मैं कौन हूँ
मैं कहाँ से आया?
मेरा क्या जीवन उद्देश्य है?
और ये मैं कौन है,जो मैं को मैं कह रहा है?
सबसे मेरा ओर मेरे से सबका क्या सम्बन्ध है?
इस सब सम्बन्ध का आदि ओर मध्य व अंत ओर पुर्नरावर्ती कहाँ तक है?
और इन जैसे सभी विषयों को जिन्में भोतिक जगत का ये दिखाई देने वाला प्रत्यक्ष प्रकार्तिक संसार के प्रति साक्षी भाव रखते हुए सभी प्रकार के कार्य करना।
दूसरा है-साक्षी भाव को धारण किये रख इस प्रत्यक्ष संसार का दूसरा प्रतिक्रिया स्वरूप जगत यानी सूक्ष्म जगत,जिसको सामान्य भाषा मे स्वप्न संसार भी कहते है,उसका ओर उसमें भी रहते उसके भी पीछे का अति सूक्ष्म संसार जिसे सुक्षमातीत संसार ,जो सूक्ष्म प्रकर्ति तत्व है,उसके प्रति भी उसे देखते हुए उससे तटस्थ रहने का अभ्यास।
स्थिर होना:-
यहां इसे ही आसन कहते है,ये हर अवस्था मे होता है-सहज सरल स्थिति में बैठकर या लेटकर भी चिंतन किया जाता है।
स्थित होना:-
उस आसन की आसान स्थिति में चिंतन करते हुए अपने अंदर के चल रहे भाव मे ही बने रहना ही स्थित रहना यानी योग की भाषा मे इसे ही पहले स्तर पर प्रत्याहार व दूसरे स्तर पर धारणा भी कहते है।
शून्य:-
इस प्रकार से आत्म चिंतन करते करते साधक एक प्रकार से बाहरी ओर आंतरिक दोनों संसार के बीच मे सिमटने लगता है,ओर तब वो बाहर के संसार के सारे विषय के देखने और उनमें युक्त या जुड़ने पर भी उनके रस यानी उनसे मिलने वाले आनन्द या विषाद का अनुभव नही करता है,यानी उसे सुख और दुख का अनुभव होना बन्द हो जाता है।ठीक ऐसे ही उसे बाहरी जगत के सभी इन क्रियाओं की प्रतिक्रिया यानी स्वप्न संसार मे भी दिखने वाले दृश्यों का भी आनन्द या विषाद या सुख दुख आदि नही रहता है।
यहां ये दो बात स्मरण रहे की-ये अवस्था मे योगी विषय शून्य की ओर अग्रसर होने पर कृतिम आनन्द की अपेक्षा सच्चे आनन्द यानी जो इन सब क्रिया ओर प्रतिक्रिया से उत्पन्न आनन्द ओर इनके नहीं होने पर दुख या अभाव रूपी विषाद है,उससे परे का मूल ओर स्थायी आनन्द से आनन्दित रहता है।
दूसरा-जब तक योगी में क्रिया करने का भाव है,की मैं इतना चिंतन आदि का नियमित अभ्यास आदि कर रहा हूं,तब तक उसमें कर्ता का भाव भी है,की मैं ही इस क्रिया का जनक ओर कर्ता ओर उपभोगता हूं,तब तक वो इस सभी प्रकार की भौतिक क्रिया ओर आध्यात्मिक प्रतिक्रिया से परे नहीं जा सकता है,ठीक इसी अवस्था के आने पर अनेक सामान्य या महान शिष्यों को एक आत्म परिश्रमी होने का अहंकार का उदय होता है।तब वो अपने गुरु के प्रति ये विचार करता है,की अरे मैं भी मनुष्य हूँ ओर ये भी,ओर मैं अनेक प्रकार से इनसे श्रेष्ठ भी हूं,तब मैं 24 घण्टे साधना करके ये सब अवस्था को पा सकता हूं,ओर इसी कर्ता भाव के कच्चे अहंकार के चलते वो शिष्य शरीर ओर उसके प्रति किये जा रहे साधना या अभ्यास के करने के भाव से परे डूब नहीं पाता है,परिणाम वो साधना में आगे नहीं बढ़ पाता है,तभी वो एक दिन थक कर अपने गुरु की शरण मे अपने को समर्पित करता है,यही उसका आत्म समर्पण ही शिष्य होने के कर्ता भाव से मुक्ति का समय होता है,ओर वो गुरु से एकत्त्व अनुभव करने को अपने अहंकार को त्याग देता है,यही भक्ति मार्ग में इष्ट के आश्रित होना या भगवान को समर्पित होने का नवधा भक्ति का अंतिम सोपान है,आत्म समर्पण।
उसे क्रिया ओर प्रतिक्रिया करते रहने के अभ्यास को अपने में एक रूप करना होगा,जैसे फूल और गंध यानी आपके सभी अभ्यास योग आपका अभ्यास नहीं रहकर, केवल आपका स्वभाव बन जाये,इसे ही जप योग में अजपा कहते है,
तब वो इस क्रिया ओर प्रतिक्रिया के अभ्यास के मध्य यानी बीच मे जो है,यानी वो ही है,उसे सही से देख ओर अनुभव कर पायेगा,तभी उसका ये ज्ञान चिंतन भी ठहरने लगेगा,उसकी ये चिंतनात्मक वर्ति भी ठहरने लगेगी,तभी इसी अवस्था को योग में संयम अवस्था कहते है।तब ज्ञान योगी को भी एक आत्म मूल बिंदु के सच्चे दर्शन होंगे।तब एक तेजोमय बिंदु के अद्धभुत दर्शन होते है,वो ही साधक का मन के दोनों पहलू अंतर ओर बाहर की धारा का मूल केंद्र की दर्शन और प्राप्ति होती है,ठीक इसी को योग में सुषम्ना के दर्शन कहते है,इसी में मन की दोनों धाराओं का लय होने लगता है।
तब वो ध्यान की उच्चतर अवस्था जड़ समाधि को प्राप्त होगा,तब उसे शरीर का भान और फिर प्राण का भान ओर आगे मन का भान होना बंद हो जाता है।
इसके बाद ही जड़ समाधि से अगली सविकल्प समाधि यानी चेतनायुक्त समाधि होती है,तब ज्ञानी को अब अपनी ओर से या किसी भी अन्य की ओर से होने वाली क्रिया या प्रतिक्रिया से उत्पन्न होने वाला चिंतन नामक अवस्था का उदय नहीं होता है,तब बस वो सभी अवस्थाओं के प्रति जागरूक रहता है।और तब उसे इस जागरूकता के कारण एक प्रबल ओर सच्ची ओर बिन प्रयत्न की एक एकाग्रता रूपी शक्ति की प्राप्ति होती है,तब उसके प्राप्त होने से,उसके सामने जो भी जड़ चेतन वस्तु,पदार्थ आदि होता है,उसके निर्माण में जो भी कर्म और क्रिया संग्लन होती है,उस सबका क्रमबन्ध ज्ञान हो जाता है,तब इस अवस्था की प्राप्ति को आत्म दृष्टि यानी अंतरदृष्टि की प्राप्ति होना कहते है,तब योगी के सामने से तीनों गुणों से उत्पन्न ये तीनों काल-भूत-वर्तमान-भविष्य और इनका भी सन्धिकाल का प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाता है।तब इसके बाद ज्ञान योगी स्रष्टा बनता है।इससे आगे ज्ञान योग की सहज समाधि होती है।जो अनुभव का विषय है।
तो भक्तो इस लेख से ज्ञान योग का बहुत सा ज्ञान पक्ष समझ मे आया होगा।
स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
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