(भाग-1)
जीवन के इन अद्भुत रहस्यों को धयनपूर्वक पढ़ें। आपकी निराश खुशी में बदल जाएगी। जिंदगी में जो कभी न कर पाए, वो आप स्वामी जी के बताए मार्ग पर चलकर कर सकते हैं।
आज आप जानेंगे योग चांडाल का मतलब, और तांत्रिक योग पर प्रमाणिक ज्ञान।
प्रचलित भाषा में इस योग चाण्डाल का अर्थ:- निम्नतर जाति है। वेसे इसका उपयोग विजातीय को किया गया। अर्थात म्लेच्छ यानि आर्य जाति से अन्य विदेशी जाति, जिनका सिद्धांत आर्य सिद्धान्तों के विपरीत हो।यो कहा गया कि- चाण्डाल और ब्राह्मण का योग कहा गया है, जिससे गुरू को अशुद्धि प्राप्त होती है।लेकिन यहां प्रचलन के ब्राह्मण और चांडाल संगत कहना इस योग का अपमान है। मान्यता से लोग गुरु चंडाल योग को संगति के उदाहरण से समझते है। जिस प्रकार कुसंगति के प्रभाव से श्रेष्ठता या सद्गुण भी दुष्प्रभावित हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार शुभ फल कारक गुरु ग्रह भी राहु जैसे नीच ग्रह के प्रभाव से अपने सद्गुण खो देते है। जिस प्रकार हींग की तीव्र गंध केसर की सुगंध को भी ढक लेती है और स्वयं ही हावी हो जाती है, उसी प्रकार राहु अपनी प्रबल नकारात्मकता के तीव्र प्रभाव में गुरु की सौम्य, सकारात्मकता को भी निष्क्रीय कर देता है। सामान्यत: यह योग अच्छा नहीं माना जाता।ये योग जिस भाव में फलीभूत होता है, उस भाव के शुभ फलों की कमी करता है। यदि मूल जन्म कुंडली में गुरु लग्न, पंचम, सप्तम, नवम या दशम भाव का स्वामी होकर चांडाल योग बनाता हो, तो ऐसे व्यक्तियों को जीवन में बहुत संघर्ष करना पड़ता है। जीवन में कई बार गलत निर्णयों से नुकसान उठाना पड़ता है। पद-प्रतिष्ठा को भी धक्का लगने की आशंका रहती है।
लेकिन मेने अनुभव में पाया की- जब जन्म कुंडली में यदि राहु बलशाली हुए तो शिष्य, गुरू के कार्य को अपना बना कर प्रस्तुत करते हैं या गुरू के ही सिद्धांतों का ही खण्डन करते हैं। बहुत से मामलों में शिष्यों की उपस्थिति में ही गुरू का अपमान होता है और शिष्य चुप रहते हैं। यहां शिष्य ही सब कुछ हो जाना चाहते हैं, और कालान्तर में गुरू का नाम भी नहीं लेना चाहते।यो राहु और बृहस्पति का सम्बन्ध होने से शिष्य का गुरू के प्रति छल और द्रोह देखने में आता है। गुरू-शिष्य में विवाद मिलते हैं।गुरु की शोध सामग्री की चोरी या उसके गुप्त रूप से प्रयोग के उदाहरण भी मिलते हैं, धोखा-प्रपंच यहां खूब देखने को मिलेगा, परन्तु राहु और गुरू युति में यदि गुरू बलवान हुए तो गुरू अत्यधिक समर्थ सिद्ध होते हैं और शिष्यों को मार्गदर्शन देकर उनसे बहुत बडे़ कार्य या शोध करवाने में समर्थ हो जाते हैं। शिष्य भी यदि कोई ऎसा प्रयोग और अनुसंधान करते हैं, जिनके अन्तर्गत गुरू के द्वारा दिये गये सिद्धान्तों में ही शोधन सम्भव हो जाए, तो वे गुरू की आज्ञा लेते हैं या गुरू के आशीर्वाद से ऎसा करते हैं। यह इस योग की सर्वश्रेष्ठ स्थिति होती है और मेरा मानना है कि ऎसी स्थिति में उसे गुरू चाण्डाल योग नहीं कहा जाना चाहिए बल्कि इसे “क्रांति योग” “अनुसंधान योग” का नाम दिया जा सकता है,अधिकतर इस सीमा रेखा को पहचानना बहुत कठिन कार्य है,कि जब गुरू चाण्डाल योग में राहु का प्रभाव कम हो जाता है और गुरू का प्रभाव बढ़ने लगता है।ये दोनों की डिग्री के अंतर से सम्भव है।
*-कुछ कुंडलियों में गुरू चाण्डाल योग का एकदम उल्टा योग तब देखने को मिलता है, जब गुरू के साथ केतु सप्तम भाव में हो और राहु पहले भाव में हो,तब बृहस्पति के प्रभावों को पराकाष्ठा तक पहुँचाने में केतु सर्वश्रेष्ठ हैं। केतु त्याग चाहते हैं,और बाद के जीवन में वृत्तियों का त्याग भी देखने को मिलता है। केतु भोग-विलासिता से दूर बुद्धि विलास या मानसिक विलासिता यानि मॉन्टल सेक्स या अंतर रमण या सूक्ष्म शरीर से रमण करना जिसे रास भी कहते है, के पक्षधर हैं और इस कारण गुरू को,केतु से युति के कारण अपने जीवन में श्रेष्ठ गुरू या श्रेष्ठ शिष्य पाने के अधिकार दिलाते हैं। इनको जीवन में श्रेय भी मिलता है और गुरू या शिष्य अपने सिद्धांत और पंथ को आगे बढ़ाने के लिए अपना योगदान देते हैं। इस योग का कोई ज्योतिषीय नाम अभी तक नहीं है,परन्तु इसे ब्रह्मविद्य योग कहे तो उत्तम है।
*गुरु राहू योग चांडाल नहीं-नवक्रांति योग,नव अनुसंधानिक योग,वैज्ञानिक योग या मुख्यतया तांत्रिक योग है-प्रमाण:-*
जितने भी वैदिक प्राचीन ऋषि हुए है उनमे से लगभग सभी गुरु राहु चण्डाल योग से ग्रसित थे।ये प्रमाण उनके जीवन के गुरु शिष्य के परस्पर सम्बंधित घटनाओं के आंकलन करने से स्वयंमेव इस योग के गुण अवगुण से पता चलता है-उदाहरण देखे:-
*- *यहाँ गुरु और राहु की समांतर डिग्री से बने गुरु राहु का “धर्म क्रांति” योग से अत्यधिक विवाहतर सम्बन्ध और अधिक सन्तति योग और नवीन वंशावली व् गोत्र की उत्पत्ति आदि का उदाहरणार्थ- कश्यप ऋषि:-*
चूँकि ऐसा सामांतर डिग्री वाला गुरु और राहु योग में गुरु गुरुपद के साथ साथ राहु के योग से नवीन वंशावली, गोत्र और पंथो आदि की नवीन सृष्टि करता है-
कश्यप नाम के कई ऋषि हुए हैं जिनमें से एक की गणना प्रजापतियों में होती है। इस ऋषि ने दक्ष की दिति, अदिति, दनु आदि नाम की ग्यारह कन्याओं से विवाह किया था। अदिति के गर्भ से देवता उत्पन्न हुए। दिति ने दैत्यों को और दनु ने दानवों को जन्म दिया। कश्यप एक गोत्र का नाम भी है। यह गोत्र इतना व्यापक है कि जिसके गोत्र का पता नहीं चलता, उसका गोत्र कश्यप मान लिया जाता है क्योंकि सभी जीव-धारियों की उत्पत्ति कश्यप से ही मानी जाती है।
*-कश्यप ने दक्ष प्रजापति की 17 पुत्रियों से विवाह किया। दक्ष की इन पुत्रियों से जो सन्तान उत्पन्न हुई उसका विवरण निम्नांकित है –
*-अदिति से आदित्य (देवता)
*-दिति से दैत्य
*-दनु से दानव
*-काष्ठा से अश्व आदि
*-अनिष्ठा से गन्धर्व
*-सुरसा से राक्षस
*-इला से वृक्ष
*-मुनि से अप्सरागण
*-क्रोधवशा से सर्प
*-सुरभि से गौ और महिष
*-सरमा से श्वापद (हिंस्त्र पशु)
*-ताम्रा से श्येन-गृध्र आदि
*-तिमि से यादोगण (जलजन्तु)
*-विनता से गरुड़ और अरुण
*-कद्रु से नाग
*-पतंगी से पतंग
*-यामिनी से शलभ
*-भागवत पुराण, मार्कण्डेय पुराण के अनुसार कश्यप की तेरह भांर्याएँ थीं। उनके नाम हैं-
*-दिति
*-अदिति
*-दनु
*-विनता
*-खसा
*-कद्रु
*-मुनि
*-क्रोधा
*-रिष्टा
*-इरा
*-ताम्रा
*-इला
*-प्रधा।
*-और इन्हीं से सब सृष्टि हुई।
यो जिसका कोई गोत्र नहीं होता है,वो नवीन वंश इस कश्यप ऋषि से सभी उत्पन्न हुए है यो अपना कश्यप गोत्र अपना लेता है।
* *-गुरु राहु योग:-गुरु के शिष्य उसे धोखा देते है और पत्नी भी धोखा देती है-उदाहरण:-*
वेदोत्तर साहित्य में गुरु के प्रथम अर्थ प्रदान करने वाले और गुरु पद पर सर्वप्रथम प्रतिष्ठित होने वाले गुरुदेव- बृहस्पति को देवताओं का पुरोहित माना गया है। ये अंगिरा ऋषि की सुरूपा नाम की पत्नी से पैदा हुए थे।इनके तीन पत्नियां- ममता तथा तारा और शुभा है। एक बार सोम (चंद्रमा) तारा को उठा ले गया। इस पर बृहस्पति और सोम में युद्ध ठन गया। अंत में ब्रह्मा के हस्तक्षेप करने पर सोम ने बृहस्पति की पत्नी को लौटाया।गुरु पत्नी वापस तो आ गयी पर इससे क्या हुआ?-तब चन्द्रदेव और तारा के संयोग से बुध का जन्म हुआ। जो चंद्रवंशी राजाओं के पूर्वज कहलाये।
*-गुरु राहु योग से भाइयों से विवाद रहता है और अपनी विद्या का छल में भी उपयोग करता है:-*
महाभारत के अनुसार बृहस्पति के संवर्त और उतथ्य नाम के दो भाई थे। संवर्त के साथ बृहस्पति का हमेशा झगड़ा रहता था। पद्मपुराण के अनुसार देवों और दानवों के युद्ध में जब देव पराजित हो गए और दानव देवों को कष्ट देने लगे तो बृहस्पति ने शुक्राचार्य का रूप धारणकर दानवों का मर्दन किया और “नास्तिक मत” का प्रचार कर उन्हें धर्मभ्रष्ट किया।
*-बृहस्पतिदेव ने धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र और वास्तुशास्त्र पर ग्रंथ लिखा।
*-गुरु राहु योग में भोगतुर योग बनने से अधिक विवाह और सन्तति योग भी बनता है:-*
*-देवगुरु बृहस्पति की तीन पत्नियाँ हैं, जिनमें से ज्येष्ठ पत्नी का नाम शुभा और कनिष्ठ का तारा या तारका तथा तीसरी का नाम ममता है। शुभा से इनके सात कन्याएं उत्पन्न हुईं हैं, जिनके नाम इस प्रकार से हैं – भानुमती, राका, अर्चिष्मती, महामती, महिष्मती, सिनीवाली और हविष्मती। इसके उपरांत तारका से सात पुत्र और एक कन्या उत्पन्न हुईं। उनकी तीसरी पत्नी से भारद्वाज और कच नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए थे।
*और उदाहरणार्थ-गुरु परशुराम और गुरु द्रोणाचार्य की गुरु परम्परा में ये योग का प्रभाव देखा जा सकता है की:-*
जिस कुंडली में विशेषकर लग्न या पंचम घर में राहु गुरु का चांडाल योग में सूर्य का योग हो,यहाँ चाहे सूर्य उच्च हो और यहां राहु अपनी डिग्रियों से सूर्य और गुरु से शक्तिशाली हो तो यहाँ सूर्य राहु से ग्रहण योग बन गया है,ऐसे योग सहित चांडाल योग के चलते-उस गुरु के शिष्य अपने गुरु से सीखी विद्या का उपयोग अपने गुरु पर ही करते है।क्योकि गुरु यहाँ अपने साथ राहु के योग होने से नीच के गुण लिए होता है यानि उसमें अपने गुरु कर्तव्य के जितने उच्चतर स्तर है इनमें उतना उत्तीर्ण नहीं होता जितना की उसकी सामर्थ्य होती है और ये विषय इन दोनों महान गुरुओं के जीवन में महाभारत में आये इनके शिष्यों द्धारा इन्ही से सीखी विद्या का उपयोग इन्ही के विपरीत करके उन्हें पराजित और म्रत्यु प्रदान की थी।अर्थात भीष्म ने परशुराम की लगभग पराजित ही किया था और कर्ण ने इनसे झूठ बोलकर विद्या प्राप्त कर युद्धनीतियों के विरुद्ध उपयोग कर स्वयं भी म्रत्यु को प्राप्त हुए।
ऐसे ही द्रोणाचार्य भी परशुराम के ही शिष्य थे और पांडवो और कौरवों के गुरु रहे तथा इन दोनों ने अपने गुरु द्रोण से विद्या सीख इनके पक्षीय आचरण के चलते इन्हीं के विपरीत युद्ध में उपयोग किया जिससे इन्हें अनेक बार अपने शिष्य दुर्योधन से अपमानित और अंत में युद्ध में म्रत्यु की प्राप्ति हुयी।
*-और जितने अघोरी गुरु-वाराणसी के बाबा कीनाराम छत्रिय वंशी चैत्र माह 1601ई. आदि हुए वे भी इस कथित वैदिक सिद्धांत विरोधी योग यानि गुरु राहु चण्डाल योग से प्रभावित थे।
*-और जितने वाममार्गी साधना के सिद्ध रहे-जैसे-रामकृष्ण परमहंस की गुरु भैरवी ब्राह्मणी जो चौसठ तंत्र में सिद्ध थी और उन्होंने रामकृष्ण को पंचमुंड आसन ओर दिगम्बर स्थिति में कन्या की गोद में बैठकर समाधी लगाने और खुली आँखों से दो स्त्री पुरुष को सम्भोगरत स्थिति में देखने से ब्रह्म रमण की ज्ञान प्राप्ति करायी और उन्ही के दो शिष्य-चन्द्र और गिरजा भी इसी योग से पहले कुछ भ्रष्ट हुए,बाद में रामकृष्ण की संगत से उच्च योग में प्रतिष्ठित हुए और उसी काल के गोरीशंकर की सिद्धि व् वैष्णवचरण का वाममार्गी अखाडा आदि में परस्त्री भोगी होने से ही चौसठ तंत्र में सिद्धि प्राप्त की थी।
ये तांत्रिक योग है और इसके तीन विभाग है:–1-निम्न-2-मध्यम-3-उच्च।।
*- अति प्राचीनकाल में एक समय था,जब मनुष्य को ईश्वर से सीधा ज्ञान मिला था या यो कहो की-वे आत्मज्ञान से परिपूर्ण थे और यही घोषणा वेद करते है की-अपनी आत्मा को जानो यही सारा “ब्रह्मज्ञान” है।इस ब्रह्म ज्ञान में ज्ञान और प्रयोग ही मुख्य विभाग थे की-जो भी मन की इच्छाएं है,उनका दमन नहीं करके इन्हें पूर्ण करो क्योकि आत्मा का जन्म ही प्रत्येक प्रकार के आनन्द और उसकी प्राप्ति को हुआ है।यो संछिप्त में कहूँगा की- जिस मनुष्य को जिस विषय में चित्त की एकाग्रता हुयी और उससे उसे अपने मन को अंतर्मुखी करने में सहायता मिली वहीं विषय का एक क्रम कालांतर में बनता गया और वो ही एक साधना से सिद्धि का मार्ग और पंथ बन गया।
ज्यों सिद्धि के लिए तीन क्रम योग है-1-पूर्वजन्म में की गयी साधना का शेष ज्ञान और उसका प्रयोग।
-2-औषघि से सिद्धि पथ:- संसार में मनुष्य के साथ अन्य जीव व् प्रकर्ति और पदार्थ की भी सृष्टि हुयी।जिसका एक दूसरे से गहरा और पूर्ण सम्बन्ध है और ये सब एक दूसरे के पूरक भी है-जैसे-हमारे भोजन का विषय विभिन्न जीवों मांसाहार से लेकर धान्य और वृक्ष आदि है और इनका पृथ्वी से पोषण है और धान्य और वृक्षों व् हमारे मृत शरीर को भोजन के रूप अनेक अनगिनत सूक्ष्म वेक्टीरिया खाते है।कुल मिलाकर सब एक दूसरे के भोजन यानि सृष्टि के और मृत्यु के कारण भी है,यही सृष्टि चक्र और उसकी पूर्णता है।जैसे-दिन और रात्रि की समान उपयोगिता है।यो कुछ भी वैध या निषेध यानि सही और गलत नही है।जिसको जो चाहिए उसका उपयोग कर अपनी सम्पूर्णता पाता है।
3-स्वयं के अभ्यास से सिद्धि पथ प्राप्ति:-
पूर्व जन्म के सभी कर्म और उसके फल से लेकर आगामी वर्तमान जन्म में मिले पूर्वजन्म के शेष कर्म के करने से कर्म और उसका फल और अतिरिक्त और नवीन कर्म से भविष्य में हमें कर्म और फल की प्राप्ति।यो एक क्रम है।तभी शास्त्रों में एक मात्र कर्म को ही प्रधानता दी है।यो इस कर्म को जानकर उसको सही से अपना कर की मेरे लिए ये सही है और ये उपयोगी नहीं है और अपने लक्ष्य की प्राप्ति की जाती है।जैसे-शुगर के मरीज को मीठा विष का कार्य करता है।तो वो उससे चिढ़ेगा नहीं,बल्कि उसकी मात्रा कम करेगा अथवा उसको त्याग देगा।यो ही सारी साधनाओं और सिद्धि का सार है।कैसे भी अपने चित के दो भाग-1-शाश्वत ज्ञान यानि अनादिकाल से प्राप्त हमारी आत्मा को ज्ञान है-की मैं कौन हूँ आदि,तभी तो हम उस ज्ञान को प्राप्त कर पाते है अन्यथा हमें ज्ञान ही नहीं हुआ होता,तो हम कैसे उस ज्ञान को पा सकते है,जो है ही नहीं,यो योगी और वेद कहते है की-केवल अपनी आत्मा को जानो और उसी का ध्यान करो,उससे सभी कुछ प्राप्त होगा और -2-इस आत्मा के उसी ज्ञान को बारम्बार प्राप्ति के विषय को लेकर आनन्दमयी प्रयोग और उपयोग।जैसे-हम एक ही प्रकार के खाने को विभिन्न अन्य पदार्थ मसाले आदि डालकर स्वाद लेकर बारबार खाते और तृप्त होते है।
यो योगियों ने अपने मन चित्त को अंतर्मुखी करने के अनेक मार्ग निकाले-1-जो इस विद्या को जानता है-उससे साहयता लेनी यानि शक्तिपात योग।
2-प्रत्येक मनुष्य में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष शक्ति के दो विभाग है-ऋण और धन-जिन्हें हम साकार रूप में स्त्री और पुरुष तथा सूक्ष्म रूप में गर्म और ठंडा-सूर्य और चन्द्र आदि कहते है।यो इनका परस्पर भोग यानि कर्म और उसकी क्रिया तथा योग यानि जो कर्म और उसकी क्रिया करने से प्राप्त हुआ है,उसका सही से उपयोग और उपभोग करना।यहाँ वाम माने अपने से विपरीत शक्ति की साहयता लेना है-जैसे-स्त्री के लिए पुरुष और पुरुष के लिए स्त्री।और उत्तर माने ठीक यही गुरु और शिष्य का सम्बन्ध जिसमें एक दूसरे के अंतर बहिर भोग और योग से दोनों एकाकार होकर अभेद अवस्था की प्राप्ति करने की सिद्धि।यो ये ज्ञानात्मक प्रयोग पथ ही भोग से योग और सम्भोग से समाधि की साधना और सिद्धि का पथ है।यहाँ सहयोगी साथ नहीं दे रहा तो कोई बात नहीं आप जो भी आपकी इस विचारधारा में अपनी और अपनी आत्म उन्नति को संग साथ दे,उसका सहयोग लेकर आगे बढ़ते जाओ।
यो ही ओषधि के उपयोग से अपने मन चित्त को अंतर्मुखी एकाग्र करते हुए समाधि प्राप्ति करनी,यो ही ये सुल्फा,चरस,भाँग या सामान्य तंबाखू की भरी चिलम पीना-इसके सबसे बड़े सिद्धि प्राप्ति के अनगिनत उदाहरण है,जिनमें वर्तमान में शिरड़ी के साई बाबा थे,जो दिन में अनेक बार चिलम पीते रहते थे,सोचो-जिस व्यक्ति में समाधि प्राप्त कर ली हो,उसे चिलम पीने की क्या आवश्यकता ?? और प्राप्ति के बाद उस चिलम की क्या आवश्यकता ??।
तो यो जाने की एक आत्म अवस्था पर जब व्यक्ति तत्वों की साधना करके परमतत्व की प्राप्ति कर स्थिर हो जाता है,तब वो इस प्रकर्ति में मृत्युंजय हो जाता है,स्मरण रहे इस प्रकर्ति में,नाकि शाश्वत अमरता में मृत्युंजय होता है।क्योकि वहाँ कोई अमर नहीं है।ये विषय फिर कभी कहूँगा।
तो ऐसे ही शव साधना आदि के द्धारा अपने अंदर के समस्त भयों के कारण जानकर और अपनी म्रत्यु के कारणों और उसकी दशा को जानकर उस पर उसी अवस्था को देखते समझते हुए साधना करने से आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति होती है-ये अघोर पंथ है यानि घृणा से परे या आत्मा की सहज अवस्था जो सभी कर्मो और उसकी क्रिया प्रतिक्रिया के करने से परे रहना ही अ+घोर= अघोर है।केवल साक्षी बने रहना ही अघोर है।
कुछ अपने गुण आवशयक्ता के अनुसार कोई ओषधि(किसी पोधे या वृक्ष की जड़-तना-पत्ते-फूल-बीज) को लेकर उसमें अपने मनोयोग को एकाग्र करके इसमें वो परिवतर्न करते है-जैसे- आयुर्वेद में धतूरे या सर्प के ही विष को रूपांतरित करके जीवनदायनी विष निवारण दवाई बनाई जाती है।ठीक ऐसे ही योग उस प्रकार्तिक ओषधि में अपना मन का संयम् करके उसमे परिवतर्न करके फिर उसे अपनी जीभ या कांख में रखकर या खा कर अपने शरीर के जो 24 तत्व है उनमें उसे मिलाकर अंदर से परिवतर्न करके इस प्रकर्ति के भौतिक नियम को तोड़ता है और इस प्रकर्ति के सूक्ष्म संसार पर अधिकार करता है।क्योकि यहाँ योगी भी मनोमय शरीर में स्थित है और प्रकर्ति भी मनोमय शरीर में स्थित है,अब दोनों मिलकर एक होकर योगी के मनोवांछित सफलता जिसे सिद्धि कहते है,उसे प्राप्त करते है।यो यहां ये संछिप्त योग सूत्र बताया है।
और यहाँ योगी का मन का संयम् करना ही “मंत्र” यानि योगी की जो मनोकामना है-उसका एक क्रम यानि सिस्टम से ध्वनि योग से उपयोग करना ही नामक “मंत्रविद्या” का उपयोग कहलाता है।
और जो केवल अपने ही शरीर में स्थित प्राणों के शरीर में इकट्ठा हुए और वहां से गति करने वाले स्थान यानि चक्रों में ही अपने मन की शक्ति को एकाग्र करके उस स्थान में स्थित 24 या 64 तत्वों को जाग्रत करके अपने अनुकूल करके उपयोग लेते है,वे भी प्रकर्ति के प्राणमय कोष में प्रवेश करके चमत्कार करते है,उन्हें किसी ओषधि की आवश्यकता नहीं पड़ती है,वे अपने में ही जो विश्व प्रकर्ति है उसपर अधिकार करने कला का विकास करते है यो ये विद्या योग विद्या कहलाती है।
और जो योगी अपने विपक्ष यानि स्त्री या पुरुष को अपने योग जीवन के लक्ष्य को चुनकर एक दूसरे की सहमति से भोग ओर् योग करते है,उन्हें ही यथार्थ ग्रहस्थ योग कहा जाता है।जिसका विकृत और अपूर्ण ग्रहस्थ जीवन आज संसार में दिखाई देता है।जो एक बोझ से भिन्न कुछ नहीं है।यो यहाँ एक स्वतन्त्रता होती है,जो केवल साधना का ही विशेष ज्ञान और क्रिया का पक्ष है की-यदि हमारा साधनगत सहयोग एक दूसरे की साधना में विशेष उन्नति नहीं दे रहा है और समझ नही आ रहा है की इससे आगे क्या और कैसे जाये? तो जिससे से इससे आगे जाने में साहयता मिले उसका संग लो..यो ही प्राचीन ऋषियों की अनेक पत्नियां होती थी ताकि उनमें व्याप्त तम् या रज या सत् गुण की साहयता और सहयोग से साधना में आगे बढ़ा जा सके,चूँकि उन स्त्रियों का भी यही उद्धेश्य होता था,यो वे सम्बन्ध विच्छेद नहीं करके उस पुरुष ऋषि के साथ ही रहती हुयी उसके किये गए साधनगत प्रयोगों को जानकर अपनी भी आत्म उन्नति करती थी।यो वहां ये सौतन आदि का विवाद नहीं था और जो था भी तो-वो स्त्री शक्ति को सिद्धि प्राप्ति के उपरांत उनके सन्तान आदि के इस संसार और प्रकर्ति में अधिकारों को लेकर था-जैसे-देव और दैत्यों की माताओं का विवाद था।यहां पति से विवाद कम ही था।
*- ये है-सच्ची ग्रहस्थ धर्म रूपी वाममार्गी साधना का सत्य रहस्य।जो यहां संछिप्त में कहा है।*
*- *गुरु का अर्थ है:-*
प्रत्येक आत्मा की वो-इच्छा+क्रिया+ज्ञान= आत्मसाक्षात्कार।जिसके क्रम को यथाविधि जानकर आत्मा पर जो बारम्बार आनन्द प्राप्ति का विषयी आवरण है जिसे सामान्य भाषा में-अज्ञान या मल या दोष या अंधकार कहते है।उसका निराकरण करके आत्मा को उसकी यथास्थिति में प्रकाशित करना।ये अर्थ है-गुरु।और जो ऐसा करने में सक्षम और साहयक है-वही गुरु कहलाता है।
अब गुरु के भी तीन भेद है:-
1-उपगुरु-जो किसी गुरु से ज्ञान पाकर उसकी चलाई परम्परा को बिना उसमें कोई नवीन प्रयोग किये,उसे अन्य ज्ञान जिज्ञासुओं के यथाविधि देता रहे।अर्थात परम्परावादी गुरु।
2-गुरु-जो अपने गुरु से पायी विद्या ज्ञान में अपने भी देशकाल परिस्थितियों के चलते नवीन संशोधन करके उसे अपने उस गुरु पंथ में आये जिज्ञासुओं को ज्ञान देना।
3-जो ऐसा गुरु ज्ञान प्राप्ति के उपरांत उसमें पूर्ण दक्षता या आत्मसिद्धि प्राप्त कर अपने गुरु और स्वयं को एकाकार करके ये जान ले की-केवल एक आत्मा ही परमात्मा अवस्था में स्थित होकर एक गुरु है।वो स्वयंभू गुरु कहलाते है।उन पर गुरु परम्परा के तोड़ने का अथवा गुरु का नाम नहीं बताने का अथवा अपने माता पिता कुल आदि के नाम नहीं बताने का कोई दोष नहीं लगता है।
क्योकि वे जान जाते है-वेद और गीता में वर्णित ब्रह्मवाक्य की-मैं ही अपनी प्रकर्ति को अपने वशीभूत करके स्वंजन्मा हूँ।अर्थात ना कोई मेरा पिता है और न माता और न कोई गुरु।मैं ही आदि मध्य और अंत और शेष हूँ।
यो ये ही सच्चे गुरु कहलाते है।
ये सदा जो अनादि आत्म साधना का पथ था, उसे ही पुनर्जीवित करके समाज में जो एक ही क्रम को करते करते हुए निष्क्रियता शून्यता और अनन्दविहीनता या ठहराव आ चूका होता है,उससे अपने से प्रकट करके समाज के उत्थान और उस शाश्वत आनन्द को देते है।यो ये परम्पराएँ तोड़ते लगते है और नवीनता यानि जिसे अपनी चलानी कहते है उसे लागु करने के कारण इन्हें प्रारम्भ में भृष्ट, अहंकारी आदि कहा जाता है।यो इनके प्रयोगों को चली आ रही परम्परागत गुरु साधना को तोड़ने से इन्हें ही गुरु के विपरीत चलने वाला यानि चण्डाल,अघोरी,तांत्रिक आदि कहा जाता है।
*-ये परिवतर्न का कार्य-ही राहु का मूल कार्य है।*
पुरुष की साधनागत खोजों में प्राथमिकता और प्रधानता के चलते स्त्री शक्ति का उपयोग भर होने से जो स्त्री इस विषय में स्वतन्त्र साधनागत खोज के प्रयोगों में उस पुरुष से सन्तुष्ट नहीं थी।ऐसे ही पुरुष भी उन दोनों ने अपनी स्वेच्छा से स्वतन्त्र मार्ग और अपना स्वतन्त्र साधनागत सहयोगी का साथ लेकर निकट या सदूर साधना स्थली बनाई और उन्हीं लोगों के आगे चलकर उस सिद्धांत में स्त्री का वर्चस्व जेसे-आसाम आदि क्षेत्रो में है।और उत्तर भारत आदि में पुरुष का वर्चस्व और उनकी परम्परा चली और जो समय अनुसार साधना पक्ष को भूलकर केवल भोगवादी सहयोगी और परम्पराओं के निर्वाह रूपी गृहस्थी जीवन में बदल का वर्तमान तक प्रचलित है।
*- मनुष्य की तरहां ही इस प्रकर्ति के भी स्थूल से सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म में 7 स्तर है*
*- राहू क्या है विश्लेषण:-*
राहू ग्रह छाया ग्रह है,जो की काल यानि समय का प्रारम्भ है और यहाँ से काल यानि समय का प्रारम्भ होकर आगे बढ़ता हुआ एक वृत बनाता हुआ,अंत में इसी में यानि जहाँ से प्रारम्भ हुआ था,उसी में समाहित या अंत या विलय हो जाता है,यो इस प्रारम्भ के बिंदु को राहू कहते है और इस प्रारम्भ यानि जो मूल बीज है या बिंदु है उसमें जो ऋण और धन शक्तियां है,उनका जब स्वतन्त्र होकर प्रतिआकर्षण बल लगने से प्रस्फुरण या उत्पत्ति का होकर आगे बढ़ाना प्रारम्भ होता है और वो बढ़ते बढ़ते एक वृतकार बनता है तो इस वृत के इस प्रारम्भ से अंत तक की रेखा जब अपने अंत पे पहुँच कर प्रारम्भ में विलय होती है तब के इस बिंदूँ को ही केतु कहते है।और ये परस्पर विलय होकर एक पूर्ण वृत्त बनाते है वो ये विश्व है।या इस वृत को देखे तो ये एक बीज की आक्रति ही है।यो ये दो बिंदु होते हुए भी नही है,यो इन्हें छाया बिंदु या ग्रह कहते है।राहु ही मूल बीज के सृष्टि होने के समय का प्रारम्भिक क्षण और बिंदु होने से सबसे महत्त्वपूर्ण अर्थ रखता है,क्योकि इसी से प्रारम्भ है और अंत भी।यो इसका सभी आगामी बिंदुओं पर सम्पूर्ण प्रभाव होता र रहता है और इससे समय का कोई क्षण या बिंदु अलग नहीं है।जेसे की-जब घड़ी में सुई1बजे के क्षण से 2 बजे के बिंदु पर पहुँचती है,तब पहले 1पर रूकती है फिर 2 तक बिन रुके चलती है और फिर 2 बजे के बिंदु पर रूकती है।यो ये रुकना और रुककर फिर बढ़ना ही राहु का कार्य है।यो तभी राहु को संसार और प्रकर्ति में जितने भी परिवतर्न और क्रांति आदि के छोटे से बड़े क्षणों तक पर अधिकार होता है यो राहु की महादशा 18 साल की होती है और राहु को यो ही सभी प्रकार की खोजों और रहस्यों का स्वामी कहा गया है,बस केतु तो इसी राहु का धड़ या क्रिया शरीर है।बिन राहु के वो कुछ नहीं है।यो राहु को सभी सूक्ष्म से स्थूल तक के विचारों और उनके प्रवाह और प्रभाव का स्वामी माना गया है।
यो कोई भी ग्रह राहु के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकता है,यो प्रत्येक ग्रह की उत्पत्ति इसी राहु रूपी क्षण से हुयी और इसी में समापन होगा।यो घड़ी में भी तीनों सुइयां त्रिगुण का प्रतीक है-तम्(पुरुष)-रज(दोनों गुणों की क्रिया और बीज)-सत(स्त्री) है।और इन तीनो सुई के जुड़ने का मूल बिंदु राहु है और उस सुई का मध्य केतु और सुई का अंतिम छोर बिंदु भी राहु ही है।यो विश्व में जो भी गति हो रही है,वो राहु की वजह से है।यही जब 12 बजे पर तीनों सुई मिलती है तब तीनों के एक सीध में हो जाने पर एक महालय यानि पूर्ण विलय की घटना घटती है,यही मूल त्रिसुइ का मिलन का एक होना ही महाक्षण कहलाता है यो ये महाक्षण भी राहु है जो होता भी है और नहीं भी और फिर होता है।यानि लय+विलय+स्थिर+स्थित +सृष्टि।
क्रमशः
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यह इस लेख का भाग 1 है। शेष अगले भाग में पढ़ें।
श्री सत्यसाहिब
स्वामी श्री सत्येन्द्र जी महाराज
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