आज अनेक बौद्ध मतावलियों ने चैनलों पर ये प्रचारित कर रखा है कि,उन्हीं के सपूतों को तोड़ मरोड़ कर कथित हिन्दू धर्म खड़ा है।और बाहर से आये अल ब्रूनी आदि ने अपने यात्रावृतांतों में इन व्रतों व देवियों देवो का कहीं उल्लेख नहीं किया है।मतलब वे करते तो हमारा धर्म और उसके लुप्तप्राय सिद्धांत मान्य होते,नहीं तो नहीं हद है इस आंकलन की,आओ उनके इस मान्यताओं को उन्ही के अवतार बुद्ध के धर्म उत्थान से संछिप्त में पूर्णतया से जाने,
महात्मा बुद्ध ओर महावीर स्वामी के मध्य लगभग 36 से लेकर 60 वर्ष का अंतर मिलता है।
गौतम बुद्ध का जन्म 563 ई. पू और भगवान महावीर का जन्म 599 ई यानी कि भगवान महावीर का जन्म भगवान बुद्ध के जन्म के पूर्व हुए था और वे दोनों ही लगभग एक ही काल में विद्यमान थे।
चूंकि ये दोनों ही राज परिवार व युवराज व राजा रहे ओर महावीर स्वामी की तरहां ही बुद्ध उस समय के प्रसिद्धि राज परिवार में जन्मे थे तो उन्हें भी राज्य त्याग के उपरांत तपस्या कर अपने आत्मज्ञान की प्राप्ति के बाद अपने प्राप्त आत्म सिद्धान्तों को अपने पीछे से प्रचलित चले आ रहे जैन धर्म में चल रहे आत्मप्राप्ति के सिद्धांतों के अपने पाए ज्ञान संग अपनी पाली भाषा मे कह ओर आगे लिख जुड़वाकर ओर फिर उन्हें फैलाने में कोई विशेष कठनाई नहीं हुई।क्योकि उनका धर्म राजधर्म बन गया था,सामान्य लोग उसे भी पूर्व की भांति अन्य राजधर्मो की तरहां ही इस राज्य धर्म के होने से बिन ना नुकुर के अपना लेते थे,जैसा कि सर्व विदित धर्म सिद्धांत है की,हमें इसे छुड़वा रहे है तो कुछ और पकड़वाओ,,यानी आत्म निर्भरता का जो मूल वैदिक सिद्धांत है,उसे छोड़कर किसी ओर पर निर्भरता ही इन सब कथित धर्मो का मूल व विस्तार का परम सिद्धांत है।
यही यहां भी हुआ,पिछले राज धर्मी भगवानों की तरहां ये दो नए भगवान भी राजधर्मी भगवान बने,ओर इनके सिद्धांत वही के वही मूल सनातन धर्म या वैदिक धर्म के मूल सिद्धांत थे,बस इनकी भाषा मे उन्हें कहा व लिखा गया था।कुछ भी इनका नया नहीं था।बस नया क्या था?
बस एक ओर राजधर्म।।
वैसे भी पूर्व ध्यान की खोजो में मुख्य कुछ ही विधि है,जो पहले से ही ध्यानियों व आत्मसाक्षात्कारियों को प्राप्त थी।
1-प्राणायाम यानी सांस पर ध्यान करना।
2-त्राटक-यानी पँचतत्वों में सबसे प्रारंभिक व ऊर्ध्व आकाश तत्व में ऊपर की ओर ध्यान कर इस शरीर से आकाश व्यापी होना।
3-बिन मंत्रों व बिन किसी ध्वनि नांद यानी बिन रूप रस गन्ध स्पर्श शब्द के श्रवण किये, केवल अपनी आत्म प्रार्थना करते आत्मा की परम अवस्था के महाभाव में स्थित होना।
यो इन्ही विधियों में से एक एक क्रम से साधना करते हुए अपनी प्राप्ति को उनके नाम और उनके राजधर्म होने से उनका अपना सिद्धांत फैलाना बड़ा ही आसान हुआ और होता भी है।क्योकि आपके राज परिवार की रिश्तेदारियां ही तो सम्पूर्ण भारत और उनकी ओर मल्टीप्लाई रिश्तेदारियां बिन जातिगत अन्य देशों तक फैली होती है।यो आप राजा तो थे ही,बस अब आप साधु राजा हो गए,जो अन्य राजाओं से झगड़ नहीं रहा है,यो वे अन्य राजा उस साधु राजा को अपने राज्य में एक त्यागी राजा और साधु राजा की भांति ही आतिथ्य पूरी श्रद्धा सम्मान के तौर पर देंगे।चूंकि यहां यह जिज्ञासा का मूल सिद्धांत उनके सामने रहता है कि,आखिर जिस राजपाठ के पीछे हम पागल ओर विवादस्त तनावग्रस्त रहते है,वो इसने सहज में ही छोड़ दिया।तो क्यों और जिसके कारण छोड़ा वो क्या है जो इसको मिला है और मिला तो वो क्या वस्तु है,जो इसे प्राप्त हुई?
यही जिज्ञासा उन्हें उस राजा की ओर खींचती है।बस बाकी तो वही का वही दोहराता है जो पीछे के योगियों ने प्राप्त किया-आत्मसाक्षात्कार। जो अन्नत योगियों ने प्राप्त किया और करते रहे और रहेंगे।
बस उन योगियों व ऋषियों की स्थिति में ओर इनकी स्थितियों में एक मात्र बड़ा अंतर रहा-राजा होना।
जैसे ब्रह्मऋषि विश्वामित्र पहले सम्राट थे,फिर तपस्या कर ब्रह्मर्षि होकर आश्रम में रह शिष्यों को सीखने लगे।जिनके महाशिष्य हुए प्रथम भगवान राम।तब उनके सिद्धांतो को भगवान राम ने प्रचारित किया होगा और विश्वामित्र जी के ही राज कुनबे में त्रिशंकु से लेकर राजा हरिश्चंद्र हुए।
ठीक ऐसे ही महाभारत में देखोगे तो पाओगे की,ठीक वहां भी यही घटित हुआ,चल रही राजशाही के बीच अचानक संतति सुख के अभाव में महर्षि वेदव्यास जो कि आधे ब्राह्मण थे उनके पिता थे महृषि पराशर और आधे क्षत्रिय थे,उनकी माता सत्यवती क्षत्रिय थी यो उस विश्वामित्र की बेटी शकुंतला ओर दुष्यंत फिर भरत ओर फिर इसी भरत वंशी क्षत्रिय परिवार में वेदव्यास की तीन धृष्टराष्ट ओर पांडु व विदुर सन्तान ही सम्राट व व्यवस्थापक बन गयी।
ठीक ऐसे ही कृष्ण स्वयं राजा योगी थे और उस समय के सम्राट पांडु की पत्नी कुंती के सहज भतीजे थे व पांच पांडवों के सबसे नजदीकी रिश्तेदार तो वहां भी यही घटित हुआ राजधर्म।
अब राजा की बात कोन नहीं माने?या तो मानो या मरो ओर बाकी सामान पुराना लेबल नया।ओर यही चला आ रहा है।फिर इनके कट्टर अनुयायियों में भयंकर युद्ध और अंत मे सामंजस्यपूर्ण संधि का होकर एक दूसरे के राजधर्मी अवतार भगवान बन गए साधु राजाओं की पूजा।जैसे शैव मत ओर वैष्णव मत के शिष्यों में कुम्भ के मेलो पर अपने धर्म के वर्चस्व को लेकर दो तीन बार बड़ा भयंकर खूनी युद्ध हुआ,लाखो साधु भक्त मारे गए और पहले राजाओं ने फिर अंग्रेजो ने संधि कराकर कुम्भ में दोनों व आगे अन्यो को गंगा स्नान का अधिकार दिया,जैसे किन्नरों ने भी कुम्भ में अपना स्वतंत्र अखाड़ा बना लिया है।इसी के चलते बाद में इन सबके अनुयायियों ने भी यही अपनाया की अब बनाते चलो अपनी अपनी वाककला के बल पर ओर से ओर अनुयायी।चाहे विरोधाभास में बोलो या आलोचना करो,बस प्रसिद्धि चाहिए।
क्या पहले भगवान राम ने अपने से पहले किसी ओर अवतरित राजा भगवान की चर्चा की या विष्णु जी की ही बात की,बिलकुल भी नहीं की।ओ
ओर ठीक ऐसे ही दूसरे भगवान राजा योगी श्री कृष्ण ने अपने से पहले राजा भगवान राम की कहीं पर भी जिक्र यानी बात की?नहीं कि,,ओर क्यो करें?फिर इन पर उस अवतार की छाप नहीं लगती क्या?यो किसी ने वही पीछे के अवतार राजाओं की बात नहीं कि,फिर इन्हें कोन पूछता?
यो सामंजस के नाम पर पुराणों में सब के सब एक पुरुष शक्ति विष्णु के अवतार कल्कि तक घोषित कर दिए।
यही राजसाधु महावीर स्वामी ने ओर फिर लगभग 60 साल बाद हुए राजसाधु जिन्हें राजयोगी कहने लगे महात्मा बुद्ध ने नहीं कि,सबने केवल यही कहा कि,मेने पिछले सभी ध्यान विधियों का विकट अभ्यास अपने जीवन मे अनेक वर्ष किया और कोई लाभ नहीं मिला फिर मेने एक नई पद्धति का आत्मविकास किया,जिससे मेने सत्य को जाना देखा आत्मसात किया और आत्मसाक्षात्कार किया और यही सर्वोत्तम ध्यान विधि है,ये कह कर अपने राजा होने के सभी सम्बन्धो का उपयोग कर उस विधि को फैला डाला।अब जो राजा रहा है और उसके राजा ही सम्बन्धी व अनुयायी है तो वे सामान्य जनता या चापलूस पुरोहित वर्ग को बदलने में क्या जोर करेंगे बस राजाज्ञा लागू ओर हो गया,पुराने धर्म के नए रूप में बदले नवीन धर्म का प्रचार प्रसार ओर पुराने अनुयायियों को रूपांतरित कर वही जमे जमाये नए अनुयायियों की अधकच्ची भ्रमित भीरू धर्म भीड़।
जैसे बुद्ध के आगामी शिष्य हुए भारत महान शासक सम्राट अशोक दि ग्रेट।
ओर उनके बौद्ध होते ही चारों ओर सब बदल गया और बदल डाला गया।उन्हें कोन रोकता? कोई नहीं।
पूर्व के मंदिरों ओर मठों को तोड़ खाली कराकर नए धर्म के नए डिजाइन के मंदिर ओर मठों बना दिये गए।जैसे कि बुद्ध के सिद्धांतों को नहीं मानने वालों को आग में जिंदा जला दिया जाता था।तब एक महान योगी का अवतरण हुआ जो राजा नहीं था,Jइतना इन दोनों ने उस उम्र में ज्ञान नहीं पाया था,उतनी उम्र में तो वे सबको हरा कर प्राचीन धर्म की स्थापना कर निर्वाण को प्राप्त हो गए,वे थे भगवान शंकराचार्य ओर उन्हें बिन राजा बने या राज्यपरिवार में जन्म लिए,बिना किसी राज प्रतिष्ठा के आश्रित हुए केवल अपने ज्ञान योग बल के, इन बौद्ध धर्म को इन्ही की प्रतिज्ञाओं में भस्मीभूत कर डाला ओर पुनः प्राचीन वैदिक धर्म को पुनरुत्थान कर स्थापित किया।अब फिर से इस आधुनिक युग मे फिर यही पुनर्जागरण का प्रचार का बड़े स्तर पर उदय हुआ है।जो अब फिर से प्राचीन वैदिक धर्म की काट को पुनः बौद्ध धर्म का प्रचार बढ रहा है,उसके लिए बौद्ध धर्म के बड़े धर्मज्ञों से सम्पन्न देश इसमे धन तन से पूरी सहायता कर रहे और इसमे सबसे बड़ी सहायता मिली बाबा साहेब अंबेडकर से।जैसे डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने जब राजसत्ता में बड़े स्तर पर भागेदारी मिली,उन्होंने भारत का संविधान निर्माता बनाया,जो अंग्रेजो के ही संविधान का बदला स्वरूप मात्र है तो,उनके बौद्ध धर्म अपनाते ही,भारत में उनके बड़े अनुयायी समूह ने उनके साथ ही बौद्ध धर्म अपना लिया और इसी के बाद ही वैदिक धर्म विरोधी ओर बोध धर्म अनुसार के प्रसार प्रचार का बड़ा आंदोलन चल रहा है,तो यहां भी प्रतिभा कम बल्कि केवल राजशाही के बल पर धर्म व्रद्धि सिद्ध हुई।
उसीलिये आज के कथित बौद्ध अनुयायी कहते हुए प्रचारित करते है की,ये आज के मंदिर मठ हमारे बौद्ध विहार थे जो आज तोड़कर फिर से मन्दिर बना दिये है और ये बुद्ध की मूर्ति है जो विष्णु शिव और देवी बना दी है।
यहां मेने केवल आलोचना नही की है बल्कि क्या कैसे धर्म का सीधा अर्थ है उसको कैसे अपनी अपनी भाषा मे राजशाही की राज मोहर लगाकर नवधर्म बनाकर पेश किया है,वो बताया है।यो चिंतन करें और सत्य को जाने।
वैसे ये सब के सब धर्म नहीं है,क्योकि इनके फाउंडर संस्थापक के जन्म और निर्वाण के उपरांत बने है,इनके संस्थापको ने उसी धर्म के सूत्रों पर चल कर अपने को प्राप्त किया था और आगे भी प्राप्त करते रहेंगे।अगर देखे तो, इन कथित धर्मो में सबसे पहले क्या धर्म था,वो था ओर है सनातन धर्म।यो ये इस एक आदि एक मूल सनातन वैदिक धर्म की ये धर्म शाखाएं मात्र है।
आपको समझ आ गया होगा कि कैसे ये कहावत पूर्ण होती है कि-भय बिन प्रीत न होई गोपाला।
यही सदा हुआ और होता रहेगा।
यो आगे चलकर बुद्धिमानों ने ये सिद्धांत को अपना कर अपना मत निकाला कि,,
ना काहू से दोस्ती,ना काहू से बैर।
जो भी सच्चा इन लगे, उसमें जी ढूंढ निज खैर।।
यो आलोचनाओं पर नहीं अपने जीवन मे सच्ची साधनागत उपलब्धि किस से मिलेगी,यो वही गुरु परम्परा में शरण लेकर उनके पक्के सिद्धांत को अपना कर साधना करते हुए आत्मसाक्षात्कार उपलब्ध करो,यही सत्यास्मि मिशन का उद्धेश्य ओर आत्म घोष-अहम सत्यास्मि व इस आत्मउप्लब्धि को पक्का प्रयोगवादी रेहीक्रियायोग विधि है।
अपनाओ ओर कथित धर्मों के दासत्व से मुक्त होकर आत्म स्वामी बनो।
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
स्वामी सत्येन्द्र सत्यसाहिब जी
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