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बदल दें संविधान!

ये कैसा लोकतंत्र? कैसा संविधान? कैसा परिवर्तन?संविधान -प्रदत्त मताधिकार का प्रयोग कर जनता संसद व विधान सभाओं के लिए अपना प्रतिनिधि चुनती है। जन-प्रतिनिधि के अलंकरण से सुशोभित होते हैं, वे सुख-सुविधा का भोग करते हैं।

सामाजिक प्रतिष्ठा से आल्हादित इनके चेहरों की चमक ही पृथक होती है। इस मुकाम तक इन्हें चुनने वाली जनता को भी कोई शिकायत नहीं।वह क्रोधित तब होती है, जब जन-प्रतिनिधि जनमत की भावना को पैरों तले रौंद ‘धनबल’ के आगोश में अटखेलियां करते दिखते हैं। अपनी मूल पार्टी व जनता के मत को ठेंगा दिखा दल बदल लेते है। निर्वाचित सरकार को गिरा देते हैं। जनता से किए वादों को तो छोडि़ए, अपनी अंतरात्मा से छल करने में भी इन्हें झिझक नहीं। भारतीय लोकतंत्र आए दिन ऐसे बलात्कार का शिकार हो रहा है।


नयी पीढी़ अवाक! क्या इसी अनैतिकता के लिए आजा़दी के बांकुरों ने अपने प्राणों की आहुतियां दी थीं? अपने लिए पवित्र संविधान की रचना की थी? हरगि़ज नहीं!

नयी पीढी़ ये स्वीकार नहीं करेगी।

मंथन करें।

जरुरत पडे़ तो संविधान बदल दें।

ऐसे नीति-नियामक बनें जिसमें जनमत को ठुकरा लोकतंत्र की मूल अवधारणा से छल करने वालों के लिए कोई स्थान नहीं हो।


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श्री एस.एन विनोद

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