“इस साल करवा चौथ 4 नवम्बर 2020 बुधवार को मनाया जाएगा। इस दिन महिलाएं सारे दिन व्रत रख रात को चंद्रमा के अर्घ्य देकर पति के हाथों से पानी पीती हैं और व्रत खोलती है।”
करवाँ चौथ की सत्य कथा:- इसके विषय में बता रहे हैं-स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी..
सनातन लोक में दैनिक दिनचर्या की भांति परस्पर आत्मज्ञान की चर्चा कर्तृ सत्य नारायण भगवान और सत्यई पूर्णिमा जगत्जननी प्रेमवाटिका में भर्मण कर रहे थे। और उनका ज्ञान विषय था की संसार में जितने भी स्त्री पुरुष है उनके प्रेम और विवाह का परस्पर मेल नही बनता है क्या कारण है? जन्मों से ऐसा क्या आत्म कर्म बिगड़ा है की दोनों मनवांछित प्रेम की इच्छा लेकर और उसकी प्राप्ति की तीर्व मनोरथ पूर्ति हेतु प्रत्येक व्रत जप व् तप दान उपासना आदि दिव्य कर्म करने के उपरांत भी मनोरथ पूर्ण नही होते है। और किसी विशेष तपोबल से प्राप्ति हो भी गयी तो वो अधिक स्थायी नही रहती है ऐसा क्यों है? इस प्रश्न का उत्तर जगत्जननी पूर्णिमा देवी देती तभी नारद मुनि सहित सप्त ऋषियों का वहाँ नारायण घोष से प्रवेश हुआ। और भगवन व् भगवती को प्रणाम व् आवभगत के उपरांत ठीक यही प्रश्न ऋषियों ने पूछा की हे भगवती इसका सत्य उत्तर क्या और प्राप्ति विधि क्या है? वो हमे ज्ञात कराओं ताकि हम संसार को ये विधि बताये और उनका मनवांछित प्रेम विवाह पूर्ण और सफल रहे। तब देवी बोली की हे ऋषियों सुनो- जब ये सृष्टि का उदय नही हुआ था। तब वेदों के अनुसार कोई सत् यानि पुरुष और असत् यानि कोई स्त्री का अस्तित्त्व नही था। केवल एक शून्य अवस्था चाहूँ और विद्यमान थी तब क्या था? इसका वर्णन वेदों में नही है। और उस शून्य में हलचल हुयी वो कैसे हुयी? और उस शून्य में एक विस्फोट हुआ और उसमे से एक आत्मघोष हुआ की- एकोहम् बहुश्याम अर्थात मैं एक से अनेक हो जाऊँ तब ये मैं कौन था और वो एक था या वो दो थे? उस एकल ब्रह्म से कैसे इस संसार की स्त्री और पुरुष की उतपत्ति हुयी। क्योकि अगर वो एक ब्रह्म पुरुष था तो उससे केवल पुरुष ही उतपन्न हो सकते है स्त्री नही, और यदि वो स्त्री ब्रह्म थी तो उससे केवल स्त्री ही उतपन्न हो सकती थी पुरुष नही। यो ऐसे अनेक प्रश्नों का यथार्थ उत्तर वेदों में उपलब्ध नही है। क्योकि जो वर्तमान वेद है। वे अनेक उदाहरणों से अपूर्ण भी है। वे जिन्होंने आत्म उपलब्धि कर लिखे वे कालातीत अनुसार लुप्त हो गए और जो वर्तमान में है वे स्म्रति के अनुसार संकलित किये गए है। जिनमे कही तो आत्मतत्व को मुख्य प्रधान माना है। तो कही अन्य देव देवी और किसी एक ब्रह्म ईश्वर को अपनी आत्म उन्नति को आवाहनित किया है जो गायत्री में अर्थ है। जिसे विश्वामित्र ने द्रष्टा होकर अनुभूत किया है। यो इन समस्त प्रश्नो का संछिप्त उत्तर ये है- जब ये सत् असत् रूपी विहीन शून्य था। उसका यथार्थ अर्थ है की- तब असत् रूपी जगत्जननी ईश्वरी मैं सत्यई पूर्णिमा स्त्री शक्ति और सत् रूपी ईश्वर सत्य नारायण पुरुष शक्ति दोनों अपने अपने अहं यानि मैं को एक दूसरे में विलीन करके एक्त्त्व अद्धैत अवस्था जिसे प्रेम अवस्था कहते है। उसमे समस्त भान को भूल कर आत्म लीन थे। तब कोई ना लेना था न देना था। तब कोई भी क्रिया और प्रतिक्रिया नही थी। तब इसी क्रिया विहीन स्थिति को शून्यवत अवस्था कहा गया है। तब इस प्रेम अवस्था में रहते हुए अनन्तकाल व्यतीत हुए। तब हम दोनों को पुनः आत्म बोध हुआ और अपनी इस एक्त्त्व प्रेम अवस्था से भिन्न हुए। तब हम से मैं बने दो भिन्न मैं एक स्त्री शक्ति की उपस्थिति का बोधक मैं और एक पुरुष उपस्थिति का बोधक मैं। और इसी मैं की सम्मलित सहमति से की अब हम अपने ही अनन्त प्रतिरूपों को पुनः आत्म आनन्द की इच्छा और आत्म आनन्द की क्रिया और आत्म आनन्द के ज्ञान के आनन्द के लिए सृष्टि करते है। और इस मैं की प्रेम से प्रथम चैतन्यता यानि जागरूकता के समय को ही चैत्र कहा जाता है। तब काल समय भाषा देश समुदाय यानि समस्त जीव् जगत की उतपत्ति हुयी। यही उतपत्ति के विकास क्रम के बारह भाव ही ज्योतिष यानि ज्योति मान ज्ञान प्रकाश और ईश माने ईश्वर अर्थात ईश्वर का ज्ञान और उसकी सम्पूर्ण अभिव्यक्ति का प्रकाशित होना है। यो जीव की जन्मकुंडली में ये बारह भाव है। जिनसे मनुष्य के जीवन के चार कर्मो का ज्ञान होता है। क्योकि जगत में स्त्री और पुरुष और इनकी एक्त्त्व अवस्थ बीज ये तीन गुण सदा विद्यमान रहते है यो इन तीनों के चार चार कर्मो का ज्ञान चार धर्म कहलाता है। यही ब्रह्म यानि हम दोनों के दिए चार मनुष्य आत्म कर्म है जो-अर्थ-काम-धर्म-मोक्ष रूपी वेद यानि विस्तार कहलाते है। यही चार वेदों के रूप में त्रिगुणों के ज्ञान की तीन तीन माह के बाद पुनरावर्ती ही चतुर्थी कहलाती है। जो चार नवरात्रि और चार मुख्य पूर्णिमा के क्रम में आती है। ईश्वर ने अपनी पत्नी मेरे लिए अपनी सन्तान की सार्वभोमिक स्वस्थ और उन्नति के लिए चैत्र की नवरात्रि के उपरांत की पूर्णिमा को उसके नामकरण के लिए पिता के भाव से परे सोलह कला युक्त होकर ब्रह्म महाभाव से पूर्ण होकर जो नामकरण किया यो ईश्वर पिता गुरु रूप में ब्रह्म से ब्राह्मण कहलाया और मैं माता कहलायी और उस नवरात्रि की आगामी पूर्णिमा का नाम प्रेम पूर्णिमा पड़ा। जिसमे जो भी पुरुष अपनी पत्नी या प्रेम की प्राप्ति को व्रत रखेगा उसे अवश्य प्रेम और सम्पूर्ण सुख प्रदान करने वाली पत्नी और सन्तान की प्राप्ति होगी। और जो भी स्त्री इस चैत्र पूर्णिमा से आगामी सप्तम माह के क्रमानुसार आश्वनि माह की चतुर्थी को व्रत करेगी वो उत्तम पुरुष को पति के रूप में प्रेम सहित उत्तम सन्तान का सुख प्राप्त करेगी। ये सप्तम माह मनुष्य की जन्मकुंडली के सातवें भाव जो पति या पत्नी का होता है। इससे आगामी भाव आठवां मनुष्य की मृत्यु का होता है यो विवाह में सात ही फेरे लिए जाते है और सात ही वचन वर और वधु को परस्पर भरवाये जाते है। तीन वचन त्रिगुण के है स्त्री और पुरुष और उनके दिव्य प्रेम के एकीकरण के जिन्हें त्रिदेव या त्रिदेवी भी कहा जाता है। उन्हें साक्षी माना जाता है। और शेष चार फेरे वचन इस तीनों गुणों के चार कर्म और चार धर्मो का प्रतीक वचन निर्वाह कहे जाते है। और पंचदेव मनुष्य के पंचतत्वों से बने शरीर के साक्षी होते है- अग्नि या उसका छोटा रूप ज्योत। और जल और ब्रह्म रूपी ब्राह्मण और दोनों के आकाश रूपी माता पिता रूपी ईश्वर व् पृथ्वी रूपी समाज और भोजन आदि प्रतीक साक्षी बनते है। यही इस चतुर्थी के व्रत में शरीर रूपी मटका यानि करवाँ का पूजन है। और उनका सुहागन स्त्रियों द्धारा परस्पर प्रेम गीत गाते हुए बदलाव करना इस बात को बताता है की ये संसार सभी के परस्पर सहयोग से चलता है। हम सभी एक ही है और हम एक आत्मा है जिसके दो अर्ध रूप है एक स्त्री और एक पुरुष। ये दोनों मिलकर ही परमात्मा बनते है। इनका मिलन ही प्रेम है। उस प्रेम के चार कर्तव्य है ब्रह्मचर्य यानि शिक्षा और इस पायी भोग और योग की शिक्षा के प्रयोग का नाम ग्रहस्थ धर्म है। और जो शिक्षा और उसके प्रयोग से ज्ञान पाया है। उसे अपनी सन्तान रूपी भविष्य को देना ही वानप्रस्थ धर्म कहलाता है। और अब सभी लेने और देने के भावो से मुक्त होकर अपनी आत्मा की परम् अवस्था में स्थित होना मोक्ष यानि सन्यास धर्म कहलाता है। और इस समस्त प्रेम इच्छा का नाम है मन, और इस मन का प्रतीक इस जगत में चन्द्रमा है। जो आत्मा के जगत प्रतीक सूर्य से प्रकाशित है यो आत्मा से मन प्रकाशित है। उसी मन रूपी चन्द्रंमा को अपने प्रेम का अर्पण करने का प्रतीक है जल। जो प्रेम का प्रतीक है। और छलनी स्त्री और पुरुष के बीच एक मर्यादा के भेद का प्रतीक है उसी मर्यादा रूपी छलनी को अपने और चन्द्रमा के मध्य रख ये व्रत किया जाता है चन्द्रमा पति के पास नही होने के रूप में उपयोग किया जाता है। और यदि पति पास है तो उसी के दर्शन कर व्रत खोलने का विधान है। इसी व्रत की महिमा को समाज में अनेक कथाओं के रूप में प्रचलित किया गया है, की सात भाइयों का अर्थ है-आत्मा रूपी पुरुष की सात किरणें और मनुष्य के शरीर में सात चक्र और उनकी एक आठवी बहिन है पृथ्वी। जो कुंडलिनी शक्ति और अपने सहत्रों रूपी प्रकर्ति के कारण शतरूपा देवी कही जाती है और उसका विवाह मन यानि मनु नामक ऋषि से हुआ और मनु और शतरूपा की ये सन्तान मनुष्य है। यो आत्मा से मन उतपन्न हुआ और मन से ये शरीर रूपी मनुष्य उतपन्न हुआ और इस मनुष्य के चार कर्म धर्म है। यही पालन करना चतुर्थी और उन्हें पूर्णता देना पूर्णिमा है वैसे पुर्वकाल में ये व्रत भी इस माह की पूर्णिमा को मनाया जाता था बाद के पुरूषवादी वर्चस्व के कारण ये इस चतुर्थी को मनाया जाने लगा जबकि स्त्री स्वयं में सम्पूर्ण सौलह कला युक्त होने से स्वयं पुर्णिमा है। और यही इस कथा और व्रत का भावार्थ है इसे जान कर जो मनुष्य स्त्री और पुरुष मनाता है वो समस्त सुखों के साथ दिव्य प्रेम को प्राप्त करता है।ये सुन नारद सहित सभी सप्त ऋषियों को परम् ज्ञान और आनन्द लाभ हुआ और उन्होंने भगवान सत्यनारायण और भगवती सत्यई पूर्णिमा को भक्ति पूर्वक प्रणाम करते और आशीर्वाद प्राप्त करते इस महाज्ञान को समस्त मनुष्यों को देने के संकल्प के साथ विदा ली और इस सत्यभावार्थ कथा को प्रचारित किया की जो स्त्री और पुरुष इस कथा को व्रत की पूजा करते समय पठन और पठन करेगा वह समस्त संसारी प्रेम और सुखों की प्राप्ति करता अंत में मोक्ष को प्राप्त होगा।।
-करवा चौथ व्रत की सच्ची विधि:–
इस भगवान सत्य नारायण और सत्यई पूर्णिमा जगत्जननी का चित्र अपने पूजाघर में विराजमान करें और प्रातः से साय चन्द्र दर्शन तक अखण्ड घी की ज्योत जलाये और चार अलग अलग प्रकार के फल का भोग लगाये और पत्नी सीधे हाथ में जल लेकर संकल्प ले की मैं (अपना नाम बोले) अपने पति (उनका नाम बोले) के सर्व कल्याण और दीर्घायु के लिए आज का किया अखण्ड गुरु मंत्र या इष्ट मंत्र जप इन्हें प्राप्त हो और संकल्पित जल को ज्योति के सामने छोड़ दे। और पुरे दिन कम बोलते हुए जप ध्यान करे अवश्य कल्याण होगा और पति अपनी पत्नी के लिए सारे सुहागन के वस्त्र और चूड़ियाँ चांदी की पैरों की चुटकियाँ आदि साजो श्रंगार भेट करे बहुत से स्थान पर नई नवेली दुल्हन के पीहर से दुल्हन का करवा चोथ का सामान भेजा जाता है, उसे पूजाघर में रखेँ, और अपनी सांस आदि को उनके वस्त्र आदि भेट करें। तथा एक नया करवा लाकर उसे सजा कर रखे और सायंकाल को लोकाचार में प्रचलित पूजा के समय सभी सुहागन इकट्ठी होकर ईश्वर के भजन उपासना करते हुए साय को चंद्रमा को अर्ध देते के छलनी से देखते हुए पति का दर्शन देखे और परस्पर व्रत खोले।जिनके पास गुरु मंत्र है वे उसी का जप करे तो सर्व कल्याण होता है। क्योकि गुरु मंत्र से बड़ा संसार में कोई लोक और पारलौकिक मंत्र नही है।।यही सामान्य करवा चोथ व्रत की विधि है करें और कल्याण पाये।।
व्रत समय-
इस बार करवा चौथ की पूजा का शुभ मुहूर्त शाम 5.36 से शााम 6.54 तक का है। इस मुहूर्त में पूजा करने से खास फल मिलेगा। उन्होंने बताया कि 4 नवम्बर को चतुर्थी तिथि है, उस दिन शाम को 5.34 बजे से शुभ महूर्त शुरू हो जाएगा, जो 6:52 तक रहेगा।उस दिन संकष्टी चतुर्थी भी है। दोनों का व्रत एक ही दिन होता है।
!!जय सत्यनारायण भगवान की जय और जय सत्यई पूर्णिमा की जय!!