जो ये कहते है की- बुद्ध ने कोई नवीन स्वतंत्र धर्म की रचना नही की, बल्कि उन्होंने एक दिशा एक मार्ग की और इशारा मात्र किया है। तो वे ऐसा मानने वाले दार्शनिक लोग जान ले, की जब भी कोई व्यक्ति अपना आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति करता है। तब वो या तो किसी गुरु परम्परा के अनुसार उसके नियमानुसार चलता हुआ अपने आत्मिक लक्ष्य को प्राप्त करता है। अथवा उसे कोई स्वतंत्र अपने अनुसार अपनी आत्मवृति को अपना साक्ष्य मानते हुए अपना आत्म लक्ष्य प्राप्त करता है। तब वो अपने पास आने वालो को क्या बताता है की- उसे किस तरहां आत्म लक्ष्य की प्राप्ति प्राचीन विधि से हुयी या किसी नवीन विधि से हुयी, जो उसकी अपनी कही जायेगी उससे प्राप्त हुयी है? चूँकि उसने जिस विधि से लक्ष्य प्राप्त किया, वही सम्पूर्ण थी और उसके लिए है तो वो वही बताएगा। अन्य सभी विधि का उसके लिए कोई महत्त्व नही होता है। क्योकि वे विधियां वो आजमा चूका होता है। लेकिन उनसे उसे सफलता नही मिली। और मिली होती तो वो अवश्य उनका समर्थन करता। यहां ये स्मरण रहे की वे विधियां गलत नही है। वे सभी सत्य है और वे
रहेंगी।परन्तु उनके करने वाले उनको सिद्ध करने वाले की ये विधि सत्य है वे लोग नही होते है। वे केवल उसके मार्गी होते है। यो वे विधियां असत्य और निरुपयोगी लगती है। चूँकि उस आत्मलक्ष्य प्राप्त किये व्यक्ति ने तत्काल में जो और जिस विधि से लक्ष्य प्राप्त किया है। उसी की तरहां के वे खोजी और जिज्ञासु लोग विधि को नही उस आत्मलक्षय प्राप्त व्यक्ति को प्रमाण मान उसके पास आते है। वे किसी पिछली विधि की बात नही करते और जो करते है वे वहाँ नही टिकेंगे। यो वे जानते है की वो उसके पास नही चलेगी। यो भी कहीं न कहीं उसे वे भी कर चुके होते है। तभी वे वहाँ उसकी शरण में होते है। यो उन्हें जो नियम और साधना और सिद्धि का निर्देश मिलता है, ठीक वही उनके लिए एक क्रमबद्ध नियम और कर्म और उसका परिणाम मिल कर एक आत्म उपलब्धि का धर्म बन जाता है। यही नवीन द्रष्टि ही नवीन सिद्धांतो पर आधारित नवीन धर्म बन जाता है। ठीक यही बुद्ध के साथ हुआ। उसने सब पूर्वत प्रयोग किये, वे विधि अपनायी और उन्होंने उन्हें अपनाने वाले लोगों से भेट की। और पाया की वे सब उन्ही विधियों को करते हुये भी उस आत्म लक्ष्य को प्राप्त नही हुए थे। वे उस मार्ग पर प्रयत्नशील थे। जबकि ठीक बुद्ध से साठ साल पहले ही उन्ही की तरहां एक और राजकुमार वर्धमान जो महावीर कहलाये, ने राज्यपाठ त्याग कर कठोर तपस्या कर आत्मलक्ष्य की प्राप्ति की थी। और अपना आत्म दर्शन लोगो को बताया था। और तब भी उनका ध्यान और ज्ञान उनके बाद के इन बुद्ध को रास नही आया। क्योकि उस पूर्वत विधि और उसके मानने वालो में उन्होंने वो सफलता नही देखी। यो उन्होंने अपने लिए अपना नियम और ध्यान बनाया और अपना लक्ष्य पाया। यो ही सभी आत्मसिद्धों ने कहा है की- एक समय अपना आत्मलक्ष्य का चुनाव स्वयं करना पड़ता है। यो ही अनेक ध्यान विधि बन गयी। जेसे की बुद्ध ने भी चार आर्यसत्य और अष्ट नियम बनाये जो सम्यकवाद कहा जाता है-सम्यक दृष्टी,संकल्प,वाक्,कर्म,आजीव,प्रयत्न,स्मृति और समाधि। जो पूर्वत योग नियमों का ही रूपांतरण रूप नाम था। जिसमे कुछ भी नवीन नही था। वही नामांतरण सिद्धांत बौद्ध धर्म का सिद्धांत बने।
और स्वयं का सन्यासी के गेरुवे वस्त्र धारण करना और भिक्षावृति पर रहना, ये सनातन धर्म के प्राचीन नियम ही तो थे।तब इससे क्या सिद्ध होता है, क्या नवीन विधि और नवीन धर्म हैं ? तो ये है भी और नही भी। लेकिन बुद्ध के मानने और मनवाने से ये नवीन बने और बुद्ध धर्म कहलाया। यो बुद्ध भी नवीन धर्म खड़ा कर गए।
तो जानो की संसार में जितनी भी ध्यान विधियां है। वे सब दो विषय पर बनी है-
1-शब्द-2-उसका त्याग।
हमारे सभी विचार जो की शब्दों से बने है। यो उनकी काट किसी एक शब्द या एक शब्द के क्रम समूह के निरन्तर विचार करने से होती है। इस शब्द और उसके क्रम समूह को मंत्र कहते है। यानि मन की त्रिवस्था-इच्छा-क्रिया-ज्ञान का एक होना या समिश्रण मंत्र कहलाता है। तब ये निरन्तर अर्थ सहित दोहराने के क्रम को जप कहते है। ये है मंत्र जपना। जिसकी केवल विधि यही है की जपते रहो। यो जपते जपते शब्द अन्य सारे यानि अपने से संयुक्त अथवा बाहरी दूसरे शब्दों को अपने संघर्ष से काटते हुए अंत में स्वयं को भी स्वयं में लय कर लेते है। और एक शब्दातीत शून्य अवस्था की प्राप्ति होती है। जो प्रथम समाधि अवस्था कहलाती है।ठीक यही अवस्था में योग निंद्रा नामक ध्यान अवस्था की प्राप्ति होती है,जिसे प्राप्त् करने पर प्रारम्भिक ध्यानी लोग कहते है-की मुझे ध्यान करने पर नींद आ जाती है,झटके से लगते है,माला हाथ से छूट जाती है आदि आदि बातें।ये योग निंद्रा का प्रारम्भ है। यही है शब्द से शब्दातीत होने की कर्म विधि है। जिसका दूसरा रूप ये दूसरी विधि के रूप में आगे है,ये दूसरी विधि है की समस्त विचारों को समझते और उन्हें देखते हुए उनसे उत्पन्न होने वाले कर्म यानि परिणाम को नही करना। यो धीरे धीरे वे सारे विचार अपने कर्म यानि परिणाम को प्राप्त नही होने के कारण क्षीण होते होते नष्ट हो जाते है। और जो इन सब विचारों के पीछे था, और है, वही विचारहीन होकर प्रकट हो जाता है। यही उसका प्रकट होना सत्य का प्रकट होना या आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति कहलाता है। यो इन दोनों विधियों का प्रारम्भ अलग दिखाई देता है। परन्तु दोनों का अंत एक सा है, समाधि की प्राप्ति। और यही से आगामी साधना की कड़ी का प्रारम्भ होता है। जिसमे किसी अन्य की साहयता की आवश्यक्ता नही पड़ती। और कोई साहयता कर भी नही सकता है। यो यहाँ से आगे की यात्रा अकेले करनी पड़ती है। और जो कर सकता है, वो वही होगा, जिसने तब ये यात्रा पूर्ण की होगी यानि प्रत्यक्ष गुरु। उसके जाने के बाद नही तब स्वयं करनी पड़ती है, यो गुरु है और यही से भिन्नता बनती है। और पूर्णता पर एकता बनती है। यो प्रत्येक मनुष्य को अपनी विचार प्रणाली को बन्द करने के लिए स्वयं के नियम बनाने पड़ते है। जो प्रारम्भ में भिन्न हो सकते है। परन्तु अंत में एक से ही रूप में समापन और सम्पूर्णता देते है। यो प्रारम्भ के नियम को ही समझाया जा सकता है, अंतिम के नियम को नही। क्योंकि अंतिम में कोई नियम होता ही नही है। तब तो नियम और उसकी सभी व्यवस्था और अवस्था आदि सब भंग हो चुकी होती है। यही समय होता है नियम से नियमातित होने का अर्थ और समयातीत होने का अर्थ। और चूँकि सभी साधक मनुष्य ही होते है, तब वे एक ही अंतिम अवस्था को प्राप्त होते है। वही उनके लिए आत्मसाक्षात्कार कहलाती है। और ध्यान रहे की ये सभी आत्मसाक्षात्कार उस आत्मसाक्षात्कारी के स्तर भेद से भिन्न हो सकते है। सभी सम्पूर्णता को प्राप्त हुए है। ये आवश्यक नही है, ये बड़ा कठिन ज्ञान है। यही सभी आत्मसाक्षात्कारियों का ज्ञान स्तर भेद ही नवीन धर्म और सिद्धांतो को जन्म देता है।जेसे एक ही समकाल के दो राजकुमार योगी-महावीर और बुद्ध और उनकी विचारधारा रूप उनका धर्म। जबकि ये केवल और केवल ऊपर कहे दो विधियों से ही गुजरता हुआ एक होकर पूर्ण होता है। यो इन दो विधियों को ही भाषाओँ ने भिन्न कर दिया है। अन्यथा ये मूल में एक हैं और स्थायी और सम्पूर्ण है। क्योकि आत्मसाक्षात्कार कोई नवीन वस्तु नही है। जो भी मनुष्य है, वो अवश्य आज नही तो कल अवश्य अपनी अवस्था को प्राप्त करेगा। ये निश्चित है। परन्तु कब? ये निश्चित नही है। यो यही जानने वाले को कोई नवीन धर्म नही लगेगा। यही सत्यास्मि ज्ञान और आत्ममोक्ष सिद्धि है।
यही दोनों विधियों के सच्चे स्वरूप विधि को जो हमारे सनातन धर्म की गुप्त और लुप्त हो गयी धरोहर थी,उसे सत्यास्मि मिशन ने उजागर किया और इसके सच्चे जिज्ञासुओं को प्रदान किया और उन्हें उच्चतर अनुभूतु सम्पन्न बनाया है-वो एक मात्र योग है-रेहि क्रिया योग।
इस विषय की उच्चतम ज्ञान प्राप्ति को सत्यास्मि धर्म ग्रन्थ को प्राप्त कर अध्ययन करें।
*****
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
www.satyasmeemission.org
Discover more from Khabar 24 Express Indias Leading News Network, Khabar 24 Express Live TV shows, Latest News, Breaking News in Hindi, Daily News, News Headlines
Subscribe to get the latest posts sent to your email.
Ji guru ji. Jai satya om sidhaye namah.
Jay satya om siddhaye namah