल।यो यहाँ की अवस्था में पहुँचा साधक अपनी मनोवांछित मनोकामना को होता तो देखता है परन्तु उसका परिणाम नही आता और आता भी है तो बहुत देर से,तब तक साधक साधना ही छोड़ देता है यो यहां साधक को ये जानना चाहिए की जैसे अभी फल कच्चा है अभी रसीला नही बना यो इंतजार करो,अवश्य इच्छा फलीभूत हॉगी ये निश्चित है।ये साधक ध्यानी कहलाते है।
-3-अब साधक को जो सोचा वो कल्पित ही यथार्थ द्रश्य तत्काल बन जाता है क्योकि यहाँ इच्छा और शक्ति एक साथ मिलकर तत्काल कार्य करते है ठीक इसी अवस्था के उपरांत ही सिद्धावस्था आती है तब शिष्य अपने गुरु की साहयता भी कर पाता है।
यो निराश मत हो इन सब सूत्रों का बारम्बार चिंतन करो तो सब साधना के रहस्य समझ आएंगे और आगे बताया जायेगा।
“इस लेख को अधिक से अधिक अपने मित्रों, रिश्तेदारों और शुभचिंतकों को भेजें, पूण्य के भागीदार बनें।”
अगर आप अपने जीवन में कोई कमी महसूस कर रहे हैं? घर में सुख-शांति नहीं मिल रही है? वैवाहिक जीवन में उथल-पुथल मची हुई है? पढ़ाई में ध्यान नहीं लग रहा है? कोई आपके ऊपर तंत्र मंत्र कर रहा है? आपका परिवार खुश नहीं है? धन व्यर्थ के कार्यों में खर्च हो रहा है? घर में बीमारी का वास हो रहा है? पूजा पाठ में मन नहीं लग रहा है?
अगर आप इस तरह की कोई भी समस्या अपने जीवन में महसूस कर रहे हैं तो एक बार श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज के पास जाएं और आपकी समस्या क्षण भर में खत्म हो जाएगी।
माता पूर्णिमाँ देवी की चमत्कारी प्रतिमा या बीज मंत्र मंगाने के लिए, श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज से जुड़ने के लिए या किसी प्रकार की सलाह के लिए संपर्क करें +918923316611
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श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येंद्र जी महाराज
🙏�जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः🙏�
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