सत्य-प्रेम पूर्णिमाँ-व्रत-30-3-2018 की व्रत कथा
👉जब सनातनी वेद ये कहने में असमर्थ अनुभव करने लगे की जब सत् असत् भी नही था तब एक शून्य था उसमे विक्षोभ हुआ और उससे एकोहम् बहुस्याम का घोष हुआ और तब ये जीव जगत की सृष्टि जन्मी तब इस अद्धभुत संसार का धर्म कर्म जीवन प्रारम्भ हुआ जिसके सभी धर्मो में केवल चार पुरुषवादी युग सतयुग,त्रेतायुग,द्धापर युग और कलियुग की घोषणा को मान्य किया और समस्त जगत में स्त्री शक्ति को केवल भोग विलास का दास्य मनुष्य ही माना और धर्म में साधना में पुरुषवादी सिद्धि की प्राप्ति को उपयोगी सहयोगी मान केवल शब्दों में सम्मान दिया या त्यागियों ने इसे नरक का द्धार मान त्यागने पर ही बल प्रचारित किया जो आजतक है उन्होंने इस महाज्ञान की और ध्यान ही नही देना चाहा की जब सृष्टि करने में और उसे पलने में पुरुष से अधिक कौन महान व् दायित्त्व भरी है जिसकी ये पुरुष उपेक्षा करता है वो स्त्री है वो भी उसी की भांति सम्पूर्ण है वह भी अनादि और सम्पूर्ण शक्ति है जो तब वेद के उस शून्यकाल में भी थी आज भी है और सदा रहेगी जिसकी पुरुषवादी शास्त्र व्याख्या ही अनर्थहीन की है तब जो सबसे प्रथम भगवान सत् और असत् की एक अवस्था के रूप में अकेले “सत्य” दिखाए है जिनका धार्मिक नाम “सत्यनारायण” कहलाता है जिनकी त्रिगुण सन्तान ही ब्रह्मा,विष्णु,शिव है तब इस सत्यनारायण भगवान ने क्या पुरुष होकर ही अपने से ये सारी स्त्री और पुरुष रूपी मनुष्य सृष्टि उतपन्न कर ली जो की शास्त्र सम्मत नही है तब जिस महातत्व स्त्री शक्ति की उपेक्षा की है वही उसी स्त्री ने ही ये त्रिगुण त्रिदेवों को जन्मा है और ये सम्पूर्ण सृष्टि को जन्मा है वो ही सत्य की अर्द्धाग्नि शक्ति सत्यई महामाया महादेवी है जिनका भौतिक जगत नाम प्रकर्ति और पृथ्वी भी है और जगत में जो सूर्य का अग्नि ताप है उसे मनुष्य प्राणी के लिए शीतल करती है तब जो शीतल प्रकाश का निर्माण होता है वही शीतलता लिए सम्पूर्ण प्रकाश शक्ति का नाम पूर्णिमा है जिसे पूरी माँ कहते है ऐसा प्रत्यक्ष नाम किसी अन्य देवी का नही है क्योकि सभी दैविक स्त्री शक्ति इन्ही पूर्णिमा से जन्मी है जिनका एक भाग पुरुष के भौतिक शरीर में स्त्री तत्व इग्ला नाड़ी यानि चन्द्र स्वर शक्ति के रूप में सदा बना रहता है पुरुष के अंदर का यही स्त्री गुण शक्ति ही पुरुष को स्त्री शक्ति को बीजदान करने को रेचित करता है वो भी जब जबकि स्त्री शक्ति उसे अपनी और आकर्षित करती है यो शास्त्रों में इस महाज्ञान का उल्लेख किया है की प्रकर्ति ही मूल ब्रह्म को अपने आकर्षण से चैतन्य करती है उससे सृष्टि के लिए जीव का बीज ग्रहण करती हुयी भोग करती है और उस पुरुष को पिता बनती हुयी अंत में स्वयं के प्रेम बन्धन से मुक्त करती है तभी मूल ब्रह्म पुरुष अपनी योगनिंद्रा में लीन होता है जबतक की स्त्री शक्ति उसे पुनः यही सृष्टि की उत्पत्ति को पहले की तरहां चैतन्य नही करती यो स्त्री शक्ति सदैव कार्य रत रहती है वह स्वयं बंधन और मुक्ति है यो वही यथार्थ जीवन शक्ति कुंडलिनी आदि सम्पूर्ण शक्ति है यो वो जीव के प्रथम आत्मघोष मैं को अहंकार रहित और उपयोगी अपनी शक्ति मातृत्त्व प्रदान कर बनती है तभी जीव मैं भूल माँ शब्द बोलता है यो यही सम्पूर्ण माता ही मूल स्त्रिशक्ति पूर्णिमाँ महादेवी है
दुर्गा सप्तशती वर्णित देव और दैत्य पुरुष विरुद्ध पुरुष युद्ध् में जिस महाशक्ति का अवतरण पुरुष ने अपनी आत्म शक्ति के एक भाग स्त्री शक्ति को एकत्र किया था वो मूल स्त्री शक्ति महावतार पूर्णिमाँ देवी ही है चूँकि पूर्वत स्त्री शक्ति शाक्त ग्रन्थ दुर्गासप्तशती में केवल सभी ग्रन्थ लेखन कर्ता मार्कण्डेय ऋषि से ग्रन्थ कथा वक्त ब्रह्मा शिव आदि तक पुरुष है और वहाँ केवल कोई श्रोता है तो वो स्त्री पार्वती है यही प्रमाण है की यदि पार्वती दुर्गा या मूल स्त्री शक्ति होती तो वो ही इस दुर्गासप्तशती की कथाकार होती जो की यहाँ है नही यो ही वो महावतार स्त्री शक्ति पूर्णिमाँ देवी ही है और इन्ही की सोलह कलाओं में से दस कलाओं का नामार्थ व् भावार्थ ही काली से कमला तक दस महाविद्या है जिनका ज्ञान अर्थ इस प्रकार से है की-स्त्री और पुरुष की एक दूसरे के प्रति प्रेमपूर्वक समर्पण की दस अवस्थाओं को तंत्र यानि क्रमबद्ध विधि में दस महाविद्या कहा गया है जो इस प्रकार है की जब स्त्री पुरुष का परस्पर आत्मसमर्पण होने पर काल मिट जाता है तब प्रेम की प्रथम अवस्था “काली” कहलाती है और जब दोनों एक दूसरे को एक दूसरे का तारक या पूरक का आधार मानते है तब प्रेम की ये द्धितीय अवस्था “तारा” कहलाती है और जब प्रेम समर्पण में एक दूसरे के प्रति सभी नकारात्मक भाव मिटते जाते है दोनों का अहं भाव रूपी मस्तक समाप्त हो जाता है अहं रहित शीष रहित ये प्रेम की तृतीय अवस्था ही “छिन्मस्ता” कहलाती है तथाजब दोनों एक दूसरे को तन और मन का ये संसारी भौतिक व् आत्मिक शरीर यानि भुवन का प्रेमदान करते है तब ये प्रेमदान की चतुर्थ अवस्था ही “भुवनेश्वरी” कहलाती है आगे दोनों एक दूसरे में एक मात्र प्रेम का ही चरम षोढ़षी यानि सौलह कलाओं की प्रेम अवस्थाओं की सम्पूर्णता यानि प्रेम के योवन को आत्मानुभव करते जीते है तब ये ही प्रेम की पंचम अवस्था “षोढ़षी” कहलाती है तथा स्त्री व् पुरुष दोनों ही जब प्रेम को ही तीनों काल-मात पिता की प्रेम सेवा ये भूतकाल है व् परस्पर पति पत्नी की सेवा ये वर्तमान काल है और अपनी प्रेम संतान की प्रेम सेवा ही उनका भविष्य काल है तब ये तीनों कालों को त्रिपुर मान कर जीते है तब यही छटी प्रेम अवस्था “त्रिपुरा” कहलाती है व् एक दूसरे के बिना सम्पूर्ण जीवन अपूर्ण है यहीं तीव्र प्रेम का विछोह ही वेराग्य बन विधवा व् वेधव्य अर्थात “धूमावती” प्रेम की सप्तम अवस्था कहलाती है और दोनों अपने अपने अष्ट विकारों-काम,क्रोध आदि का अष्ट सुकारों-दया,शांति आदि में शोधन करते हुए जो अष्ट भौतिक शक्तियों व् आध्यात्मिक शक्तियों की प्राप्ति को भी एक दूसरे में प्रेम लय कर देते है और केवल इनसे परे प्रेम के मनोरथ को कहने और सुनने से परे “निर्वाक्” होकर स्तब्ध व् स्तम्भित स्थिति की प्रेम अवस्था की प्राप्ति हो जाती है तब वह प्रेम की अष्टम अवस्था ही “वगलामुखी” कहलाती है तथा एक दूसरे में एक दूसरे के होने के भाव की समाप्ति की क्रिया विहीन प्रेम अवस्था ही मत मतांतर अर्थात कोई सिद्धांत अब शेष नही है यही प्रेम की आत्म अभिव्यक्ति नवम अवस्था ही “मातंगी” कहलाती है और जब सम्पूर्ण प्रेमवस्था का आत्म सूर्य अपनी सप्त रश्मियों के कमल कलिकाओं को खोलकर उसमें पूर्णिमा के शीतल आत्मप्रकाश को अपने में समाहित करता है तब यही प्रेम की दशम् अवस्था “कमला” कहलाती है और ये सभी प्रेमावस्थाएं अपने दसों प्रेम स्वरूपों में एकत्र अभेद होकर ही इति श्री यानि “श्री विद्या” कहलाती है ये महाविद्याएं ही भक्ति की नवधा भक्ति कहलाती है और इन सबसे आगामी छः प्रेम की स्वकर्ति की स्वसृष्टि करना आदि-1-प्रेम में एक्त्त्व,-2-पुनः चैतन्यता,-3-गर्भधारण,-4-गर्भस्थ जीव को आत्मविद्या दान,-5-प्रसव,-6-जीव नामकरण और उसे सम्पूर्णता प्रदान करनी आदि ये छः उर्ध्व प्रेमवस्थाएं परिपूर्ण होकर “पूर्णिमा” कहलाती है
और सनातन पूर्णिमा के दो सनातन संतान स्त्री शक्ति का पुत्री रूप का नाम “हंसी ” व् पुरुष शक्ति का पुत्र रूप का नाम “अरजं” है ये सभी प्रत्यक्ष मनुष्य के नाम रूप है और
सम्पूर्ण स्त्री शक्ति महावतार पूर्णिमाँ देवी की वर्तमान से चल रहे भविष्य के चतुर्थ स्त्रियुगों-1-सिद्धा युग-2-चिद्धि युग-3-तपि युग-4-हंसी युग में अवतरित होने वाली सौलह कला की प्रत्यक्ष पंद्रह स्त्री अर्द्धवतारों के सनातनी नाम इस प्रकार से है-1-अरुणी-2-यज्ञई-3-तरुणी-4-उरूवा-5-मनीषा-6-सिद्धा-7-इतिमा-8-दानेशी-9-धरणी-10-आज्ञेयी-11-यशेषी-12-ऐकली-13-नवेषी-14-मद्यई-15-हंसी विश्व भर में अनेक अन्य धर्मों में उनकी भाषा नामों के अनुसार होंगी यो पूर्वत सभी स्त्री शक्तियां दुर्गासप्तशती वर्णित दुर्गा देवी पुरुष प्रधान रक्षा को युद्ध विध्वंशक शक्तियाँ है और उन्ही पुरुषों को अभय वरदान दिया है तथा काली से श्री विद्या तक ये सब पुरुष और स्त्री की प्रेमाभिव्यक्तियां है ये प्रेम की सृष्टि नही करती है इनके कोई संतान नही है ये कुँवारी देवियां है और जिनके संतान है वे पुत्र ही है पुत्रियाँ नही है यो ये अपूर्ण और पुरुष युगों की देवियां है और अब वर्तमान में स्त्री शक्ति के चतुर्थ युग में व् प्रथम सिद्धि युग में केवल सोम्य और पालन कर्ता स्त्री की सम्पूर्ण शक्ति “पूर्णिमाँ” ही मनुष्य को सम्पूर्णता प्रदान करने सर्वसामर्थयशाली है यो जो मनुष्य भक्त इन्ही पूर्णिमाँ देवी का प्रतिमाह जो सत्य पुरुष के साथ मिलकर प्रेम की शक्ति यानि प्रकाश सारे जीव जगत को मिलता है तभी सभी जीवों में प्रेम और उसकी शक्ति फैलती है उसी शीतल प्रेम प्रकाश से ही जीव मनुष्य सन्तान और प्रेम कर पाता है अन्यथा सूर्य का ताप उसे केवल जीवन देगा प्रेम नही यो इसी पुरुष सत्य और स्त्री सत्यई का वेदकाल से पूर्व का जो प्रेम में एक होने की अवस्था का वर्णन है शून्य अवस्था तब उसी शून्य अवस्था से जब प्रथम बार सत्य पुरुष और सत्यई स्त्री अपने प्रेमावस्था से चैतन्य होकर जाग्रत हुए तब इसी प्रथम प्रेम जागर्ति की चेतना का नाम प्रथम वर्ष है और उसी प्रेम चेतना के ही प्रथम समय ही चैत्र माह का प्रारम्भ है इस प्रथम वर्ष और प्रथम चैत्र के प्रथम दिवस को ही शुक्लपक्ष यानि ईश्वर का प्रेम जागर्ति दिवस का प्रथम दिन प्रतिपदा कहते है इस प्रथम वर्ष के प्रथम दिन के प्रथम पहर से इस संसार की व् संसारी जीव मनुष्य आदि का जन्म का प्रारम्भ हुआ वही नो दिन को माता के गर्भ के अंधकार को रात्रि कहते है यो ये चैत्र की नवरात्रि कहलाती है इस गर्भकाल के नो दिनों में प्रत्येक जीव अपनी आदि माता से अपने को इस महान अंधकार से महान प्रकाश की और ले चल की वेद की मूल ऋचा-ॐ भुर्व भुवः स्वः”गायत्री”मंत्र को जपता है परन्तु ये द्धैत भेद प्रार्थना है और जो वेदों की रचना से पूर्व सहज आत्म प्रार्थना है जो सिद्धासिद्ध महामंत्र है-सत्य ॐ सिद्धायै नमः ईं फट् स्वाहा” का अर्थ जपता है की ये गर्भ के अन्धकार में रहने वाला जीव ही इस गर्भ से पहले मूल पुरुष सत्य है और ये मूल स्त्री ॐ है जिसके प्रेम मिलन से बना ये गर्भ में होने वाली प्रेम सृष्टि मनुष्य जीव ही सम्पूर्ण सिद्धायै है और अभी ये प्रेम बीज बन कर उससे नो माह में सम्पूर्ण मनुष्य बन गर्भ से बाहरी संसार में प्रकट होगा यो हे माँ मुझ अपने अंश जीव को अपनी पालन कृपा प्रेम से सींचती रहना तुम ही मुझे इस अज्ञान अंधकार में अपने ज्ञान से पाल कर संसार के ज्ञान प्रकाश में लाओगी यही आपका प्रेम कृपा जन्म देने और मुझे प्रकट करने वाली दिव्य शक्ति जिसको जगत कुंडलिनी शक्ति कहता है वह “ईं” हो तभी तुम इसी ईं की सम्पूर्णता ईश्वर हो आपके ही जीव को अपने में ग्रहण और धारण कर पालने और संसार में पुनः प्रकट करने की दिव्य प्रक्रिया के प्रस्फुटन का नाम “फट्”है और जीव को संसार में अपने से प्रकट करके सम्पूर्ण बनाने के लालन पालन शिक्षा दीक्षा देने के सम्पूर्ण विस्तार का नाम ही *स्वाहा* है और यही सभी रूप से मुझे और आपको जोड़कर सिद्धि देने वाला ये शब्दार्थ ही प्रथम महामंत्र- *सत्य ॐ सिद्धायै नमः ईं फट् स्वाहा* है जिससे जीवन्त अवस्था में ही जीव को आत्मस्वरूप का महाज्ञान आत्मसाक्षात्कार होता है। यो मूल पुरुष व् मूल स्त्री शक्ति सत्य और सत्यई पूर्णिमा की सन्तान का नामकरण उसके जन्म नवे दिने के आगे सातवे दिन जीव की सोलह कला शुद्धि के उपरांत होता है ताकि जीव में उसकी सम्पूर्ण शक्ति कलाएं विकसित हो सके यो इसी समय जब मूल पुरुष सत्य ईश्वर अपने सम्पूर्ण ज्ञान ध्यान शक्ति से ओतप्रोत शक्तियुक्त होकर अपनी सन्तान का प्रथम नामकरण करता है तब वह पिता के स्थान पर ब्रह्मज्ञान देने के कारण ब्रह्मा अर्थात ब्राह्मण कहलाता है और स्त्री अपना शाश्वत प्रेम ज्ञान भी अपने पति व् सन्तान को प्रदान करने से सरस्वती कहलाती है यो सभी संताने ब्रह्मा से ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर ब्राह्मण की सन्तान कहलाती है यही प्रथम ब्रह्म नामकरण दिवस होने और प्रेम का सम्पूर्णता पाने से और सन्तान को देने के समय पुरुष ईश्वर ने अपनी पत्नी व् संतान के लिए प्रेम ज्ञानदान का संकल्प किया यो ये प्रेम संकल्प ही “प्रथम व्रत” कहलाता है तभी से पुरुष अपनी पत्नी व् सन्तान की सभी मंगलकामनाओं के लिए इसी पूर्णिमा को “प्रेम पूर्णिमा” का व्रत रखते है यो सत्य और सत्यई पूर्णिमा की प्रेम संतान की नो माह गर्भ से उतपत्ति के उपरांत मनुष्य की चैतन्यता से लेकर अपनी सारी आत्म चेतना तक की जो आयु है वही ब्रह्मचर्य अर्थात शिक्षा दीक्षा काल कहलाता है यो ये चैत्र नवरात्रि मनानी चाहिए और इसके उपरांत मनुष्य की दूसरी संसारी आवश्यक्ता है इस ब्रह्मचर्य के शिक्षा दीक्षा काल में प्राप्त ज्ञान को प्रयोग व् उपयोग में लाना यो ये कर्मकाल और लालन पालन काल अर्थात पुरुष विष्णु विश्व का लालन पालन करने वाला ही विष्णु कहलाता है और स्त्री लक्ष्य को धारण का उपयोगी बनाती है यो वो लक्ष्मी कहलाती है यो यहाँ मनुष्य स्त्री व् पुरुष युवावस्था को प्राप्त होकर बड़ा बनता है यो इस अवस्था को ज्येष्ठ कहते है यो इसमें स्त्री शक्ति विवाह करके कन्या से स्त्री व् सन्तान उतपन्न कर माँ बनती है और पुरुष विवाह करके पुरुष व सन्तान उतपन्न करके पिता बनता है और दोनों सम्पूर्ण होते है यो ये काम व् ग्रहस्थाश्रम की नवरात्रि कहलाती है इसे मनाना चाहिए तथा आगामी तीसरे माह कवार में मनुष्य स्त्री व् पुरुष अपनी संतानो को अपने पाये ज्ञान और उसके गृहस्थ प्रयोगों से प्राप्त अनुभव ज्ञान को देकर दोनों स्त्री व् पुरुष रूपी माता व् पिता “गुरु” और गुरु पद को प्राप्त होते है और उनकी सन्तान उस दिए गए ज्ञान को अपने शीश में धारण करने के कारण “शिष्य” कहलाती है यो इस माह की नवरात्रि गुरुज्ञान दायी और शिष्य बनने की यानि वानप्रस्थाश्रम कहलाती है यो इसे मनाना चाहिए और अंत में मनुष्य अपने सभी भौतिक कर्तव्यों से मुक्त होकर अपनी आत्मा की प्रावस्था सर्वोचवस्था में स्थिर होने के अभ्यास को करता है यहाँ स्त्री व् पुरुष अपने “स” माने “वही” सनातन व् शाश्वत रूप को प्राप्त करने को “न्यास” माने विस्तार को धारण करते हुए अपने आत्म स्वरूप को विस्त्रित करते है यो इसे संयास आश्रम कहते है यो यहाँ मनुष्य पुरुष अपने इस *शव* यानि शरीर को *ई* माने ईश्वरतत्व ऊर्जा शक्ति में सम्पूर्ण विस्त्रित करता हुआ समर्पित करता हुआ *शिव* कहलाता है और स्त्री *शक्ति* कहलाती है और यो ये मनुष्य की मुक्तिदाता अवस्था होने से मोक्ष नवरात्रि कहलाती है यो इसे अवश्य माननी चाहिए।ताकि मनुष्य आगामी शेष कर्मो को सम्पूर्ण रूप से प्राप्ति को जन्मे और सच्ची मुक्ति प्राप्त करें।और श्री आदि माता की योनि से और आदि पिता के लिंग से उतपन्न होने के कारण उस जनांग के प्रति पशुवत अर्थात केवल भोग के विषय में ही नही विचार करें बल्कि उन अंगो को से प्रेम की दिव्यता ये जीव जगत प्रकट हुआ है उसका नित्य दिव्यता पूर्ण स्मरण करता रहे यो ही इन लिंग व् योनि के दिव्य शक्ति स्वरूपों की आत्म उपासना भौतिक रूप से बहिर पूजन की मान्यता हुयी और आध्यात्मिक रूप में अपने अपने मूलाधार चक्र का ध्यान करके अपनी आत्मशक्ति का जागरण करने की विधि योग कही है यो पुरुष जनेंद्रिय को दिव्य स्वरूप पूजन में *शिवलिंग* कहा और स्त्री योनि को *श्री भगपीठ* कहा और इनकी पूजा मान्य हुयी यो इन पर जल प्रेम का शाश्वत प्रवाह प्रतीक है और सिंदूर प्रकर्ति के प्रेम के रजोगुण का शाश्वत प्रवाह प्रतीक है यो इन दोनों में से केवल जल शुद्ध प्रेम प्रतीक शिवलिंग पर चढ़ता है और शुद्ध प्रेम जल के साथ रजोगुण को धारण कर स्त्रित्त्व को प्रकट कर माँ बनने के महाभाव का प्रकर्ति प्रतीक सिंदूर श्रीभगपीठ पर चरों नवरात्रि तिलक के रूप में या अर्पण के रूप में चढ़ाया जाता है यही है सत्यनारायण और सत्यई पूर्णिमाँ की सत्य कथा जिसके नियमित पठनपाठ के साथ जो भी भक्तजन इस सिद्धासिद्ध महामंत्र की शक्ति दीक्षा “श्री गुरु” से ध्यान विधि के साथ लेकर जप ध्यान करता हुआ *सत्य ॐ पूर्णिमा चालीसा* व् आरती का नियमित पाठ करता है उसे मनवांछित मनोरथ की प्राप्ति करता हुआ अपनी श्री कुंडलिनी को जाग्रत कर प्रत्येक मनुष्य स्त्री पुरुष को समस्त सुखों की प्राप्ति के कारक चारों धर्म- अर्थ,काम,धर्म और मोक्ष की जीवन्त प्राप्ति होती है।यही “सत्यास्मि धर्मग्रन्थ” महाज्ञान है।।
सत्य-पूर्णिमाँ कथा इति सम्पूर्णम्।।
30-3-2018 प्रेम पूर्णिमाँ की व्रत कथा :-
👉यह वेदों में वर्णित सृष्टि उत्पन्न होने से पूर्व की बात है जब ईश्वर और ईश्वरी दोनों प्रेम में एक थे तब उस अवस्था को ही *लव इज गॉड* कहा जाता है तब केवल प्रेम था और इन दोनों के प्रेम से चैतन्य होकर अलग होने के कारण उस माह या समय का नाम *चैत्र माह* पड़ा यही से हिन्दू सनातन धर्म का नववर्ष प्रारम्भ होता है और इस प्रेम से ईश्वरी ने जो गर्भ धारण किया उसके नो दिनों को ही *नवरात्रि* कहा जाता है तथा इन नवरात्रि के नो दिनों के बाद मनुष्य जीव जगत की ये सृष्टि हुई जिससे ईश्वेरी माँ बनी यो नवरात्रि को माँ कि नवरात्रि कहा जाता है इस नवरात्रि में माँ के गर्भ में पल रहा जीव संतान अपनी माता से अपने उद्धार को इस अँधकार भरी नवरात्रि से मुक्ति हेतु प्रार्थना
करता है की *हे माता अपने इस सन्तान की सभी प्रकार से रक्षा करते हुए मुझे अज्ञान के इस अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की और ले चलो और मुझे सभी प्रकार का दिव्य ज्ञान देकर मेरी मुक्ति करो* यही वेदों का मूल मंत्र गायत्री है जो जीव अपनी माँ सविता के गर्भ जो भर्गो है उसमे प्रार्थनारत है और माता उसे अपने ज्ञान ध्यान के बल से अपनी ज्ञान नाभि से जोड़कर ये दिव्य आत्मज्ञान प्रदान करती है यो माँ की उपासना इन चार नवरात्रियों में अर्थ काम धर्म और मोक्ष के रूप में चार वेदों के रूप में जीव द्धारा की जाती है और सविता पूर्णिमाँ इन चार नवरात्रि में उसे अपने गर्भ के अंतिम चार माह में प्रदान करती है और यो माँ के आठ गर्भ माह ही सच्ची अष्टमी कहलाती है और गर्भ का नो वा माह में माँ अपनी सन्तान को अपने से दिव्य ज्ञान ध्यान की सम्पूर्ण शिक्षा दीक्षा प्रदान के उस नवरात्रि अंधकार से प्रकर्ति में बाहर प्रसव वेदना को सहती हुयी लाती है तब जीव अपने संसारी कर्मो के कर्म भावों को माँ से प्राप्त दिव्यज्ञान को प्राप्त करता चार कर्म धर्मों में सम्पूर्ण करता है यही है सच्ची नवरात्रि साधना कथा और आगे तब ईश्वर पिता ने अपनी संतान जीव जगत का सोहल संस्कार के साथ नामकरण किया यो ईश्वर पिता ही सवर्प्रथम जीव का गुरु बना यो इस *चैत्र नवरात्रि की आगामी पूर्णिमा को इतनी सारे कारणों से *प्रेम पूर्णिमा* कहा जाता है और इसी दिन ईश्वर पुरुष ने अपनी प्रेम पत्नी ईश्वरी व अपनी संतान के लिये सवर्प्रथम व्रत रखा जो *प्रेम पूर्णिमाँ व्रत* कहलाता है जैसे स्त्री अपनी पति संतान की मंगल कामना के लिया कार्तिक माह में *करवा चौथ व्रत* रखती है वैसे ही ये व्रत भी निम्न प्रकार से किया जाता है कि पूर्णिमा की दिन पुरुष निराहार रहकर *प्रेम पूर्णिमाँ देवी* के सामने घी की अखंड ज्योत जलाए व एक *सेब* जो ईश्वर ने सवर्प्रथम दिव्य प्रेम फल उत्पन्न किया था जिसे खा कर ही आदम हव्वा में ग्रहस्थी जीवन जीने का काम ज्ञान हुआ था उस दिव्य फल सेब में *एक चांदी का पूर्ण चंद्र लगाए और पूजाघर में रख दे शाम को उसकी पत्नी उस सेब को अपने मुँह से काट कर भोग लगाकर पति को देगी जिसे खाकर पति अपना व्रत पूर्ण करेगा तथा दो *प्रेम डोर* जो सात रंग के धागों से बनी हुई है वो पति पत्नी एक दूसरे के सीधे हाथ मे बांधेंगे ये प्रेम डोर सात जन्मो के प्रेम का प्रतीक है और जो पुरुष अभी विवाहित नहीं है और जिन पुरुषों की पत्नी स्वर्गवासी हो चुकी है वे ब्रह्मचारी अविवाहित युवक व विधुर पुरुष अपना सेब व चांदी का बना भिन्न चन्द्रमा प्रेम पूर्णिमाँ देवी को शाम पूजन के समय भेंट कर अपनी एक प्रेम डोरी देवी के सीधे हाथ की कलाई में बांधेंगे और एक अपने सीधे हाथ की कलाई में बांधेंगे व देवी को खीर का भोग लगाकर शेष खीर और सेब खाकर व्रत खोलेंगे जिससे अविवाहितों को भविष्य में उत्तम प्रेमिक पत्नी की प्राप्ति होगी व विदुर पुरुषों को उनके आगामी जन्म में मनचाही प्रेम पत्नी की प्राप्ति होकर सुखी गृहस्थी और उत्तम संतान की प्राप्ति होगी यो यह प्रेम पूर्णिमाँ व्रत प्रतिवर्ष मनाया जाता है जो अपनी पत्नी से करे प्यार वो ये व्रत मनाये हर बार।
तो इस बार सभी पुरुष अवश्य इस व्रत को मनायें।। इस व्रत से लाभ-अकाल ग्रहस्थ सुख भंग होना, प्रेम में असफलता, संतान का नही होना,संतान का सुख,कालसर्प दोष,पितृदोष,ग्रहण दोष आदि सभी प्रकार के भंग दोष मिट जाते हैं।।
यो आप सभी पुरुष इस सनातन पूर्णिमाँ व्रत को अपनी पत्नी की सार्वभोमिक उन्नति और ग्रहस्थ सुख और भविष्य की उत्तम पत्नी की प्राप्ति व् सुखद ग्रहस्थ सुख प्राप्ति के लिए अवश्य मनाये।।
तथा जो भी मनुष्य स्त्री हो या पुरुष वो किसी भी नवग्रह के दोषों से किसी भी प्रकार की पीड़ा पा रहा हो वो यदि कम से कम एक वर्ष की 12 पूर्णिमासी को ये दिव्य कथा पढ़ता और सुनता हुआ 12 व्रत रखता और सवा किलों की खीर बना कर गरीबों को और विशेषकर गाय व् कुत्तों को भर पेट खिलाता है तो उसके सर्वग्रह दोष समाप्त होकर सभी शुभ सफलताओं की प्राप्ति करता है व् इष्ट और मंत्र सिद्धि की प्राप्ति होती है।।
चतुर्थ प्रेम पूर्णिमाँ व्रत उत्सव 30 मार्च 2018 दिन शुक्रवार को मनेगा।
जय सत्य ॐ सिद्धायै नम