महाबली हनुमान जी के विवाह सम्बन्धी पौराणिक कथा और उसका सच्चा अर्थ बता रहे हैं-स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी…
तेलंगाना के खम्मम जिले में प्रचलित मान्यता का आधार पाराशर संहिता को माना गया है। पाराशर संहिता में उल्लेख मिलता है कि हनुमानजी अविवाहित नहीं, विवाहित हैं। उनका विवाह “सूर्यदेव की पुत्री सुवर्चला” से हुआ है। संहिता के अनुसार हनुमानजी ने सूर्य देव को अपना गुरु बनाया था। सूर्य देव के पास “9 दिव्य विद्याएं” थीं। इन सभी विद्याओं का ज्ञान बजरंग बली प्राप्त करना चाहते थे। सूर्य देव ने इन 9 में से 5 विद्याओं का ज्ञान तो हनुमानजी को दे दिया, लेकिन शेष
“4 विद्याओं” के लिए सूर्य के समक्ष एक संकट खड़ा हो गया।
शेष 4 दिव्य विद्याओं का ज्ञान सिर्फ उन्हीं शिष्यों को दिया जा सकता था जो विवाहित हों। हनुमानजी बाल ब्रह्मचारी थे, इस कारण सूर्य देव उन्हें शेष चार विद्याओं का ज्ञान देने में असमर्थ हो गए। इस समस्या के निराकरण के लिए सूर्य देव ने हनुमानजी से विवाह करने की बात कही। पहले तो हनुमानजी विवाह के लिए राजी नहीं हुए, लेकिन उन्हें शेष 4 विद्याओं का ज्ञान पाना ही था। इस कारण अंतत: हनुमानजी ने विवाह के लिए हां कर दी।
हनुमानजी और उनकी पत्नी सुवर्चला:-
जब हनुमानजी विवाह के लिए मान गए तब उनके योग्य कन्या की तलाश की गई और यह तलाश खत्म हुई सूर्य देव की पुत्री सुवर्चला पर। सूर्य देव ने हनुमानजी से कहा कि- सुवर्चला परम तपस्वी और तेजस्वी है और इसका तेज तुम ही सहन कर सकते हो। सुवर्चला से विवाह के बाद तुम इस योग्य हो जाओगे कि शेष 4 दिव्य विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर सको। सूर्य देव ने यह भी बताया कि सुवर्चला से विवाह के बाद भी तुम सदैव बाल ब्रह्मचारी ही रहोगे, क्योंकि विवाह के बाद सुवर्चला पुन: तपस्या में लीन हो जाएगी।
यह सब बातें जानने के बाद हनुमानजी और सुवर्चला का विवाह सूर्य देव ने करवा दिया। विवाह के बाद सुवर्चला तपस्या में लीन हो गईं और हनुमानजी से अपने गुरु सूर्य देव से शेष 4 विद्याओं का ज्ञान भी प्राप्त कर लिया। इस प्रकार विवाह के बाद भी हनुमानजी ब्रह्मचारी बने हुए हैं।
सत्यास्मि सत्यार्थ:-
आपने यहाँ एक ज्ञान पर ध्यान दिया होगा की हमारे सनातन धर्म में चार धर्मार्थ है-प्रथम अर्थ या ब्रह्मचर्य-द्धितीय-काम या ग्रहस्थ-तृतीय-वानप्रस्थ यानि गुरुपद-चतुर्थ-सन्यास यानि मोक्ष और यो ही चार नवरात्रि मनाई जाती है। तब अर्थ हुआ की मनुष्य की प्रथम अवस्था है- अर्थ ब्रह्मचर्य यानि जीवन के उद्धेश्य का प्रारम्भिक ज्ञान का आधार क्या है ये ब्रह्म क्या है? और उसने ये संसार किस लिए उत्पन्न किया? ये ज्ञान गुरु से दीक्षा लेकर प्राप्त करने वाले को ब्रह्मचारी यानि शिक्षार्थी कहते है। यो यहाँ हनुमान जी इस प्रारम्भिक ब्रह्मज्ञान को लेने सिखने के कारण ब्रह्मचारी हुए। ना की तथाकथित ब्रह्मचारी जो आजकल प्रचलित है। और सूर्य देव शिक्षा देने के कारण गुरु हुए और सूर्य मनुष्य की आत्मा का प्रतीक है अर्थात जो मनुष्य अपनी आत्मा का ध्यान ज्ञान प्राप्ति को करता है। वही प्रारम्भ में ब्रह्मचारी बनता कहलाता है। तब आत्मा उसे आत्मज्ञान के नो प्रश्न चक्रों का यानि नवरात्रि का आत्मज्ञान प्रदान करती है। यो आत्मा का प्रारम्भिक आत्मज्ञान का विषय या अर्थ है पंचतत्व। यही पंचतत्वों से ये प्रत्यक्ष ब्रह्मांड संसार और हमारा शरीर बना है। यो ये ही अर्थ और ब्रह्मचर्य नामक पंचतत्वी आत्मज्ञान हनुमान जी को सूर्य यानि उनकी स्वयं आत्मा ने उन्हें दिया इससे आगे का ज्ञान है। इन पंचतत्वों की सृष्टि कैसे होती है। ये है द्धितीय धर्मज्ञान जिसे काम या ग्रहस्थ धर्म कहते है। यो आत्मा सूर्य ने उन्हें इसे ब्रह्मचारी को देने को मना कर दिया। तब चूँकि जो सम्पूर्ण आत्मज्ञान पाना चाहता है। उसे इस कामकला के साथ स्त्री तत्व शक्ति के साथ कैसे आत्म व्यवहार करना चाहिए। ये सम्पूर्ण ग्रहस्थ कला सीखनी पड़ती है। जो आज गृहस्थी होकर भी कोई नही जानता है। वो काम के विकृत रूप केवल उपभोग को जानते है। प्रेमभोग को नही जानते यो आज प्रत्येक गृहस्थी चाहे प्रेम से किया विवाह हो या सामाजिक विवाह हो सुखी नही है। केवल लेन देन के व्यवहार पर ही निर्भर है जबतक ये लेन देन है, सम्बंध टिका है। यो यही आत्मज्ञान सूर्य आत्मा ने हनुमान ब्रह्मचारी को गृहस्थी होने के उपरांत दिया। अब समस्या ये थी की- जो ब्रह्मचारी है, अर्थात वो अपने को अखंडित रखना चाहता है। वो कैसे इस खंडित अवस्था में जाये और ऐसी स्त्री शक्ति कौन हो? जो उनके अखण्डित भाव को खण्डित होने नही दे ऐसी दिव्य काम कला कौन जानती हो? तब अंत में सारे संसार में खोज करने पर सूर्य की पुत्री सुवर्चला ही मिली अब यहाँ एक रहस्य देखें की ऐसी अखण्डित स्त्री शक्ति उस काल के बाहरी संसार में कोई नही थी। तब सूर्य की पुत्री सुवर्चना थी। यही है रहस्य की आत्मा के दो भाग है। पुरुष और स्त्री ऋण(-) और धन(+) और इन दोनों को मिला कर ही आत्मा एक यानि सम्पूर्ण होती है। यही आत्मा अवस्था दो खण्ड भावो के मिलने पर अखण्ड होती है। तब ये स्त्री और पुरुष नामक दो खण्ड खण्ड यानि अलग अलग अर्द्ध आत्मा मिलकर एक आत्मा बनती है। जब तक दो है तबतक दो आत्माए है। और जब ये दो आत्माए मिल जाती है तब ये एक आत्मा ही परमात्मा कहलाती है। और यही सूर्य है यही गायत्री का सविता और भर्गो है। जिससे आत्मज्ञान मिलता है। यही पूर्णिमाँ भी है। यो अब सूर्य यानि हनुमान जी की स्वयं आत्मा में स्थित एक स्त्री तत्व के साथ हनुमान जी का विवाह हुआ यानि हनुमान जी को पहले केवल एक ही तत्व का ज्ञान था जो की वे स्वयं ही पिंगला नाड़ी, ऋण यानि पुरुष थे अपनी ही आत्मा के आधे भाग का ज्ञान था। जिसे सूर्यत्त्व भी कहते है यो वे ब्रह्मचारी थे। अब उन्हें अपनी आत्मा के दूसरे भाग चन्द्रत्त्व इंगला नाड़ी, स्त्री तत्व, धन शक्ति का ज्ञान हुआ। और उनके अंतर्जगत में पुरुष तत्व और स्त्री तत्व का मेल हुआ और उनकी यथार्थ कुण्डलिनी जाग्रत हुयी और वे काम भाव से उर्ध्व हुए और यथार्थ ब्रह्मज्ञान होने से उन्हें अखंडित ब्रह्मचर्य की प्राप्ति हुयी। चूँकि उनकी ही स्त्री शक्ति उन्हीं की तरहां तपस्यारत ब्रह्मचारी थी। वही उनकी आत्मा सूर्य की पुत्री सुवर्चना थी। यो वो स्त्री सुवर्चना उनसे विवाह करने और भोग कामकला के ज्ञान व् अंतर रमण करने के उपरांत भी तपस्यारत ही रही।ये कुण्डलिनी जागरण का संसारी रूप में हनुमान जी का विवाह अर्थ है। की- केवल लंगोट बांधे वीर्य या रज को जबरदस्ती रोकते हुए एक तरफ़ा ब्रह्मचारी बने रहने पर सच्ची ब्रह्मचर्य शक्ति भक्ति की अखंड प्राप्ति नही होती है। उसके लिए किसी देवी देव की उपासना नही करनी है। बल्कि अपनी आत्मा के दूसरे भाग को भी जाग्रत करना पड़ता है। उसके लिए उस स्त्री तत्व से घृणा नही करके उसे अपनाना पड़ता है। तब दोनों एक कर आत्मा की परम् अवस्था परमात्मा यानि अखण्ड अद्धैत अवस्था की प्राप्ति होती है। यही शक्ति साधना कहलाती है। यही आत्म सम्पूर्ण ज्ञान हनुमान जी को इस कथा से दर्शाया गया है यो अपनी आत्मा का ध्यान करना चाहिए यही यहाँ इस कथा का सत्यार्थ है।
और यदि ये बात सत्य भी है की हनुमान जी का विवाह हुआ तब भी ये आत्मज्ञान यहाँ प्रकट होता है, की विवाहित रहते हुए ग्रहस्थ में किस प्रकार से अखंडित रहा जा सकता है। हम जब भी सामान्य मनुष्य बने रहते है। गुरु शक्ति दीक्षा नही लिए होते है। तबतक खण्डित ही रहते है। क्योकि गुरु की शक्ति आपको बाहरी संसार से अंतर संसार की और मोड़ती है। और हमे अपने अंतर मन से देखना सिखाती है। की हम अपने को दूसरे की आँखों से नही केवल अपनी ही आँखों से देखना सीखें की क्या सही और गलत है? हमे हम ही बताये अपनी कमियां गलतियां क्योकि हम अपने से झूट नही बोल सकते है। अपने किये को नही छिपा सकते है उस झूट का हमे सामना करना ही होगा। यो अपने को अपनी नजर से देखो तब सच दीखता है। दूसरा कुछ भी सच बताये उसमे मिलावट होगी कोई ना कोई अपनापन का भाव होने से पूरा सच नही कहा जायेगा और बताने पर भी आप भी अपनी कमियों को नही मानोगे। यो यही है हनुमान शिष्य का गुरु सूर्य आत्मा के द्धारा ज्ञान देना और ब्रह्मचर्य यानि शिक्षा काल में केवल बताया ज्ञान का पता और रटा होता है प्रयोग नही यो जो पाया है। उसे कैसे प्रयोग करें ये काम या कर्म करके ही जाना जा सकता है यही ग्रहस्थ धर्म है। “यहां ये स्मरण रहे की ग्रहस्थ का बड़ा ही व्यापक विस्तारित अर्थ है। केवल एक दूसरे से बन्ध जाना नही है बल्कि एक दूसरे को पूर्ण रूप से जानना वो भी एक दूसरे की आत्म स्वतन्त्रता को भी ध्यान में रखा जाता है। प्रेम बन्धन और एक दूसरे पर लध बोझ बन जाना नही है। की अब तो बन्ध गए साथ निभाना ही है। ये नही बल्कि हम भौतिक से अध्यात्म में काम को कैसे बदले ये प्रयोगिक ज्ञान एक दूसरे के सहयोग से देना और प्राप्त करना और अंत में अपनी ही आत्मा में ध्यान करते मुक्ति पाना ही सच्चा ग्रहस्थ धर्म कहलाता है।हमे काम भाव के नाम पर जो भोगवादी दर्शन आता है। वो केवल वीर्य और रज के रेचन यानि स्खलन तक ही हमे आता है, की बस स्खलित हो गए छुट्टी हो गया हमारा भोग यो बार बार एक ही क्रिया करते करते अंत में इन्द्रियाँ थक कर निढाल होकर नष्ट हो जाती जीवन इसी स्खलन करने होने के व्यर्थ पागलपन के भोग की प्राप्ति में नष्ट हो जाता है। और फिर यही बार बार की अतृप्ति भरे भोग की तृप्ति को पाने के लिए नए नए जन्म लेते रहते है। आज ये पति ये पत्नी कल कोई और पति पत्नी मिलते बदलते रहते अतृप्ति भरे जीवनों की जीते मरते चले जाते है। यथार्थ ग्रहस्थ धर्म जो सूर्य आत्मा ने हनुमान जी को बताया उसमें यही अर्थ प्रकट है। की आप अपने काम भोग करते हुए कैसे स्खलित नही हो, अखण्ड बने रहे और भोग का विषय और क्रिया और तृप्ति क्या कैसे प्राप्त होती है? जो अखण्ड यानि स्खलन रहित अवस्था में सदा बने रहे यही काम कला ही यथार्थ ब्रह्मचर्य कला ज्ञान है यही गुरु से प्राप्त होती है” यही आत्मा का आत्मज्ञान है।यो हनुमान जी को स्त्री छुवे या पुरुष चोला चढ़ाये उन पर कोई स्पर्श का प्रभाव नही पड़ता है वे स्पर्श भाव से परें महाभाव में स्थित है।
साक्षात् शिव के ब्रह्मचर्य स्वरूप हनुमान जी की विभक्ति भक्ति और आत्मब्रह्मज्ञान की तीन स्थितियां प्रकट होती है-जब वे अपने को सेवक दास मानते है और वे राम को अपना इष्ट मानते है तब कोहम की मैं कौन हूँ? रामास्मि सब राम ही है और जब इससे ऊपर की मध्यस्थिति होती है जिसमे समानता रूपी सखा भाव आता है तब अहम् रामास्मि अर्थात मैं ही राम हूँ मैं और राम भिन्न नही है और जब आत्मज्ञान में स्थित होते है तब अहम् ब्रह्मास्मि मैं ही सर्वव्यापि एकमात्र ब्रह्म हूँ यहाँ हनुमान सम्पूर्ण है।
यही है उनकी भक्ति शक्ति भरा गृहस्थी जीवन ज्ञान।।
यही है कृष्ण और राधा का अखंड प्रेमरास की रहस्य कथा जिसमे केवल कृष्ण ही है वहाँ राधा उनका अपना ही आत्मा का स्त्री भाग है ना की वहाँ कोई स्वतंत्र स्त्री है ये केवल पुरुष कृष्ण का ही व्यक्तिगत कुण्डलिनी जागरण और प्रेमत्त्व की प्राप्ति रास चित्र है ठीक ऐसे ही शिव और शक्ति का अर्द्धनारीश्वर चित्र है वहाँ भी पुरुष शिव का ही कुंडलिनी जागरण का चित्र है और शिव का तांड़व भी उनके भीतर का कुण्डलिनी जागरण का शक्ति नृत्य है यही शिव का शिवलिंग है जो केवल पुरुष लिंग है पुरुष का मूलाधार चक्र जहाँ कोई स्त्री नही है और जो है वो शिव पुरुष के भीतर की स्व्यंभू स्त्रित्त्व है वो सती पार्वती नही है अन्यथा शिवलिंग से शिव ही क्यों प्रकट होते है? सती पार्वती से पूर्व भी शिवलिंग था यो वो केवल पुरुष लिंग है यो उसे पुरुष उपासना नही पुरुष का केवल सहयोग लेना मात्र होगा यो यहाँ स्त्री को भी इन्ही पुरुषों की भांति स्वयं की कुंडलिनी अपने ही श्रीभगपीठ योनिमण्डल मूलाधार के आत्मध्यान से जाग्रत करके अपना ही तांडव शक्ति नृत्य और अपना ही अर्धनारीश्वरी का चित्र बनाना और स्त्रियों को समझाना होगा उनके अपने आत्मज्ञान के द्धारा स्वतंत्र स्वयंभू गुरु बनना होगा तभी उसका वास्तविक और स्थायी कुण्डलिनी जागरण होगा।
गुरु का दिया गुरु मंत्र और रेहि क्रिया योग विधि को करते हुए, इस लेख का सही से अध्ययन करने पर आपको अपने ब्रह्मचर्य जीवन से लेकर गृहस्थी जीवन में ही सम्पूर्ण चारों धर्मो का पालन करते हुए आत्मसाक्षात्कार होगा।
माँ पूर्णिमा देवी की मूर्ति स्थापना से घर की दुख दरिद्री दूर होती है। घर में शांति आती है। बिगड़े कार्य सफ़लता में बदल जाते हैं। धन, यश, वैभव, शिक्षा आदि की समृद्धि आती है। जीवन सफ़लता की ओर अग्रसर हो जाता है।
इन नवरात्रि में माँ पूर्णिमा देवी की मूर्ति स्थापना कर सकते हैं। श्री सत्य सिद्ध आश्रम बुलंदशहर से माँ पूर्णिमा देवी की प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति प्राप्त की जा सकती हैं। ये मूर्ति इतनी चमत्कारिक होती हैं कि घर की सारी दुख दरिद्रता दूर होने लग जाती है।
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-सम्पर्क सूत्र- पुजारी श्री मोहित महंत जी-08923316611
और महंत श्री शिवकुमार जी-09058996822
सत्य ॐ सिद्धाश्रम शनिमन्दिर कोर्ट रोड बुलन्दशहर(उ.प्र.)
-प्राणप्रतिष्ठित देवी प्रतिमा जो शुद्ध पीतल और स्वर्ण पालिशयुक्त है. 9 इंच ऊँची और साढ़े तीन किलों वजन की है, तथा उनका श्री भग पीठ लगभग 9 इंच लंबा अनुपाती चौड़ाई व् ढेढ़ से दो किलों वजन का है।जिसकी दक्षिणा समयानुसार 25 सौ व् भेजने का खर्चा अलग से तक बनता है।।अभी महादेवी की कृपा हेतु सम्पर्क करें।।
माँ माँ है वे बहुमूल्य है- जो मांगेगा मिलेगा।।
!!जय पुर्णिमाँ महादेवी की जय!!
इस लेख को अधिक से अधिक अपने मित्रों, रिश्तेदारों और शुभचिंतकों को भेजें, पूण्य के भागीदार बनें।”
अगर आप अपने जीवन में कोई कमी महसूस कर रहे हैं घर में सुख-शांति नहीं मिल रही है? वैवाहिक जीवन में उथल-पुथल मची हुई है? पढ़ाई में ध्यान नहीं लग रहा है? कोई आपके ऊपर तंत्र मंत्र कर रहा है? आपका परिवार खुश नहीं है? धन व्यर्थ के कार्यों में खर्च हो रहा है? घर में बीमारी का वास हो रहा है? पूजा पाठ में मन नहीं लग रहा है?
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श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येंद्र जी महाराज
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
Jai satyam siddhaye nme Swami jee
Gyan ka sahar h app
Koti naman,apko.