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स्त्रियों का कुण्डलिनी जागरण (भाग 10), सत्यास्मि मिशन की ऐतिहासिक खोज के विषय में बता रहे है- स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी

 

 

 

स्त्री का नाभि चक्र (solar plex chakra),स्त्री की कुंडलिनी और उसके चक्र और उसमें स्थित बीज मंत्र,पुरुष की कुंडलिनी और उसके चक्रों तथा उसके बीजमंत्रो से बिलकुल भिन्न है,इस सत्यास्मि मिशन की ऐतिहासिक खोज और उसके जागरण की सम्पूर्ण तार्किक विधि रहस्य के विषय में बता रहे है-स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी..

 

 

 

स्त्रियों का कुण्डलनी जागरण भाग-10

 

स्त्री का नाभि चक्र और उसके बीजमंत्र:-
स्त्री के नाभि चक्र में 10 बीज मंत्र होते है-1-ट-2-ठ-3-ड-4-ढ-5-ण-6-त-7-थ-8-द-9-ध-10-न।और मूल चक्र के बीच में-सं बीज मंत्र और इसीके ये क्रम बीजंत्र होते है।ये मुख्य 10 प्राण और उनके बीज मंत्र है।
प्राण दस मुख्य कार्यों में विभाजित है :-
पांच प्राण:-प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान।
पांच उप-प्राण:- नाग, कूर्मा, देवदत्त, कृकला और धनन्जय।
और इन्हीं 10 प्राणों के 64 प्राण और उनसे बनी हुयी 72 हजार नाडियां जिनका सूक्ष्म रूप को मनोवहा नाड़ियाँ कहते है।इन्हीं 72 हजार मनोवहा नाडियों यानि इस नाभि चक्र की मूल सूर्य शक्ति की 10 से 72 हजार सूक्ष्म रश्मियाँ ही सम्पूर्ण विश्व में सभी जीव और जगत से जुडी होने से हमारे सम्बन्ध होते है।इन्हीं के सम्पर्क से हमारे आपस में रिश्ते सम्बन्ध बनते और बिगड़ते है।ये 10 प्राणों के रश्मियों को ध्यान और संयम की विद्या यानि धारणा+ध्यान+समाधि=संयम है।यहाँ केवल समाधि यानि सम्पूर्ण चित्त की एकाग्रता का प्रारम्भ है।इस अवस्था में साधक केवल जो सोचता है,ठीक वहीँ विषय दर्शय ओर दर्शन बनकर उसे अपने सामने दीखता है ओर उसीकी अनुभूति होते होते उस विषय का सम्पूर्ण ज्ञान हो जाता है।यहाँ साधक ये न समझे की एक बार में सब ज्ञान हो जाता है,बल्कि कई बार ऐसा करने पर ज्ञान होता है।यो इस संयम विधि से इस नाभि चक्र में इकट्ठे करने से ही यहां का सोलर यानि सूर्य चक्र जाग्रत होता है।यहां एक और ज्ञान है की-ये सब पहले हमारे मष्तिष्क के बीच में जो मूल केंद्र है,वहाँ घटित होता है,फिर उसके स्थूल रूप नीचे के इस चक्र में घटित होता है।
तब यहाँ सारे प्राण एक साथ इकट्ठे होकर चमकते है और अपनी चमक प्रकाश से सम्पूर्ण शरीर की तेज प्रकाशित करते है।जिससे ये भौतिक शरीर स्वस्थ,स्फूर्तिदायक,तेजस्वी,विविवेक्शील,जागरूक,चैतन्य,प्रफ़ुल्लित,तीर्व ज्ञान विज्ञानं और विशिष्ठ योग विज्ञानं से युक्त होकर प्रचण्ड शक्तिशाली सिद्धि सम्पन्न होता है।और स्त्री इसी के सही जागरण से उच्चकोटि की सन्तान देव तुल्य जन्म देती है और इसके विकृत होने से दैत्य तुल्य संतान को जन्म देती है।

अन्यथा इससे ये रोग बनते है:-

शरीर में तेज व् कांति और ओजस्विता की कमी हो जाती है,चहरे पर झाई पड़ती है,गर्भास्य के सारे रोग बनते है,गर्भ में बच्चा पूरा नहीं बन पाता,जल्दी ही नष्ट हो जाता है,सहज बच्चा पैदा नहीं होता है,ऑपरेशन ही करना पड़ता है।इसी चक्र से आती प्राण नलियों में कमी से उससे जुड़े रहने पर गर्भ में बच्चे को पोषण कम मिलता है।अनावश्यक डर लगता है,अनावश्यक ईर्ष्या का भाव भरा रहता है,गर्मी में ठंड लगती है,विवेक शक्ति कम होती जाती है,अर्थ का अनर्थ करने से बात को गलत समझना और परिणाम आपस में कलह बढ़ती जाती है,सभी सामाजिक और परिवारिक रिश्ते खराब और टूट जाते है।एकांत में रहने लगता है।हस्य परिहास से दूर और शुष्कता की व्रति बढ़ती है।
ऐसे ही पुरुष की नाभि चक्र में-10 बीजमंत्र होते है-ड-ढ-ण-त-थ-द-ध-न-प-फ।और मूल में रं बीजमंत्र होता है।

स्त्री के नाभि चक्र का रंग और आक्रति:-
मूल यानि केंद्र में गुलाभी सी सिंदूरी आभावाला,जेसे प्रातः का सूर्य हो।और इसकी पत्तियां पीले चमकीले रंग की और उनके बोडर् लाइन कुछ हरे और काले रंग से प्रकाशित होती है,क्योकि प्रकर्ति और उसका रंग इनमें समाहित होता है।नील वर्ण की झलक भी दिखती है,जोआकाश तत्व है।वेसे यहां सारे पंच तत्वों और उनके 10 प्राण और उनके सभी उपप्राण आदि का मिश्रण यानि इकट्ठा होकर एक रंग बनता है।जो मूल में सूर्य का रंग होता है।परन्तु यहां स्त्री का सोलर चक्र नाभि चक्र पुरुष से बहुत कुछ भिन्न होता है।स्त्री में सूर्य की तीनों अवस्था होती है।-प्रातः-दोपहर-साय।चौथी तो विलय है।क्योकि सूर्य आकाश में एक सा ही रहता है,वो तो पृथ्वी पर ही उगता-तेज-डूबता और अंधकार के रूप में दीखता है।जबकि वो सदा प्रकाशमान है।ठीक यूँ ही हम इस पृथ्वी पर रहते है,तो यहीं का आधार हमें प्रभाव देता है और यहीं गायत्री मंत्र की चारपाद अर्थ है-प्रात-दोपहर-साय-रात्रि।यही यहां मूल सिद्ध मंत्र- सत्य+ॐ+सिद्धायै+नमः का अर्थ है।स्त्री में ये चक्र-1-पुरुष से उसका बीज को आकर्षित करके -2-फिर अपने में संयुक्त करना-3-फिर उससे एक नवीन बीज तैयार करना-4-उसे अपने से संयुक्त करके लालन पालन पोषित करके सम्पूर्ण करना-5-फिर उसे अपने से भयंकर पीड़ा के साथ प्रसव करके बाहर निकालना यानि विकर्षण करना।यो ये पांचों तत्व व् पांचों प्राण और उनके उपप्राण का संग्रह करना स्त्री के नाभि चक्र में अधिक सक्रिय और विस्तृत है। स्त्री के नाभि चक्र के मध्य तेज बिंदु और उससे त्रिगुण का नीचे की और मुख किये योनि त्रिकोण और फिर यही त्रिगुण योनि त्रिकोण ही जाग्रत होने पर उर्ध्व त्रिगुण योनि त्रिकोण बनता है।तभी जीव के प्रजनन करने यानि जन्म-लालन-पालन-प्रसव करने की आकर्षण और कुम्भक तथा विकर्षण शक्ति की प्राप्ति होती है।यो पुरुष के नाभि चक्र के चित्र में देखोगे की-उसका केवल उर्ध्व त्रिकोण के स्थान पर निम्न त्रिकोण बनता है।क्योकि वो गुरु या स्त्री से शक्ति प्राप्ति के बाद नवीन कुण्डलिनी जागरण को स्त्री बनता है।तभी उसमे कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है।और स्त्री में योनि त्रिकोण से सृष्टि करने आदि के कारण उर्ध्व त्रिकोण बनता है।वो लेती भी है और देती भी है।ये चाहे भोग का आंतरिक रमण हो या योग के शक्तिपात का योगिक रमण हो।
यहां गुरु से जानने के रहस्य है।हो यहां नहीं कहे गए है।
यो उसका नाभि चक्र पुरुष के नाभि चक्र से विशाल और शक्तिशाली होता है।बस उसने इसपर ध्यान नहीं दिया है।वो साक्षात् नए शरीर का निर्माण करने की शक्ति रखती है।साक्षात् प्रकर्ति है।यो वो सूक्ष्म शरीर को भी इसी प्रकार पुरुष से अधिक शक्तिशाली बना सकती है।बस उसे अपने इस चक्र का ध्यान करना चाहिए।
मणिपुर चक्र:-
ये नाम यहाँ सूर्य की आभा वाली बिंदु ज्योति इस नाभि चक्र में मणि की भांति चमकीली होने से पड़ा है-मणि+पुर यानि स्थान।यो बौद्धों में जो महामंत्र है-ॐ मणिपद्ये हुम्।वो और अन्य सभी धर्मो के मूल मंत्र इसी चक्र के जाग्रत होने पर जाग्रत होते है।इतने नहीं।
क्योकि ये ही चक्र में यथार्थ मस्तिष्क के मध्य भाग केंद्र में मूल सूर्य यानि आत्मा का प्रकाश जाग्रत होकर यहाँ सबसे पहले दिखाई देता है।और फिर हमारे मन के चित्त आकाश में दीखता है।मन से ही ये 10 प्राण बने है और इन प्राणों के इकट्ठे होने पर ही हमारा मन एकाग्र होता है और मन की सम्पूर्ण एकाग्रता होने पर ही हमारा सूक्ष्म शरीर जाग्रत होता है।
नाभि जागरण सबसे कठिन कार्य है।
पातंजलि योग सूत्र 3/26 में नाभि केंद्र में संयम करके सूर्य की सिद्धि यानि सम्पूर्ण सृष्टि कैसे हुयी,ये ज्ञान पाया जाता है।
आयुर्वेद में इस मणिपुर चक्र में तेज,अग्नि और समान वायु का केंद्र माना है।जो रस,धातु यानि वीर्य और रज में शक्ति देना,मल,पाचनतंत्र,और शरीर के सभी रोग दोष विषय में बताया है।
यहीं रेहि या रेकी और प्राणायाम की क्रियाओं से अपनी ऊर्जा को विश्व से खींचते हुए इकट्ठा किया जाने की विधि साधना की जाती है।
क्या ये एक सं या रं बीजमंत्र के जपने से ये चक्र जाग्रत हो जायेगा?:-
नहीं,इसके लिए उन्हें सम्पूर्ण मंत्र जपना होता है।क्योकि उसके ये अपने क्रम में स्वयं होता है।केवल नीचे के चक्र जगे बिना ये नहीं जगेगा।जैसे-नीचे की नींव या भवन बने बिना ऊपर का भवन नहीं बनाया जाए सकता है।

नाभि हटना:-
नाभि के किसी भी कारण से-अचानक पैर के ऊपर नीचे पड़ने से,या अधिक वजन उठाने या पेट की कसरत गलत तरीके से करने से,भोजन के तुरन्त बाद ही संभोग की क्रिया के दोष आदि से जरा भी नाभि की नसें अपने स्थान हट जाये तो,अनगिनत रोग शरीर में बन जाते और असाध्य तक हो जाते है।

नाभि चक्र ठीक करने का अभ्यास:-

यो लोग गलत तरीके से नाभि चढ़वाते है।
इसे सही जानकार से ठीक करना चाहिए।
वेसे जो बज्रासन का और सीधे लेट कर फिर दोनों पैर और सर के भाग को धीरे से थोडा सा ऊपर उठाकर वहीं 1 या 2 मिनट रुककर फिर सीधे लेट जाने के अभ्यास को नियमित करते है।उनको ये रोग नहीं होते है और नाभि भी अपनी जगहां आ जाती है।

अब उस नाभि चक्र के सिद्धिपाद योगिक रहस्यों और उनके भ्रमों को भी बताता हूँ..

नाभि चक्र जागरण का सत्यास्मि योग दर्शन और परकाया प्रवेश रहस्य विज्ञानं :-

आपने योगियों की जीवनी में पढ़ा होगा, की कुछ योगी अपने पुराने वृद्ध शरीर को त्याग कर किसी नवीन आयु के मरे हुये व्यक्ति के शरीर में अपनी आत्म विद्या यानि प्राण शरीर की सिद्धि से प्रवेश कर नवीन शरीर धारण कर अमरता और अपनी शेष साधना को करते जीवन जीते है। और दूसरा ये है की- किसी अन्य के मृत व्यक्ति के शरीर में जाकर उसके शरीर का उपयोग कर अपना कार्य सिद्ध कर पुनः अपने शरीर में वापस आ जाते है। जैसे-शँकराचार्य का भारती मिश्र से शास्त्रार्थ में काम विषय में मृत राजा के शरीर में प्रवेश कर उसकी रानियों संग काम ज्ञान प्राप्त किया,और पुनः अपनी देह में लोट कर भारती मिश्र को शस्त्रार्थ में पराजित किया। ऐसे और भी योगियों के उदाहरण है।अब प्रश्न ये है की क्या ये सम्भव है? और कैसे या सम्भव नही तो कैसे ?,आओ जाने:-
योगी कहते है की जब योगी का प्राण शरीर उसके वश में आ जाता है यानि नाभि चक्र खुल जाता है। तब वो नाभि चक्र की बहत्तर हजार नाड़ियों के रहस्य को जान जाता है। जिनसे शरीर और ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुयी है। ये योग रहस्य प्रत्य्क्ष दिखाई और अनुभूत समझ आता है तथा इस योग को इससे आगामी चक्र के जागरण की भी आवश्यक्ता पड़ती है, वो है मन चक्र या ह्रदय चक्र का जागरण। यहाँ पर योगी जो नाभि चक्र में संयम द्धारा मन की मनोवहा नाड़ियों का दर्शन करता है। जो समस्त विश्व ब्रह्माण्ड में योगी के शरीर से अनन्त जाल की भांति विश्व व्याप्ति है।वैसे भी इस विश्व में हम सभी किसी न किसी एक नाड़ी यानि मन रश्मि रूपी एक रस्सी से बंधे हुए है।तभी हमारे जाने अनजाने सम्बन्ध बनते है। यही मन की रश्मि रूपी रस्सी से बंधकर हमारा एक दूसरे से कर्म संस्कार सम्बन्ध है, यो उसे खोजना और जानना पड़ता है और तब उसमें से किसी एक रश्मि रूपी रस्सी को पकड़ कर यानि उसमें प्रवेश करके, योगी अपनी उस नाड़ी के माध्यम से अपने प्राणों को और मन को एकाग्र करता हुआ,उससे सम्बन्ध बनी उस एक नाड़ी जिसका सम्बन्ध उस मृत व्यक्ति से है। उसमें प्रवेश कर अपने शरीर को त्याग कर दूसरे शरीर में प्रवेश करता हुआ पुनः उसके शरीर में जाकर फिर अपने प्राण और मन शरीर का यानि सूक्ष्म शरीर का विस्तार कर जीवित हो उठता है।इसी विद्या का कुछ अंश के होने का प्रभाव हम अपने दैनिक जीवन में देखते है-की-कोई शक्ति हम पर हावी हो रही है,हमे दबा रही है या हमसे भोग कर या मार रही है आदि आदि दर्शन देखने,येभी असल में जाने या अनजाने कोई व्यक्ति जो हमारा मित्र या शत्रु हो,वो हमारे प्रति आकर्षण या द्धेष रखने से हमारे ओरामण्डल में इसी विद्या के जाने अनजाने प्रयोग से घुस आता है।और हमारे जोर से उससे विवाद करने या कोई मंत्र जपने के प्रबल प्रभाव से उसका आकर्षण बल कट जाने से हमारा पीछा छूट जाता है,जिसे कथित भगत जी तांत्रिक लोग जिन्न्न,प्रेत का साया आदि कहकर इलाज करते है।जो ये जान गया,वो इस ज्ञान से इस परेशानी से खुद पीछा छूटा लेगा।यो ये अति गम्भीर विषय है। यदि योगी का मन और प्राण पूरी तरहां वशीभूत नही है, तो वो योगी दूसरे के शरीर में फंस सकता है, लोट नही सकता है। यो इसकी सिद्धि पूरी तरहां से करनी आवश्यक है।

मैं यहां इस विद्या के कथित साधकों के लिए इन प्रश्नों के माध्यम से ये बताता हूँ की-ये जो कथित पुस्तकों में इस विद्या के विषय में पढ़ते हो,उसकी सिद्धि इतनी आसान नहीं है,जेसे कथित सिद्ध दावा करते है की-आप यो ही करके इस विद्या के द्धारा परकाया प्रवेश विद्या में सिद्ध हो जाओगे..

अब देखे की ये कैसे आसान और सम्भव नही है:-

1-योगी की यदि अंतर्दृष्टि नही खुली है तो वो कैसे जान पायेगा की किस शरीर में उसे जाना है? क्या वो शरीर उसके लिए उपयुक्त है? क्योकि उसका शरीर तो पूर्व तपस्या से शुद्ध हो गया था? अब ये नवीन शरीर उसके उपयुक्त शुद्ध नही है, उसे पुनः शुद्ध करने में अति समय लगेगा, तब कैसे योगी उस शरीर में जायेगा?
2- कोई भी मृत शरीर इन अवस्थाओं में मरता है-हत्या किया शरीर जो की कटा फटा होता है-आत्महत्या का शरीर जो शापित होता है-जहर खाया शरीर वो भी विष से विकृत हुआ होने से विषेला है उसका उपयोग कैसे करेगा?-अल्पायु में मरा बाल्क या युवा मनुष्य तब भी उसका ह्रदय की ग्रन्थि फट जाती है और मस्तिक के सेल्स यानि कोशिकाएं भी नष्ट होती है तब उस शरीर में प्रवेश करता हुआ योगी उस शरीर को कैसे पुनः पूर्ण स्वस्थ करेगा?
यदि उस योगी में इतनी ही शक्ति सिद्धि है की- वो किसी शरीर को पुर्न स्वस्थ और उसके टूटे अंगो व् ग्रन्थियों व् त्वचा को निर्मित कर सकता है। तो इतनी महनत वो दूसरे शरीर में करेगा, उतनी महनत में तो उसी का पुराना शरीर भी स्वस्थ और नवीन हो सकता है या नही? अर्थात हो सकता है। तब वो क्यों किसी अन्य तप जप रहित विषैले और कटे फ़टे पाप बल से युक्त शरीर में जायेगा? बताओ? अतः नही जायेगा। दूसरा प्रश्न है की दूसरे के शरीर में जाकर वहाँ उस योग रहित शरीर के मध्यम से क्या ज्ञान जानना चाहता है। जो उसके शरीर से प्राप्त नही हो सकता है?
क्योकि अन्तर्द्रष्टि खुल जाने पर संसार को कोई भी विषय ऐसा नही है जो उसे अपने ही शरीर में ज्ञात नही होगा अर्थात सभी विषय का ज्ञान आत्मा में होता है और वो योगी अपनी पूर्वजन्म के शरीरों में वो सब भोग और जान चूका उसे केवल उन पूर्व जन्मों के उसी के कर्मो में अपना संयम यानि गम्भीर ध्यान करने की आवश्यकता भर है और वो जान लेगा जो जानना चाहता है। यदि काम विषय प्रश्न है तो मूलाधार चक्र में संयम करना भर है। उसे सभी भोगों का रहस्य उसके प्रयोगों के साथ प्राप्त हो जायेगा। प्रश्न है की प्रत्यक्ष भोग वहाँ कैसे प्राप्त होगा? वहाँ योगी के साथ कौन स्त्री या पुरुष भोग में संग देने को है?जिसका संग ले वो भोग रहस्य को प्राप्त कर सके? तब उत्तर है की भोगों तो वो योगी पूर्व जन्म में भोग चूका। तभी उसे उस भोगों से ऊपर का योग समझ आया है, यदि शेष है तो पूर्व जन्म के विपरीत लिंगी के संग के चित्रण को अपने मनो जगत में सजीव कर लेता है, जैसे- हम कल्पना को चित्र में बदल देते है या हम कल्पना को अपने स्वप्न में भोगते है। जो की सोचा भी नही था। ठीक वेसे ही योगी उस कल्पना को स्वप्न की जगह अपने चैतन्य ध्यान जगत में जीवित करता हुआ यथार्थ में बदल देता है और वहाँ चेतना युक्त विचार के साथ उस विपरीतलिंगी से युक्त होकर रमण यानि भोग करता हुआ मनवांछित ज्ञान को एक एक क्रम से ज्ञान प्राप्त करता है। तब उसे क्या आवश्यकता किसी अन्य शरीर में परकाया प्रवेश करने की बल्कि जो वो ये योग कर रहा है ठीक यही परकाया प्रवेश सिद्धि कहलाती है। क्योकि यहाँ वो पूवर्त कल्पना के दूसरे और मनवांछित सत्य शरीर को अपने मनोयोग जगत में जीवित किये उसमें प्रवेश या उपयोग किये हुए है ये है परकाया प्रवेश। ठीक यही शँकराचार्य ने किया। क्योकि योगी अपने पूर्वजन्मों में राजा रहा होता है। क्योकि तपेश्वरी सो राजेश्वरी और राजेश्वरी सो नरकेश्वरी या योगेश्वरी अर्थ तप से राजा बनता है। यदि तप नही करे तो अभी पुण्यबलों को उपयोग कर दरिद्र बनकर नरक पाता है और राजा होने पर भी यदि योग करता है तब राजा से वो योगी बनता है। यो वो पूर्वजन्म में राजा भी रहे थे,उन्होंने उसी पूर्व योग अवस्था में जाकर संयम् किया और ज्ञान पाया। यही महात्मा महावीर और महात्मा बुद्ध को ज्ञान था। तभी वर्तमान के कथित योगी नाम पर मात्र तप के बल से योग राजा है, वे योगी नही है, यो उन्हें योग रहस्य नही पता है।

अध्यात्म योग विद्या में सिद्ध गुरु और शक्तिपात की आवश्यकता:-

मन की दो धाराएं है- एक शाश्वत ज्ञान-दूसरी उस शाश्वत ज्ञान का पुनः पुनः उपयोग कर आनन्द प्राप्त करना। इसमें जो आनन्द प्राप्त करने वाली मन की दूसरी धारा है उसे गुरु अपनी योग शक्ति से यथार्थ अंतर की और मोड़ देता है। तब यही धारा दिव्य दृष्टि बन जाती है और तब मन से देख पाता है की- मेरा कर्म क्या और उसका फल क्या व् कैसे प्राप्त होता है? यही साधक का ध्यान करना कहलाता है। इतने कितना ही साधक प्रयास करे वो मन की बहिर धारा को अपने अंदर नही मोड़ पाता है। यो ही गुरु की प्रबल आवश्यकता होती है। यही दीक्षा रहस्य है। दूसरी इच्छा की शक्ति की प्राप्त ही दीक्षा कहलाती है, यो योगी गुरु अर्थ महत्त्व है।

सत्यास्मि “रेहि क्रिया योग” से कैसे ये सब योग रहस्य ज्ञान और नाभि भेदन की सिद्धि उपलब्ध होती है:-

सत्यास्मि रेहि-रे माने आत्मा+हि माने शक्ति यानि आत्मा की शक्ति के योग को रेहि क्रिया योग विधि कहते है,यो इससे ध्यान करने पर प्रत्येक साधक को मंत्र और मन व् प्राणों का एक साथ आरोह अवरोही चक्र से एक एक क्रम से नो चक्रों का क्रमशः शोधन होता चलता है। जिसके फलस्वरुप साधक को पहले ही प्राण शरीर की प्राप्ति होती है। आगे मन शरीर जिसे सूक्ष्म शरीर कहते है। इसकी प्राप्ति पर सकारात्मक शक्ति के विकास के चलते साधक में सभी सकारात्मक गुणों का आकर्षणीय चुम्बकीय व्यक्तित्त्व की प्राप्ति होने उसे सभी लोग पसन्द करते है। यो बिगड़े कार्य बनते है आदि आदि। भौतिक जगत में सभी उन्नतिकारक लाभ होते है। नवीन विचारों और चिंतन का उदय होता है। यो दैनिक कार्यों में लाभ होता है। और आप अन्य मित्रों को भी सही राय दे पाते है। यो उनकी भी प्रशंसा के पात्र बनते है और परिवारिक दायित्त्वो की उचित समयानुसार पूर्ति करते हुए अर्थ धर्म काम और आत्म मोक्ष को प्राप्त करते है। यो गुरु निर्दिष्ट मंत्र और ध्यान विधि को करते जाओ और अपने भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में सम्पूर्णता पाओ। यो जब साधना करते आप मन शरीर के दर्शन कर पाते है। तब आपमें परचित्त ज्ञान अन्य के विचारों को जानने की शक्ति स्वयं प्राप्त हो जाती है। इसके लिए कोई भिन्न साधना नही है और जब मन शरीर की प्राप्त होती है, जिसे सूक्ष्म शरीर भी कहते है। तब परकाया प्रवेश यानि सभी कायाओं में मैं ही विद्यमान हूँ ये ज्ञान प्राप्त होता है। यही सब योग सिद्धि अर्थ है। ना की भिन्न भिन्न चक्रों के तथाकथित मन्त्रों के नाम पर जनसाधारण को मुर्ख बनाया जाता है। ये नो चक्र भी मन शरीर में होते है। जैसे दूध में घी न की दूध में झकने से घी मिलता है। घी प्राप्ति का केवल एक मात्र उपाय है दही का एक क्रमविधि से मन्थन करते रहना और समयानुसार घी प्राप्त होगा। यो गुरु विधि से साधना करने पर स्वयं ही समयानुसार ये सब योग विद्या प्राप्त होती है। यो व्यर्थ के भ्रमों को जानो और मुक्त हो।

यो समझे की-स्त्री का नाभि चक्र और कुण्डलिनी कैसे भिन्न है।इस विषय में स्त्री के ह्रदय चक्र और उसके बीज मंत्र आदि कइ रहस्य को अगले लेख में बताऊंगा.,

 

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स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
www.satyasmeemission.org

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