बता रहे है,स्वामी सत्येंद सत्यसाहिब जी..
पृथ्वी हमारी मातृ भूमि और आधार भूमि,जननी माता है, और इस जननी का हमारे शरीर में अपना मूल तत्व अंश जिससे हमारा शरीर बना और पोषित होता है,वो मूलाधार चक्र है,मूलाधार चक्र के चार भाग है-1-भौतिक चक्र इसमें पृथ्वी तत्व यानि स्त्री तत्व की मात्रा अधिक है-2-आध्यात्मिक या सूक्ष्म चक्र इसमें सूर्य तत्व यानि पुरुष तत्व की मात्रा अधिक है-3-मिश्रित तत्व चक्र,इसमें सूर्य और पृथ्वी दोनों तत्वों का अर्द्ध+अर्द्ध=पूर्ण समिश्रण होता है,जिसे बीज भी कहते है,इसे ही योग भाषा में मन या सुषम्ना चक्र कहते है-4-कारण चक्र,इससे सुक्ष्मतित चक्र यानि कुण्डलिनी शरीर भी कहते है,इसमें सूर्य और पृथ्वी और अन्य 7 ग्रह-चंद्र-मंगल-बुध-गुरु-शुक्र-शनि-राहु(अरुण)-केतु(वरुण) के तत्व होते है,चूँकि सभी ग्रह सूर्य से उत्पन्न है,यो सूर्य की मात्रा इन सबमें रूपांतरित अवस्था में होकर अधिक होती है।यो ये चार चक्र प्रत्येक स्त्री और पुरुष के मूलाधार चक्र में होते है,यही सब प्रकट होकर हमारे गुण अवगुण बनते और हमारे जीवन के सभी पक्ष बनकर प्रकाशित और फलित होते है।यो मूलाधार के केंद्र में जो बिंदु दीखता है,जो सूर्य और पृथ्वी दोनों स्त्री और पुरुष का संयुक्त बीज होता है। और उससे ये चार पत्तियों के रूप चार कर्म और फल है।यो जेसे-आकाश तक पृथ्वी का ओरामण्डल है,वेसे ही हमारे शरीर का भी ओरामण्डल है और उसका चुंबकीय क्षेत्र भी है।सोर वायु+पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र+ऊपरी वातावरण मिलकर ये पृथ्वी और हमारा ओरामण्डल बनाते है। मुख्यतोर पर जो पृथ्वी के निर्माण में तत्व है,लगभग ठीक वहीं तत्व हमारे शरीर के निर्माण में है-जैसे-पृथ्वी की रचना में निम्नलिखित तत्वों का योगदान है-
1-34.6% आयरन
2-29.5% आक्सीजन
3-15.2% सिलिकन
4-12.7% मैग्नेशियम
5-2.4% निकेल
6-1.9% सल्फर
7-0.05% टाइटेनियम
8-शेष अन्य तत्व है।
ये ज्ञान प्रचलित वैज्ञानिक सैद्धांतिक है।यही सब मिलकर या इनका असंतुलन होने पर ही हमारे शरीर में अष्ट विकार यानि अशुद्धि और शुद्धि सुकार यानि 8 ऋद्धि सिद्धि यानि मनुष्य की गुण शक्ति क्षमताएं अर्थ है।यो इस सबसे ही ओरामण्डल बनता है।पृथ्वी का अंतर चुंबकीय क्षेत्र 13000 किलोमीटर से 7600 किलोमीटर है।ऐसे ही हमारा चुंबकीय क्षेत्र इसी के अनुपात में लगभग 5 स्तर पर -3-5-7-9-12 मिलीमीटर से सेंटीमीटर तक होता है।चूँकि हम सभी पृथ्वी निवासी जीव परस्पर एक अतिमानस सूक्ष्म नाड़ियों जिन्हें मनोवहा या मन रश्मियों से एक दूसरे से जुड़े रहते है।यो ये सब सम्बंधों का सूत्र इकट्ठा होकर चुम्बकीय क्षेत्र मिलकर बनकर विशाल हो जाता है और तभी हम परस्पर जाने अनजाने आकर्षित और विकर्षित होकर सम्बंध, रिश्ते बनाते और बिगाड़ते हैं।ठीक ऐसा ही सम्बन्ध पृथ्वी और अन्य ग्रहों के बीच में है।ये ही ब्रह्म सम्बन्ध है।यो विश्व सौरमण्डल में जो भी ऐसे आकर्षण विकर्षण आदि से परस्पर सम्बन्ध बनते और बिगड़ते है,वही हम जीवों पर भी प्रभावी होते है,यही ज्योतिषीय फलित विज्ञानं है।चूँकि अभी हम इस सम्बंधों से अपने सम्बंधों तक को लेकर जागरूक और सजग नहीं है।यानि ये हमारे अधिकार में नहीं होते है।तब तक इन्हीं के अनुसार जीवन चलता है।और ज्यों ही हम योगिक जीवन साधना से अपने सम्बंधों को यानि इस प्रकर्ति और जीवों के परस्पर सम्बंधों की जीवन कडी के रहस्य को जान लेते है।तब हम इस श्रंखला से बाहर आ जाते है।यही मोक्ष विज्ञानं का बड़ा गूढ़तम रहस्य है।जिसका फिर कहीं अनुभव कहूँगा।यो हमारा और पृथ्वी का मूलाधार चक्र यानि पृथ्वी का केंद्र और हमारा केंद्र बिंदु एक सा है।उससे हमारा बड़ा गहरा जुड़ाव है।पृथ्वी की भी हमारी तरहां अनेक शारारिक मंडल है-केंद्र से बाहरी मंडल तक।यो पृथ्वी के 13 हजार किलोमीटर से 76 हजार किलोमीटर तक स्थूल से सूक्ष्म तक 12 स्तर है और यही जन्मकुंडली का भी भेद है। यो यदि हमें अपना मूलाधार चक्र जाग्रत करना है,तो हमें अपने को पृथ्वी के मूलाधार चक्र से जोड़ना होगा।ये हमारा भ्रम है की-पृथ्वी हमारी ऊर्जा पी जाती है।पृथ्वी तो हमें अपनी विशाल ऊर्जा के माध्यम से ही सीधे बैठने पर सर की और तक ऊर्जा देकर आकाश तक विस्तार देती है।और लेटने पर लम्बत गुरुत्व ऊर्जा से निंद्रा देती है।कुल मिलकर ये तो हमे हर तरहां से पालती है।यो पृथ्वी पर बेठो यही हमारा मूल आसन है और तब अपने को इसकी ऊर्जा से जोड़ दो।
!!यही सच्चा सहजयोग है!!
तब आपको कुछ नही करना है।बस इस ऊर्जा से जुड़ने का साक्षी होना भर है।बाकि तो पृथ्वी की ऊर्जा स्वयं सब कर देगी।यही प्राकृतिक योग साधना यानि समर्पण साधना या आस्था साधना या प्रार्थना यानि प्रार्थ+अना=पृथ्वी से पृथक होने के भाव को समाप्त करके उससे जुड़ने यानि आना है।यो जेसे ही हम सब इससे जुड़ेंगे,तो हम पृथ्वी की सन्तान बन जायेंगे और माँ और सन्तान एक हो जायेगी और हमें अपनी माँ पृथ्वी की सच्ची गोद में बैठकर उसका और उसके सूर्य आदि से और समस्त ब्रह्माण्ड और उससे परे का ज्ञान स्वभाविक हो जायेगा।तब हमारा औरमण्डल अनन्त हो जायेगा।यही तो सब योगी अंत में करते है।समर्पण भाव ओर उसकी प्राप्ति।
तब हम इस प्रकर्ति के साथ जुड़कर उसके समस्त भौतिक स्थूल और सूक्ष्म खनिज पदार्थों,जिन्हें रत्न कहते है,उन्हें पहनने के स्थान पर उन्हें सीधे ही प्रकर्ति से जुड़कर अपने में सोख लेने से अनन्त काल तक दीर्घायु शरीर को प्राप्त करके सम्पूर्ण योवन युक्त स्फूर्ति के साथ स्वस्थ और जीवित रह सकते है।
ये यहां अनंतकाल तक अमर रहने का गूढ़ रहस्य का संछिप्त पक्ष रहस्य है।
तभी प्रातः को उठने के बाद भूमि स्पर्श से पहले और रात्रि को सोने से पहले भूमि को प्रणाम करने की परम्परा है।
यो हम स्वस्थ हो जायेगे बिना किसी ओषधि के।
यो ही ये प्राणायाम विद्या का विषय है।इसमें भी प्राण यानि जो पृथ्वी के इस केंद्र में प्राकृतिक ऊर्जा यानि ऑक्सीजन और उसमें मिश्रित 8 तत्व है।यहाँ तक की कार्बनडाइऑक्साइड की भी उपयोगिता है,यो 8 तत्वों को
अपने में आकर्षित करना और उनका अपने शरीर में विस्तार करना ही प्राणायाम कला है।ये सब मिलाकर पृथ्वी और अपने मूलाधार चक्र से जुड़ने की साधना है।
असल में मूलाधार चक्र ही प्रमुख चक्र है।और इस चक्र से क्रिया और प्रतिक्रिया के रूप में अन्य 6 चक्र है-जिन्हें योग में-स्वाधिष्ठान-नाभि-ह्रदय-कंठ-आज्ञा-सहस्त्रार चक्र कहते है। और इसमें मूलाधार चक्र का सम्पूर्ण विस्तार है।यो मूल में 5 चक्र ही है यानि स्वाधिष्ठान से आज्ञा चक्र तक।क्योकि मूलाधार चक्र बिंदु है और सहस्त्रार चक्र सिंधु है। सहस्त्रार चक्र मुख्य और सूक्ष्म केंद्र है और मूलाधार चक्र उसका स्थूल और भौतिक चक्र है।अर्थात सहस्त्रार चक्र क्रिया है और उसकी प्रतिक्रिया मूलाधार चक्र है।और यो इन दोनों जो की मूल में एक ही चक्र के दो रूप है,इन्हीं दोनों के क्रिया और प्रतिक्रिया से अन्य सारे चक्र है।जो मेने अन्य लेख में कहा है।यो जेसे ही-साधक मन एकाग्र करता है,तब सबसे पहले सहस्त्रार चक्र के अंदर जो दो स्त्री और पुरुष तथा बीज तत्व यानि ऋण+धन+बीज है,उनमें संयुक्त क्रिया होती है।तथा तब इसी क्रिया की प्रतिक्रिया संसारिक रूप में यानि भौतिक रूप में जनेंद्रिय स्थान पर मूलाधार चक्र में होती है।तब इससे फिर सहस्त्रार चक्र में स्थित स्वाधिष्ठान चक्र में क्रिया होती है,जिसकी प्रतिक्रिया नीचे स्वाधिष्ठान चक्र के रूप में है।ऐसे ही सारे चक्र जिनका मूल चक्र मस्तिष्क में है और प्रतिक्रिया शरीर के चक्र में है, यो जानो।क्योकि मूल सोच का प्रारम्भ मस्तिष्क में होता है और उसकी प्रतिक्रिया शरीर में होती है।यो देखने में शरीर के चक्र प्रमुख लगते और प्रचलित है।यो पहले साधना का पक्ष शरीर को साधने पर दिया गया है।ये ही यम नियम है।जबकि मन के साधन पर शरीर सध जाता है।यो साधना को प्रारम्भिक रूप में साधने को नीचे साधना दी गयी है।
पृथ्वी तत्व की प्राणायाम साधना:-
सहज आसन में सीधे बैठकर ऑंखें बंद करे और सब एक गहरा साँस ले जो आपके मूलाधार चक्र पर जाकर लगे और अब अपनी साँस को धीरे धीरे से छोड़े,अब जेसे ही अपनी साँस को छोड़ेगें तो उसके छोड़ने काअहसास को आप अपनी रीढ़ की हड्डी के सहारे सहारे ऊपर की सर के मध्य केंद्र चक्र सहस्त्रार चक्र तक अनुभव करते हुए उस अनुभव को अपने सर के ऊपर आकाश तक फेंक दें।यहाँ ऐसा करते में साँस तो अपने आप आपके नांक से बाहर चली जाती है,पर असल में इस साँस के नीचे मूलाधार चक्र तक जाने और वहां से उलटे लौटकर ऊपर जाने के क्रम में जो प्राण अपान का आंतरिक घर्षण होता है,जो असल में ह्रदय चक्र पर होता है,तब इसमें नीचे को जाती साँस का प्रवाह हमें ह्रदय से मूलाधार चक्र तक जाता लगता है और साँस को छोड़ते में वो ह्रदय चक्र से ऊपर की और आंतरिक स्पर्श का अहसास लगता है।बाद के अभ्यास के बढ़ जाने पर हमें केवल साँस के लेने और छोड़ने के आंतरिक अभ्यास में ये प्राण और अपान का स्पर्श केवल हमारी रीढ़ की हड्डी को चारों और से एक गोलघेरे के रूप घेरता हुआ,नीचे से ऊपर की और जाता अनुभव होने लगता है,तब और अधिक अभ्यास के बढ़ने पर ये स्पर्श का अहसास ही हमें सतरंगी प्रकाश के रूप में पहले रीढ़ के बाहर फिर ये ही रीढ़ के अंदर चढ़ता दीखता है,तब स्थिति अलग होती है,तब चींटियों के से चढ़ने का प्रत्यक्ष अनुभव या अहसास होता है।तो हमें इसी अभ्यास को करने और बढ़ाने का नाम ही सच्चा अनुलोम विलोम क्रिया योग कहते है।इसमें कुम्भक क्रिया नहीं करी जाती है।बस इस क्रिया को रोक कर उसे आँख बंद करके बेठे हुए,सब इस क्रिया के द्धारा उत्पन्न इस प्राण+अपान(पंचप्राणों) से उत्पन्न ऊर्जा के नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे जाते हुए अंदर के स्पर्श के अनुभव को ही साक्षी व् द्रष्टा भाव से देखा जाता है।यहाँ जब ये अवस्था में ध्यान करें तो कोई भी मंत्र जप नहीं करें,बस इस क्रिया के द्रष्टा बने रहना है और ये भाव मिटने लगे,तब फिर पहले वाली क्रिया का अभ्यास करें।इससे आगे अपने आप मंदी मंदी भस्त्रिका चलने लगेगी और फिर ये तेज भस्त्रिका बनेगी तथा उससे ही अन्तरशुद्धि व् प्रकाश और सूक्ष्म शरीर की प्राप्ति और उस सूक्ष्म शरीर में जो मेरुदण्ड है,उसमें जो सुषम्ना नाडी है,उसमें प्रवेश होता है, और यही भस्त्रिका प्राप्ति इस अनुलोम विलोम क्रिया योग में साक्षी होकर बैठने व् ध्यान करने का मूल सार है और तभी आपको मूलाधार चक्र में पृथ्वी तत्व का उत्थान जागरण और उसकी प्राप्ति होगी,जिसका पहला अनुभव अचानक ही एक दिव्य गंध की सुगंध के आपको अनुभव से होगा। ये सुगंघ ही पृत्वी तत्व का सूक्ष्म रूप है।सबसे पहले जो तीन स्त्री रूप के दर्शन होते हैं-हरित प्रकर्ति यानि हरित आभा वाली सांवले रंग रूप की स्त्री दर्शन वे हरित प्रकर्ति देवी पृथ्वी ही है और फिर उसके बाद गुलाबी आभा वाली गौर रंग की स्त्री दर्शन, वो रजोगुणी यानि पृथ्वी की क्रिया शक्ति है,जो सूर्य की शक्ति स्वरूप पृथ्वी देवी है।तथा फिर श्वेत आभा वाली षोढ़षी देवी पृथ्वी देवी के सतगुण का रूप है,जिन्हें पूर्णिमां देवी कहते है।यो कहो की-पूर्णिमां ही पृथ्वी देवी है। और इन्हीं तीनों देवी के नाम ही सभी धर्म सम्प्रदायों में अलग अलग नामों से जाने जाते है।जैसे-सरस्वती-लक्ष्मी-काली।जो असल में ये जीवंत पृथ्वी देवी ही है। पृथ्वी की नीला ग्रह भी कहते है।यो यहीं नीलवर्णीय देवी कामख्या देवी या रति भी है और यहीं नीला आकाश तत्व भी है।क्योकि पंच तत्व सभी पृथ्वी पर और उसके आंतरिक प्रकर्ति के केंद्र में है।तभी मनुष्य के कंठ चक्र तक पंचतत्व है।
और यो ये सब रूप दर्शन-फिर उसका स्पर्श दर्शन-फिर उसका गंध दर्शन-फिर उसका रस दर्शन और अनुभव होता है।ये दर्शन और अनुभूतियाँ आगे पीछे भी होते है।साधक को ध्यान करने पर अचानक झटका लगना,तीर्व काम भाव की उत्पत्ति, अचानक अपने शरीर को किसी ने छुआ यानि स्पर्श किया,या अनेक प्रकार की गंध का अनुभव होना,या अनेक रूप यानि स्पष्ट आक्रति दिखनी और अरूप यानि कोई छाया सी दिखाई देने और उन्हें भ्रम वश भुत प्रेत आदि समझना।ज्यो ही मन ध्यान इसे ऊपर चला जायेगा,ये सब अनुभूति स्वयं बंद हो जाती है।अपने शरीर के रस वाले केन्द्रो में रस का अनुभव होना,जेसे मूलाधार का काम रस से भर जाना और उसकी टपकन या योनि या लिंग से बाहर निकलने का अनुभव होना,पर आँख खोलकर देखने पर ऐसा कुछ भी नहीं होना या मुख में जीभ पर अनेक स्वादों के रस का अनुभव होना आदि सब पृथ्वी तत्व और उसमें मिश्रित तत्वों के मिश्रण का ध्यान में हमारे मूलाधार चक्र में हमारे मन से अनुभव है।
उस पर ध्यान नहीं देते हुए,ये सब क्रिया इसी क्रम में करते हुए आगे चलकर यही सब प्रक्रिया बदलकर उच्चतर कुण्डलिनी की भी जाग्रत होती है।
यो साधना करो और अपना और मातृ पृथ्वी का भी ऋण उतारो।यही मातृऋण ही चारों नवरात्रि-चैत्र(अर्थ)-आषाढ़(काम)-क्वार(धर्म)-माघ(मोक्ष) नवरात्रि को मनाकर उतारा जाता है।यहाँ उतारने का अर्थ है-माता पृथ्वी से जुड़ना,ये जुड़ना ही भोग भी है और ये जुड़ना ही योग भी है।
यो रेहि क्रिया योग करो और इस योग रहस्य को जानो।
यही सच्चा अर्थ डे यानि पृथ्वी दिवस मनाना कहलाता है।और यहीं सच्चा चतुर्थ धर्म की साधना कहलाती है।यही ज्ञान चार वेद का ब्रह्म ज्ञान है और यही सनातन धर्म यानि सत्यास्मि धर्म ग्रन्थ का पूर्णिमां ज्ञान योग साधना है।
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स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
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