श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज स्त्रियों के कुण्डलिनी जागरण की बात कर रहे हैं। सत्यास्मि ग्रन्थ स्वामी जी ने इसके ही ऊपर लिखा है और स्वामी जी स्त्रियों के लिए सत्यास्मि मिशन भी चलाते हैं। सत्यास्मि मिशन स्त्रियों के उत्थान के लिए अनेकोनेक कार्य करता है।
विश्व धर्म में पहली बार-प्राचीन वेदों से लेकर वर्तमान के सभी धर्म ग्रन्थों में कहीं भी स्त्री की कुण्डलिनी चक्रों का कोई वर्णन नहीं है, और आज आपको सत्यास्मि मिशन द्धारा उनके धर्म ग्रंथ में से प्रकाशित-स्त्री की कुण्डलिनी के 5 बीज मंत्रों और स्त्री की कुण्डलिनी चक्रों का चित्र दिखाया जा रहा है…..
उससे पहले आप ये जाने कि-
जो भी योगी होना चाहता है उसे प्रोयोगिक होना ही होगा वो प्रयोगो से बच नही सकता और इससे बचने का उपाय ही नही है, जो प्रयोगिक है, वही योगी है.. वही यथार्थ भोगी बाकि सब रोगी है.. जो परम्परावादी है, वे कभी भी प्रयोगिक नही होते, वे केवल उस दी गयी लाधी गयी परम्पराओं को अपने मन तन पर ढोते है, नतीजा होता है आत्मा का हनन.. कहने और मानने को परम्परावादी भी एक साधक है. वे वे साधक है, जिनमे अभी अपनी कोई सोच नही है, कोई चिंतन नही है, यो ये भी साधना की एक आवश्यक अंग है, ये होना भी चाहिए, यही इसी अवस्था को जब वे ढोते ढोते थक जाते है, तब उनमें उस सबके प्रति क्रांति आती है की- मुझे कुछ चाहिए, जो इससे नही प्राप्त हो रहा है. आप देखेगे कि- जितनी भी क्रांतियां है, वे सभी का अंत उन ढोई जा रहे नियमों की परम्पराओं की अंतिम अवस्था से ही हुया है. वो चाहे राजनीती हो, समाज निति हो या वैज्ञानिक खोजे हो, सभी में पुरानी का नवीनीकरण ही है और वो आता है- प्रयोगों के करने से ही, आज जो भी महान लोगों को आप देखेंगे, पढ़ेंगे, सुनेगे, वो सब के सब प्रयोगवादी ही है और जो कोई भी उन्नतिशील है वो चाहे बाहर से परम्परावादी दिखायी देता हो परन्तु अंदर से वो गुप्त रूप से अपने पास उपलब्ध ज्ञान की जानकारियों से प्रयोग किये होता है और उसी प्रयोगों से प्राप्त ज्ञान का उपयोग करके ही वो सफलता पाता है यही सफलता का रहस्य प्रयोगवादी बनना और संसार के सभी भोग और योग दोनों ही प्रयोगात्मक रहे है और जब भी उनमे प्रयोग रुक गए तभी बीमारियां उतपन्न हुयी है, क्योकि जो आप अपने ऊपर लाध और ओढ़ लेते हो, वो एक रुकावट है यानि वहाँ आपका अंत है और जहाँ अंत है वहाँ से निम्नता की और गिरावट का प्रारम्भ होता है, यही बीमारियां है और जो इस अंत को जान लेता है, वही उस अंत से ऊपर उठता है की- नही ये मेरा अंत नही है, ये मेरी शुरुवात है, मैं यहाँ पर संतुष्ट नही हूँ और वो स्त्री हो या पुरुष वो उन्हीं प्राप्त ज्ञान में प्रयोग करना प्रारम्भ करता है और यही प्रयोग उसे आनन्द देते है यो ये भी सत्य है की क्या कुछ नया है? नही कुछ भी नया नही है सब पुराना ही है, पुराने का अर्थ है- सम्पूर्ण है. लेकिन वो सम्पूर्णता स्वयं को उपलब्ध नही होने से पुरानी परम्परा लगती है बोझ लगता है, यो वहाँ आनन्द गिरने लगता है, तब वो अपने लिए नया मार्ग चुनता है और आप देखेंगे की जितनी भी खोजे है वो नई नही है, वो पीछे भी की जा चुकी है और जानो की वे पीछे के जानकार कौन थे? वे आप ही की तरहां मनुष्य थे, सागर में बुलबुला जो अपने चरम को प्राप्त होकर फूट गया, पूर्ण हो गया, यो कुछ भी नया नही है, यही हमारी स्म्रति का लोप हो जाना है और उसी की जागर्ति करना, उसे पुनः उजागर करना, उसे पाना ही प्रयोग कहलाता है, यो प्रयोगिक बनो.अब ये स्त्रियुग चल रहा है.यानि स्त्री युग-“सिद्धयुग” का प्रथम चरण. यो स्त्रियां प्रयोगिक है, और होंगी भी, उनके प्रयोग थम गए, तभी वे आश्रित असहाय बनी और उस काल में पुरुष प्रयोगिक था, वे उसकी सहभागी बनी, क्योकि एक क्रिया है दूसरा उसका सहयोगी और द्रष्टा भी है, यही स्त्री रही. उसने चारों पुरुष युगों तक उसे ढोया. तब वो उससे ऊब गयी, अब उसकी बारी है, अब वो पुरुष का उपयोग करेगी, यही उपयोगिता प्रयोग कहलाता है, वो पहले भोगी यानि कर्मशील बनेगी, ये कर्मशीलता कितने ही प्रकार की हो सकती है, वो इसी भोग रूपी कर्म से अपना व्यक्तिगत ज्ञान को प्राप्त करेगी, वो समस्त पुरुषवादी ज्ञान ध्यान और उनके पुरुषवादी प्रयोगों को हटाएगी, ठीक तभी वो स्वतंत्र होगी और अपने व्यक्तिगत भोगों के द्धारा व्यक्तिगत मोक्ष को प्राप्त करेगी, यही सत्यास्मि मिशन और सत्यास्मि धर्म दर्शन का यथार्थ ज्ञान है की- जब तक स्त्री स्वयं के भोगों और योगो को नही समझेगी, जानेगी, अपनाएगी, तभी उसकी यथार्थ मुक्ति है! वो तभी सर्वोच्चतम अभिव्यक्ति प्रेम को प्राप्त कर पायेगी, इतने तो वो झूट के आवरण को ओढ़कर पुरुष की दासी बनी रहेगी, यो स्त्री अपना ध्यान कर, अपना ज्ञान कर और अपने व्यक्तिगत प्रयोगों से अपने शास्त्र लिख फेंक दे, इन पुरुषवादी ज्ञान ध्यानो को- ये तेरे नही है, तुझे अपने चक्रों को खोजना होगा, तुझमें जो अलग छिपा है उसे उजागर कर.. यही स्त्री शक्ति का सर्वाधिक स्वरूप प्रतीक “पूर्णिमाँ” उपासना है. यही “श्रीभगपीठ” उसका मूलाधार चक्र है, उसे जाग्रत करना होगा. यो पुरुष का ध्यान त्याग अपना ध्यान कर.. जो अनादिकाल में शिवलिंग की उपासना है, जिसका केवल अर्थ बना दिया की- हे नारी-तू शिव का ध्यान कर.. वही तुझे मनचाहा पति, पुत्र और सुख देंगे. ये ही सति, पार्वती की सारी कथाओं के माध्यम से पुरुषवादी दर्शन है. जिसे आजतक स्त्री ढोती आ रही है. उसे पुरुषवादी गुरुवाद से भी ऊपर आना होगा, उसे केवल उस गुरु से अपने विषय में जानना होगा और तब उसमे अपने प्रयोग अपने ध्यान से करने होंगे, उसे अपनी कुण्डलिनी शक्ति को जगाना होगा, जो की पुरुष की कुण्डलिनी से बिलकुल भिन्न है, चूँकि जितने भी भोग शास्त्र जेसे- कामशास्त्र वात्सायन पुरुष ऋषि की खोज है, और योग ग्रन्थ पतांजली, गोरखनाथ का हठयोग आदि सब पुरुषों के लिए, पुरुषों के ब्रह्मचर्य के प्रयोगो को है, वे सबके सब पुरुष की कुण्डलिनी जागरण को ही रखकर लिखे गए है, तभी पुरुष पूर्ण हुआ है, स्त्री को अपनी पूर्णता को अपनी कुण्डलिनी का चित्र और ज्ञान खोजना होगा. क्योकि जितनी स्त्रियां शिष्या है- उनके गुरु पुरुष है, पुरुष ने अपनी व्यक्तिगत शक्तिपात उनमे किया, तो जागर्ति हुयी, जो स्त्री की व्यतिगत बल पर जागर्ति नही है,माना की- शक्तिपात आवशयक है, पर वो उस शक्ति से केवल एक प्रारम्भिक ध्यान में स्थित हुयी और यो होती भी है, परंतु जिसमें वो केवल द्रश्य देखती है, उससे आगे नही बढ़ती है, क्योंकि गुरु पुरुष है वो शक्तिपात यानि देता है, रेचक करता है, यो पुरुष कहलाता है, यो उस पुरुष के शक्ति से स्त्री की शक्ति मिलकर केवल मूलाधारचक्र में “एक सूक्ष्म रमण भोग” घटित होता है और स्त्री साधक का मूलाधार चक्र खुल जाता है, मूलाधार में प्रवेश के बाद साधक की अपने बल पर साधना का प्रारम्भ होता है, यही स्त्री का हुआ और जो आजकल सिद्ध संत महिला हुयी, और है. वे भी केवल पूर्वजन्मों की पुरुष गुरुओं के शक्तिपात से इस अवस्था में पहुँची हुयी है, यो उनके किसी भी शिष्य को समाधि या आत्मक्षात्कार नही हुआ है. क्योकि वे केवल उस पूर्व प्राप्त पुरुष गुरु से केवल कुछ सिद्धिपाद की अवस्था में ही पहुँच पायी, उनकी अभी योग यात्रा का प्रारम्भ है। चूँकि स्त्री पुरुष से भिन्न है, तो उसकी कुण्डलिनी भी भिन्न है, क्योंकि स्त्री के मूलाधार में ग्रहण और त्याग की शक्ति है, वो अपने और पुरुष के बीज को मिलाकर एक नवीन जीव स्त्री या पुरुष को पोषती है, यो उसके मूलाधार के भी दो भाग है- एक मूत्रमार्ग और एक योनि मार्ग और यही से गर्भशिशु को पोषित कर सृजित करती है।
तब आप स्वयं ही देखेंगे की- स्त्री का मूलाधार बिलकुल ही भिन्न होगा, वेसे भी तंत्र और यंत्र में वो उल्टा त्रिकोण के चित्र में दर्शाया गया है, स्वाधिष्ठान चक्र भी भिन्न है, क्योकि स्त्री के अहंकार यानि स्वयं के आस्तित्व के बोध में और उस आस्तित्व के प्रकट होने में भी अंतर है और नाभिचक्र भी भिन्न है क्योकि स्त्री ही ऐसी प्रत्क्षय शक्ति है- जो स्थूल शरीर में भी नाभि से जीव सन्तान को जोड़ती है, पोषती है और उससे हटने के उपरांत भी भावों से पोषण करती है, अब आते है- स्तन के भाग पर उसका चक्र भी भिन्न है, चाहे इसका सम्बन्ध पेट के चक्रों से है, परंतु ये भी भिन्न है और ह्रदय चक्र भी भिन्न है, वहाँ पुरुष से अधिक भाव और भावनाओँ की अभिव्यक्ति सामान्यतया जीवन में भी अधिक दिखाई देती है, तो उस चक्र के जाग्रत होने पर कितनी अधिक और विशाल होगी, ये चिंत्तन ज्ञान का विषय है, कंठ स्वर भिन्न है, यो कण्ठ चक्र भी भिन्न है और स्त्री के आज्ञा चक्र में पुरुष के आज्ञाचक्र से भी भिन्नता है, क्योकि स्त्री प्रारम्भ से ही पालन कर्ता, सृष्टि कर्ता है, वो विध्वंसक नही है और जो सृजनकर्ता है, वही प्रकर्ति है और वही सदा जागरूक है, यो उसकी आज्ञा में त्याग नही है, विध्वनस्ता नही है, वहाँ जीव यानि अपने से उतपन्न सन्तान के प्रति उसका क्रोध भी पुरुष के क्रोध से भिन्न है, स्त्री का क्रोध भी अपनी सन्तान को लेकर पालनकर्ता, सुधारवादी क्रोध यानि उर्जात्मक होता है, यो आज्ञाचक्र भी भिन्न है, और सहस्त्रार चक्र भी भिन्न है, क्योकि वहाँ भी स्त्री अपने सूक्ष्म से स्थूल और अतिसूक्ष्मातीत अवस्था वाले शरीर में उपस्थित और प्रकट होती है, तब भी वो स्त्री ही रहती है, वह स्त्री सम्पूर्ण शक्ति बनती है, उसमे क्या परिवर्तन आएगा? वो क्यों शरीर से परे होगी? वो लिंगभेद से परे होने कहने के सिद्धांत से परे नही होती है, क्योकि मूल ईश्वर में मिलन होने का अर्थ भी स्त्री और पुरुष का परस्पर प्रेमावस्था का नाम है, तब दोनों एक दूसरे में प्रेम को आत्मसात करते हुए अपने लिंगभेद को भूलते हुए एक हो जाते है, ये अवस्था बीज कहलाती है, की तब वेद वाक्य है की- ना सत् था, ना असत् था, तब केवल शून्य था और उसी शून्य में विस्फोट रूपी हलचल हुयी, उसी से प्रथम नांद घोष हुआ की- एकोहम् बहुश्याम- मैं एक से अनेक हो जाऊ, यो तब उसी शून्य यानि प्रेमवस्था रूपी बीज से दोनों सत् यानि पुरुष और असत् यानि स्त्री अपनी अपनी व्यक्तिगत चेतना में आये, और उन्हें अपना शारारिक बोध हुआ ! और दोनों ने नवीन सन्तान की सृष्टि को अपनी सहमति दी, यही वेद अर्थ है और तब यही आप देखेंगे की- स्त्री स्त्री है और पुरुष पुरुष है, तब दोनों में लिंगभेद कहाँ हुआ? अर्थात नही हुआ और ना ही होगा और होगा भी क्यों? क्योकि दोनों अपनी अपनी अवस्था में सम्पूर्ण है, यही यहाँ का रहस्य है!
आप समझ गए होंगे की- दोनों की आदि से अंत तक कुण्डलिनी बिलकुल भिन्न है और ये सारे पुरुषवादी कुण्डलिनी के चित्रों में दर्शाये पंचाक्षर बीजमंत्र है:-
“लं-वं-रं-यं-हं”
पुरुषवादी ये 5 बीज मंत्र का अर्थ इस प्रकार से है,जो आज तक किसी भी धर्म ग्रंथ में नहीं दिया गया है आओ जाने:-
1-लं – पुरुष लिंग का संछिप्त अर्थ रूप।
2-वं – पुरुष वीर्य का संछिप्त अर्थ रूप।
3-रं – रमण यानि पुरुष में व्याप्त विकर्षण शक्ति(-) का संछिप्त अर्थ रूप है।यानि स्त्री में जो आकर्षण शक्ति(+) है, उससे मिलकर जो क्रिया योग को सम्पन्न होता है,वह रमण है।
4-यं – यानि पुरुष योनि यानि लिंगभेद अर्थ का संछिप्त रूप है-की ये आत्मा पुरुष योनि में जन्मी है।
5- हं – हम् यानि पुरुष की स्वरूप की उपस्तिथि का संछिप्त अर्थ रूप है।
समझ आया की ये 5 बीज मंत्र केवल पुरुष और उसकी शक्ति को ही दर्शाते और प्रकट करते है।
बाकी 7 चक्र-मूलाधार चक्र से सहत्रार चक्र तक का अर्थ दोनों के लिए लगभग समान ही है।यानि मूलाधार का अर्थ है-स्त्री हो या पुरुष इन दोनों का मुलेन्द्रिय स्थान अर्थ है।यही और भी मानो।
यो इन पुरुष बीजों-“लं-वं-रं-यं-हं”- से स्त्री की कुण्डलिनी नही जाग्रत कर सकते है, और ना ही ये गायत्री मंत्र के बीजमंत्र- भुर्व -भुवः -स्वः से जगेगी, क्योकि इस मंत्र के प्रथम दात्री ब्रह्मा और प्रथम द्रष्टा विश्वामित्र पुरुष है, ये उनकी कुण्डलिनी जागरण के उपरांत उनका पुरुषवादी दर्शय शक्ति दर्शन है, और ना ही ये दुर्गासप्तशती के त्रिमंत्रों:-
“ऐं ह्रीं क्लीं” से जाग्रत होगी, क्योकि ये भी पुरुष देवो की व्यक्तिगत (-,+) × स्त्री शक्ति है, यो ये केवल पुरुष से उतपन्न हुयी और पुरुष में ही समा गयी।क्योकि स्त्री के बीज मंत्र बिलकुल भिन्न है, क्योकि स्त्री का स्थूल बीज रज यानि ( ×,×) ही पुरुष के बीज वीर्य यानि (-,+)से भिन्न है, तब स्थूल बीज भिन्न है, तो सूक्ष्म भी भिन्न है, और यही स्त्री को खोजना है, अभी तक केवल पुरुष की कुण्डलिनी अपने में पूर्ण जाग्रत होते हुए भी वो भी अपूर्ण ही है, क्योकि वो इस ब्रह्म का एक अधूरा भाग है, उसका दूसरा अधूरा भाग स्त्री है, और उसकी कुण्डलिनी नही जाग्रत हुयी है !! जो कुछ थोड़ी बहुत हुयी भी है- तो उससे पुरुष के साथ समानता व् पूर्णता नही बन पायी है, जब स्त्री की भी कुण्डलिनी सम्पूर्ण जाग्रत होगी, तभी दोनों की आपने अपने में पूर्णता एकाकार होकर एक सम्पूर्ण व्रत बनेगा, वही सम्पूर्ण एकाकार व्रत बनकर विश्व कुंडलिनी सिद्ध होगी, जो आज तक नही हुयी है, वही इन चार पुरुष और चार स्त्री के युगों के सम्पूर्ण होने पर होगी, तभी जिस महारास का चित्रण कृष्ण लीला में दर्शाया गया-कल्पित मात्र है, वो विश्व कुण्डलिनी जागरण पर ही सिद्ध होगा, यो उसे यानि स्त्री को अपना ध्यान और अपनी जागर्ति करनी चाहिए।और आपको शीघ्र ही वो स्त्रिकारक कुण्डलिनी का चित्र भी दिखाया जायेगा जो आज के धर्म संसार तक में प्रकट नही हुआ है।तो आओ..स्त्री की कुण्डलिनी और उसके बीजमंत्र के विषय में संछिप्त में इन चित्रों से जाने…
पहली बार प्रकाशित.. स्त्री की कुंडलीनी के बीज मंत्र और चित्र दर्शन:-
1-मूलाधार चक्र:–का चित्र-~()~ यानि मध्यम प्रकाशित पूर्णिमा जैसा चंदमा और उसके दोनों और दो श्वेत पत्तियां – बीज मंत्र है-भं- अर्थ है-भग या योनि-भूमि तत्व।
2-स्वाधिष्ठान चक्र:-हरित पृथ्वी पर बैठी हरे रंग की साड़ी पहने सांवले रंग की स्त्री-बीज मन्त्र है-गं-अर्थ है-गर्भ-भ्रूण-ग्रीष्म-अग्नि।
3-नाभि चक्र:- ये भी हरित प्रकाशित पृथ्वी पर अर्द्ध लेटी हुयी सांवले रंग की स्त्री में ही संयुक्त है-बीज मंत्र है-सं-अर्थ है-सृष्टि-सत्-जल।
4-ह्रदय चक्र-गुलाबी रंग से प्रकाशित पृथ्वी पर गुलाबी रंग की साड़ी पहने अर्द्ध तिरछी लेटी हुयी गौरवर्ण वाली स्त्री-बीज मंत्र है-चं- अर्थ है-चरम-चन्द्रमाँ-मन-वायु।
5-कंठ चक्र-ये गुलाबी रंग वाली पृथ्वी और स्त्री के ही अधीन है-बीज मंत्र है-मं- अर्थ है-मम् यानि स्वयं-ज्ञानी मैं-माँ-महः तत्व-आकाश।
6-आज्ञा चक्र-यहाँ केवल स्निग्धता लिए दुधिया रंग का प्रकाशित चन्द्र की पूर्णिमा से चारों और अनन्त में बरसता हुआ अद्धभुत प्रकाश-बीज मंत्र है-गुंजयमान ॐ –अं+उं+मं=बिंदु से अनन्त होता सिंधु जैसा चपटा चक्र।निराकार।
7-सहस्त्रार चक्र-केवल स्त्री का स्वयं आत्म स्वरूप साकार जो प्रकाशित चन्द्र का पूर्णिमा प्रकाश से दैदीप्यमान होकर अनन्त से अनन्त तक शाश्वत बनकर आलोकित है।
अब पाठक गण ये देखना कि-आप चारों और इस लेख और चित्र से विषय चुराकर नवीन चित्र और लेख बनाकर आपको दिखाए जाएंगे..
इस विषय में आगामी लेख इसके दूसरे भाग में पढ़िए। उसमें और भी स्त्री शक्ति की कुण्डलिनी के विषय में बात होगी।
इसके बारे में विस्तृत जानकारी पढ़ने के लिए -“सत्यास्मि धर्म ग्रंथ” को पढ़ें। सत्यास्मि धर्म ग्रंथ को प्राप्त करने के लिए श्री सत्य सिद्धपीठ आश्रम से संपर्क करें।
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श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज”
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
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