
आज लगातार प्रतिवर्ष कोई न कोई छोटी या बड़ी विश्व स्तरीय महामारियों ने मनुष्य को जीने के नाम पर बड़े कष्ट पूर्वक मरने या अधिकतर बीमारी से जूझते जीवन जीने को मजबूर कर दिया है,आज विश्व स्तर पर एलोपैथिक से लेकर आयुर्वेदक व अन्य चिकित्सा पद्धतियों का इस सब बीमारियों के सम्बन्ध में अपना अपना प्रमाणिक करता खंडन मंडन चल रहा है, आखिर हम पूर्णतया स्वस्थ्यदायी रोग मुक्ति भरे किस प्रमाणिकता के खंडन ओर समर्थन को सच्च माने ओर कैसे अपनी चिकित्सा के लिए स्वतंत्रता कायम रख स्वस्थ्यता ओर स्वतंत्रता से जीवन जी सके।
इस विषय के अन्वेषण पर अपने सामाजिक चिंतन को बता रहें स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी,,
बहुत पुराने समय से नहीं, बल्कि केवल सत्रहवीं शताब्दी से लेकर आज तक एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति ने विश्व भर में सभी रोगों के इलाज को लेकर रोगियों पर अपना पूरा का पूरा वर्चस्व बना रखा है और अब ये वर्चस्व इस कदर बढ़ गया है कि,बिन इस एलोपैथी के मनुष्य जीने के बारे में सोच भी नहीं सकता है,इसके बहुत से कारण है,उन पर चर्चा आगे करेंगे।
अब आती है अन्य चिकित्सा पद्धतियां,चाहे वो आयुर्वेद हो,जो कि सबसे प्राचीन प्रकार्तिक चिकित्सा पद्धति है,जो कि शल्यक्रिया की जनक भी है,पर उस पर पूरा वर्चस्व एलोपैथी का हो गया है।कारण ईसाइयत ने सारे संसार पर राज करते हुए,अनेक देशों की चिकित्सा पद्धतियों का दमन करके,अपनी पद्धतियों को बढ़ावा ओर इसके वर्चस्व के साथ प्रमाणिकता के लिए इस WHO यानी डब्ल्यूएचओ संस्था की स्थापना 7 अप्रैल 1948 को की गयी थी,उसने दिया।जब वे दास देश ओर हमारा भारत देश आजाद हुआ तो,तब सबसे पहले एलोपैथी की चिकित्सा को प्राथमिकता दी गयी और अपने देश की आयुर्वेदिक चिकित्सा को बस समाज मे ही मान्यता मिली,पर सरकार से इसे कुछ वर्षों पूर्व से ही अब जाकर सरकारी तोर पर एक आयुर्वेदिक चिकित्सा संस्था के रूप में मान्यता तो दी गयी है,पर उसका अपनी किसी रोग पर प्रमाणिकता के साथ उपयोग की गारंटी,एलोपैथिक की तरहां नही दी गयी है की,जो व्यक्ति यदि आयुर्वेद चिकित्सा ले रहा है,वो भी उतना ही सभी सरकारी ओर गैरसरकारी संस्थानों और सभी सुविधाओं के उपयोग को आयुर्वेदिक के मान्य कोर्स किये डॉक्टर के सर्टिफिकेटस को लेकर प्रमाणिकता के साथ मान्य माना जायेगा।जितना कि एलोपैथिक सर्टिफिकेट मान्य है।
आज सरकार और कानून की सभी नियम मान्यताएं केवल एलोपैथिक चिकित्सा को ही प्रमुखता के साथ रजिस्टर्ड मान्यता देते है कि,ये ही सरकारी नोकरी व सरकारी सुविधाओं की प्राप्ति को मान्य है,अन्य चिकित्सा पद्धतियों के स्वाथ्य प्रमाणपत्र मान्य नहीं है।
यो इसी कारण एलोपैथी चिकित्सा पद्धति का विश्वभर में इतना प्रबल वर्चस्व है और बढ़ता जा रहा है कि,यदि इस एलोपैथीक पद्धति ने अपनी थोड़े से लोगो पर प्रक्टिकल्स करके एक थीसिस बनाकर अपनी ही प्रमाणित साइंस पत्रिका आदि में लिख कर प्रकाशित कर दिया की,ये नया रोग है,इसका ये नया रूप है, जो इस कारण से सारे मनुष्य समाज को हानिकारक है,ओर ये दवा है,तो वही मान्य बनकर सभी देशों में लगभग उपयोग में होने लगती है,चाहे कुछ दिनों बाद है,फिर से एक थीसिज प्रकाशित कर दे,की ,नही,वो पहली दवाई इतनी कारगर नहीं है,ये नई रिसर्चर के अनुसार,अब उसे बेन कर दें और ये नई शुरू कर दें,तो फिर वही मान्य होती जाती है,जबकि वो बीमारी चाहे पूर्व के प्राचीन आयुर्वेदिक या अन्य प्राचीन चिकित्सा शास्त्रों में हजारों सालों से उपाय सहित वर्णित हो,वो मान्य नहीं होगी।यो एलोपैथी चिकित्सा पद्धति का उसकी दवाइयों ओर शल्यक्रिया की सुविधाओं का वर्चस्व सम्पूर्ण विश्व मे बढ़ता गया और सरकार और कानूनीतोर पर भी मान्य होकर समाज पर लागू है।आज इसकी अवज्ञा या इसके विपरीत कोई विरोध हो तो,वो विश्व स्तर पर बुरी तरहां से एक विरोध बन जाता है।
अब मानों कोई आयुर्वेद चिकित्सा या अपनी देशी या होम्योपैथी या अन्य चिकित्सा पद्धति से पूर्णतया स्वस्थ्य है तो,उसकी स्वास्थ्य सम्बन्धित मान्यताओं का सरकारी ओर क़ानूनी तोर इस एलोपैथी चिकित्सा पद्धति के वर्चस्व के अमान्य करने पर सरकारी सुविधाओं के दबाब को लेकर व्यक्तिगत से लेकर सामाजिक स्तर पर स्वतंत्रतावाद का अर्थ क्या है,कोन बताये ओर कोन इसका सच्चा उपाय करें?
आज ये बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रश्न है,जिसका सारे समाज को गहनता से विचार के साथ साथ समाधान भी निकालना होगा,अन्यथा भविष्य में बहुत देर हो जाएगी।
इस विषय में सभी आयुर्वेदक व अन्य पैथियों के साथ साथ प्राकृतिक व योगिक चिकित्सा पद्धतियों के डॉक्टरों ओर फार्मेसियों आदियों को देश हित में सरकार सहित जन समाज से जुड़े सभी धार्मिक नेतृत्व करने वालों धर्म गुरुओं व सामाजिक संगठनों का मनुष्य समाज के स्वास्थ्य सम्बंधित विकास व स्वतंत्रतावाद को क्या ठोस कदम है और इस सम्बंध में समाधान अवश्य होना चाहिए।
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
www.satyasmeemission.org
Note : ये स्वामी सत्येंद्र जी महाराज के निजी विचार हैं।
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