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सत्यास्मि मिशन की अद्धभुत खोज, सहत्रार चक्र साधना और कुण्डलिनी जागरण रहस्य, बता रहे हैं स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज

 

 

 

 

 

 

अंड सो ब्रह्माण्ड-सहस्त्रार ही कुण्डलिनी और उसके जागरण तथा उसके समस्त केंद्रों का प्रमुख और अंतिम केंद्र है:- इस विषय पर बता रहे है सत्यास्मि मिशन की अद्धभुत खोज के बारे में स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी…

 

 

 

सहत्रार चक्र साधना और कुण्डलिनी जागरण रहस्य-
सूर्य:- जिस प्रकार से सूर्य को इस भौतिक जगत की आत्मा और जनक माना है।इसे ही सत्य कहा गया है ओर इसकी ध्वनि को ॐ।यो ये सूर्य ही सत्य और ॐ यानि सत्य ॐ है।और इसी का शाश्वत ज्ञान जो यहाँ दे रहा हूँ,वही सिद्धायै है यानि सम्पूर्ण है और इसी से सब उत्पन्न और अंत होने से ये नमः यानि नाहम् यानि सब इसी में समाहित होने से ये मूल बीज नमः है।इस सूर्य की शक्ति ही ईं है और इसकी शक्ति जिसे कुण्डलिनी कहा है उसका प्रस्फुटित होना ही फट् है और उस प्रस्फुटित शक्ति का अनन्त जड़ जीव चैतन्य में विस्तृत होना ही स्वाहा है।तब इस सूर्य यानि भौतिक जगत और आत्म जगत का शाब्दिक नाम ही सत्य ॐ सिद्धायै नमः ईं फट् स्वाहा है।यो ये सिद्धासिद्ध महामंत्र है।अब इसका विस्तार ज्ञान कहता हूँ- ठीक सूर्य की भांति ही यानि वेसे ही मनुष्य शरीर में उसके मष्तिष्क के मध्य में स्थित सहस्त्रार चक्र को और उसकी शक्ति को आत्मा का मुख्य निवास केंद्र माना गया है।
और इस मस्तिष्क को देखें तो ये एक अंडाकार है,जेसे ब्रह्मांड का चित्र है,यो इस मस्तिष्क को ही अंड और इसमें ही ब्रह्मांड कहा गया है।

 

 

 

अब ये 6 चक्र इसमें कहाँ है?:-

तो मस्तिष्क के केंद्र के सामने के भाग जिसे आज्ञाचक्र कहते है,वो सहस्त्रार चक्र के बाद दूसरे नम्बर पर आता है और फिर सहस्त्रार के ठीक पीछे जहाँ रीढ़ की हड्डी को जाती तन्त्रिकाओं का प्रारम्भ होता है।ठीक वहाँ दूसरा चक्र है-मूलाधार चक्र,इसका दूसरा केंद्र ही मनुष्य की रीढ़ के अंतिम छोर पर जनेंद्रिय के प्रारम्भ में होता है।अब सीधे कान के ऊपर स्वाधिष्ठान चक्र है,जिसका भौतिक चक्र नीचे जनेंद्रिय से कुछ ऊपर उसके बालों वाले स्थान के पीछे होता है।अब उलटे कान के कुछ ऊपर मूल नाभि चक्र होता है और इसका दूसरा भौतिक छौर हमारे पेट के बीच भाग में नाभि में होता है।और हमारे मुख में ऊपर की और स्थित तालु के ऊपर वाले भाग में मूल ह्रदय चक्र होता है,जिसका भौतिक स्थूल रूप हमारा नीचे ह्रदय चक्र होता है।और हमारे मस्तिष्क में हमारे तालु और हमारे रीढ़ के प्रारम्भिक चक्र के बीच में मूल कंठ चक्र स्थित होता है,इसका ही भौतिक स्थूल रूप कंठ चक्र है।
ध्यान क्या है और उससे कैसे जागर्ति होती है हमारी कुण्डलिनी शक्ति? आओ जाने:-
जब हम ध्यान करते है,यानि अपने आप के स्वरूप और उसकी सभी छमताओं को जानने के लिए हमारी एकाग्रता का एक एक क्रम ही ध्यान है।यानि जो धेय या उद्धेश्य है, उसे अपने में आयत करना ही ध्यान कहलाता है।
तब इस एकाग्रता के क्रम से यानि ध्यान से हमारे मस्तिष्क में सक्रियता बनती है।तब वहां के मूल केन्दों में प्राणों यानि ऊर्जा का स्फुरण से सक्रियता बनने से हमारे नेत्र बन्द होने लगते है,ये हमारी चेतना शक्ति के अंदर की और खींचने यानि अपने में लौटने की क्रिया से बन्द होते है,ऐसा सभी अन्य चार और इन्दियों कइ साथ भी घटित होता है यानि हमारे नीचे के धड़ से ऊर्जा ऊपर की और खींचने लगती है।तब हमारे पैरों से प्राण की गति खींचने लगती होने से हमारे पेरो और हाथों और पेट छाती आदि में चींटियाँ सी चलने लगती है,ये हमारे प्राण और अपान शक्ति का ऊपर की और आकर्षण होने लगता है।तब ऐसा लगता है की-कोई शक्ति नीचे से ऊपर की और उठ रही है/जबकि ये चतना शक्ति का अपने मूल स्थान की और लौटना मतलब है।यो साधक को लगता है की कुण्डलिनी मूलाधार चक्र से आज्ञाचक्र तक उठ रही है।तब उस परिणाम से नीचे के भाग में धीरे धीरे शून्यता आती जाती है।जिससे हमारे शरीर में जड़ता व् स्थिरता आती जाती है। तभी तो हम इन पँच इन्दियों के रूप-रस-गंध-स्पर्श-शब्द के आभास से मुक्त होते जाते है।यानि रूप से सभी रूपों से मन हट जाता है,सभी प्रकार के रस यानि काम भाव से मन हट जाता है,ब्रह्मचर्य बनता जाता है,मूलाधार और स्वाधिष्ठान की शक्ति वहां से खिंच जाती है,यो ऐसा होता है।और नाभि से गन्ध और ह्रदय से स्पर्श और कण्ठ से सब शब्द का विषय कम होता जाता है,ये चक्र निष्क्रिय हो जाते है।
और शरीर की और से शून्यता पाते जाते है और हमारे सारे प्राण जिधर से चले थे यानि जहाँ से इनका प्रारम्भ हुआ था, उधर की और यानि मस्तिष्क की और इनकी गति हो जाती है। परिणाम हमारे नेत्र भी ऊपर की और चढ़ते जाते है।और वे आज्ञाचक्र में स्थिर हो जाते है। यहाँ नेत्रों का आज्ञाचक्र में स्थिर होने का मतलब ये नहीं,जो आज के कथित साधक योगी लगते है,यहाँ दृष्टि लगाओ,यानि की ये आज्ञाचक्र खुल जाता है।बल्कि अब जो मन यानि हमारी चेतना शक्ति है और उसकी सारी गति मस्तिष्क के केंद्र की और लौटने लगती या वहां एकत्र होने लगती है।तब ये सारी चेतना शक्ति जिसके दो भाग ही हमारे प्राण और अपान शक्ति के रूप में नीचे हमारे शरीर को चला रहे थे।वे प्राण और अपान अब एक होकर अपनी मूल केंद्र शक्ति जिससे वे जन्में है, यानि चेतना शक्ति में विलीन हो जाते है।यो ही योग शास्त्र कहते है की-आज्ञाचक्र में पहुँचने पर प्राण और इसका कारक मन अपनी गति खो देता है।ये अर्थ होता है यहाँ कहने का।अब जब चेतना शक्ति अपने मूल केंद्र आज्ञाचक्र और मेरुदंड के पीछे के भाग मूल मूलाधार चक्र जिसे वैज्ञानिक भाषा में…नाम
कहते है।ये दोनों छौर और कानों के दोनों और के दो मूल चक्र यानि स्वाधिष्ठान चक्र और नाभि चक्र की शक्ति भी मूल केंद्र की और खींचने लगती है और ठीक इसी समय हमारे तालु के ऊपर जो ह्रदय चक्र है,उसकी शक्ति भी खिंचती है,तभी तो हमारी जीभ ऊपर की खींचकर तालु में लगने लगती और फिर वहाँ लग कर वहीं स्थिर हो जाती है।ऐसा आप बच्चे के जन्म के समय देखते है की-उसकी जीभ को ऊँगली से तालु से हटाया जाता है तब उसकी के बराबर का चक्र जो मूल कंठ चक्र है,वहां की भी शक्ति ऊपर की और खिंचती है/तब हमारे बोलने की सारी शब्द शक्ति विलीन होकर हमारे अंदर सच्ची मोन शक्ति का उदय होता है।तब हम सच्च में शब्द रहित मोन हो जाते है।यो तथाकथित मोन धारण करने से कुछ विशेष नहीं होता है।और अंत में ज्यों ज्यों हमारी चेतना शक्ति मूल केंद्र की और सिमटती है,त्यों त्यों हमें एक प्रकाश बिंदु से लेकर तेज प्रकाश और उसका द्धार जिसे योग शास्त्र में सुषम्ना कहते है और जिसे गायत्री में भर्गो सविता आदि कहा गया है,उसके दर्शन होते है। तब ज्यों ज्यों ये चेतना शक्ति केंद्र में पहुँच कर उसमें प्रवेश करती है।तब हमें अतुलनीय अनन्त प्रकाश के दर्शन होते है।जिसे योगी अनन्त सूर्य के या महासूर्य के दर्शन देखना कहते है और यहीं जब हमारी चेतना की शक्ति ऊपर को खिंचती है,तो उसके खींचने का एक स्पर्शात्मक अद्रश्य स्वर होता है,जिसे योगी अनेको नाँद के स्वर सुनाई आना कहते है और इस सारे स्वरों का मूल स्वर होता है,ॐ नाँद जैसा अनांद स्वर अनहद नाँद।घोर गर्जन आदि सब हमारे प्राणों का ऊपर को उठने का अंतर शब्द स्वर है,जो हमें इस अवस्था में सुनाई देना होता है। और जब चेतना शक्ति पूरी तरहां मूल केंद्र में प्रवेश कर स्थिर हो जाती है।तब सब स्वर नाँद बंद हो जाते है।तब हमें एक शब्द रहित अवस्था की प्राप्ति होती है।उसे ही हम महाशान्ति की अवस्था और शून्य और परमशून्य की अवस्था की प्राप्ति और दर्शन कहते है। तब इस मूल केंद्र से ही पुनः उसके अंदर से ये चेतना शक्ति का फिर से विस्तार होता है।तब हमें अपने ही अनन्त स्वरूपों के दर्शन यानि विश्वव्यापी दर्शन होते है और पाते है की- मैं ही सदा से हूँ-था और रहूंगा, और ये सब बिन शब्द स्पर्श आदि के सर्वत्र होता है।यही से आत्मसाक्षात्कार का प्रारम्भ होता है और इससे आगे अपने अवतार यानि पुनर्जन्म आदि लेने के कर्म-क्रिया-कर्ता भाव पर अधिकार होता है।

यो इस संछिप्त पर सम्पूर्ण सूत्रात्मक लेख से आपको समझ आया होगा की-नीचे के चक्र स्थूल है,वहां कुण्डलिनी नहीं जाग्रत होती है,बल्कि मस्तिष्क के केंद्र सहस्त्रार चक्र की साधना से कुण्डलिनी जाग्रत और आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति होती है।जिसे गुरु से इसके निरन्तर सानिध्य में रहकर सीखना पड़ता है।क्योकि प्रारम्भ में सर में अनेक परेशानी होती है,जिनका निदान गुरु करता है।उसके लिए ही सत्यास्मि मिशन ने रेहि क्रिया योग विधि की खोज की और एक और भी विशिष्ठ क्रिया योग की खोज की जो गुरु निर्देश में ही बताई जाती है,जो बड़ी सरल और परम् प्रभावशाली और सम्पूर्ण है।
तभी गुरु अपना सिद्धहस्त शिष्य के सर पर रखकर अपनी चेतना शक्ति के अपने से प्रवाहित करते हुए करते है और शिष्य की नीचे गयी चेतना को उसके सहस्त्रार चक्र की और खींचते हैं।ये है शक्तिपात का सच्चा रहस्य।
अभी इस विषय में अनेक प्रयोगवादी गम्भीर रहस्य यहाँ शेष रह गए है।जो संसार में भक्तों साधकों के लिए प्रकट ही नहीं हुए है,उन्हें मैं किसी आगामी लेख में कहूँगा।

 

 

 

 

 

 

 

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स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
www.satyasmeemission.org

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2 comments

  1. Apke is gyan se mujhe dhyan me m kafi madat mile hai.
    “Satya om sidhaye namha”

  2. Jai satya om sidhaye namah. Guru ji apne ji arth btaya mantra ka wo hume pta nhi tha. AJ humne apke mantra ka gyan prapt kiya h. Apke dwara diya GYA Gyan Hume khi nhi mila.

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