ईश्वर रूप जीवंत है जीवन
गुरु अवतार क्यों आये प्रत्यक्ष।
अप्रत्यक्ष निराकार सूक्ष्म को कहते
सर्व गुण सम्पन्न सिद्ध प्रत्यक्ष लक्ष।।
ज्यों शब्द परे रूप सुगंधि
यो स्थूल सूक्ष्म सुक्ष्मतित।
जो कल था,वो आज बन कल है
यो मिटता बनता कल अतीत।।
प्रत्यक्ष प्रत्यक्ष बन ज्ञान है देता
एक बिन एक सम्बंध है अज्ञान।
भोग योग दोनों जीवंत ढंग हैं
अरूप नहीं ना ब्रह्म सज्ञान।।
मिलन विखंडन सब स्तर चलता
मिटती नहीं शक्ति ना पात्र।
मैं व्यापक हो सर्व देख शांत हो
मैं आत्मा परमात्मा नित्य सर्व पात्र।।
मैं ही ईश देख कर लौटे
जीवंत मैं को अनुभव सब।
समाधि निर्विकल्प चाहे सहज हो
सब जीवंत लिखे शास्त्र है सब।।
यो व्यर्थ ना खोजों मंदिर मस्जिद
यो व्यर्थ ना खोजो चर्च गुरुद्धारा।
बस खोजो रुक कर बैठ ध्यान में
मैं अंदर बाहर जीवंत ईश सारा।।
भक्ति भक्त रस भगवान-इसे अपनी कविता के माध्यम से अभुव्यक्त कर भक्तों को समझाते हुए स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी कह रहें है की….
भक्ति मिलन संग मिलन नहीं
एक तू है,संग मैं नहीं।
दोनों यही कह राग रागमय
भक्ति प्रेम है,आसक्ति नहीं।।
तू रहे सदा,मेरा संग ले
कहता नहीं करता संग दे।
नाहम में है,सोहम उजागर
अहम मिटा,भक्ति संग दे।।
तू है या नहीं, यहाँ ना प्रश्न
मैं हूँ यही विश्वास है अर्जन।
अपने होने से,उसका है बोध
भक्ति मार्ग का,यही है दर्शन।।
दो मिलकर यदि एक हो गए
ना आनन्द,इस मध्य की भक्ति।
कर्म से मैं हूँ,बिन मैं रह कर
दो मध्य एक रह दुरी है भक्ति।।
रस रहे,बिन हुए स्खलन
रस रखाने का,नाम है भक्ति।
ना तू पी,ना मैं पीउ अमृत रस
अमर है रस,प्रेम रास है भक्ति।।
भक्ति ना ज्ञान ना अभिमान
भक्ति है दो बिन भगवान।
भक्ति रस इसी विभक्ति मिलता
भक्ति नर नार मध्य प्रेम महान।।
स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
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