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पूर्णिमा पुराण में वर्णित देवठान एकादशी की सत्यकथा बता रहे हैं श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज

 

 

 

 

 

दिवाली के 11 दिन बाद देव प्रबोधिनी उत्सव और तुलसी विवाह का मंगल अवसर आता है। इसी को देवठान एकादशी, देवउत्थान या देवउठनी ग्यारस कहते हैं। एकादशी को यह पर्व बड़े उत्साह से मनाया जाता है। देव प्रबोधिनी एकादशी का महत्व शास्त्रों में उल्लेखित है। एकादशी व्रत और कथा श्रवण से स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

 

 

 

 

देवठान एकादशी की सत्य कथा (पूर्णिमां पुराण से) :- इस विषय पर स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी भक्तों को बता रहें है की-
नित्यलोक में श्री सत्यनारायण अपनी योगमाया निंद्रा में लीन शयन किये हुए थे।उनके निकट ही देवी भगवती ईश्वरी पूर्णिमा अपनी योग माया स्वरूप को समेट रही थी। ताकि श्री नारायण अपनी समाधि से उठ सके, की तभी उन्ही की अर्द्धवतार पंद्रह देवियाँ वहाँ पधारीं। तब उन सभी देवियों ने पूर्णिमा सत्यई को नमस्कार करते हुए योगनिंद्रा मगन श्री सत्यनारायण को भी मन ही मन नमन करते हुए जिज्ञासा वश प्रश्न द्रष्टि से उन्हें देखा। यह सब देख देवी पूर्णिमा बोली हे- देवियों आपके मन में कोई प्रश्न हो तो निसंकोच कहो? तब सभी देवियों की और से देवी मनीषी ने प्रश्न किया की हे- ईश्वरी अभी मनुष्य लोक में दीपावली मनाने के उपरांत अब आने वाली देवदीपावली के शुभ अवसर पर श्री नारायण का योग निंद्रा से जागरण होगा। और तब मनुष्य के संसारी मंगल कार्यों का प्रारम्भ होगा। यो इस पावन अवसर की लोक प्रसिद्ध कथा का प्रारम्भ कैसे और क्यों हुआ है बताये? तब देवी पूर्णिमा बोली की- हे- मेरी प्रिय देवियों, ये एक अति रहस्यमय योग सम्बंधित ज्ञान है। की मूल सत्य ब्रह्म शक्ति का पंचतत्वो में परिवर्तित होने के एक एक क्रम से प्रथम नार यानि जल में प्रवेश होने से नारायण नाम पड़ा है। यो एक तत्व से दूसरे में परिवर्तित होते समय जो सन्धिकाल बनता है, उसी अवस्था का नाम योगनिंद्रा कहलाती है। और इसी योग यानि संयुक्त अवस्था में दो तत्वों का मेल होता है, जिसमे एक पुरुष तत्व है, एक स्त्री तत्व होता है।यही मिलकर एक नवीन तत्व बनता है और यही तत्व सृष्टि है। यो एक वर्ष के अर्धभाग में मैं यानि पूर्णिमा योग निंद्रा मगन होती समाधिस्थ होती हूँ और अर्द्गभाग में श्री नारायण योगनिंद्रा यानि समाधिस्थ हो कर स्थूल से सूक्ष्म सृष्टि का निर्माण करते है। यही एक वर्ष के दो अर्द्धभाग स्त्री शक्ति का उत्तरायण और पुरुष शक्ति का दक्षिणायन योगसानिध्य कहलाता है। जिसमे पुरुष लिखित शास्त्रों में केवल सभी कुछ पुरुष शक्ति के नाम कथाएँ प्रचारित की गयी है। जिन्हें आज सही रूप से संशोधित कर प्रकाशित करने की अति आवश्यकता है। ताकि स्त्री शक्ति का भी बराबर का सहयोग पता चले। यो इस कार्तिक माह से पुरुष शक्ति का योग जागरण होगा। हमारे शरीर में त्रितत्वों का योग है। सूर्य स्वर यानि गर्म शक्ति जो पिंगला नाड़ी के माध्यम से मनुष्य शरीर में बहती है। इससे शरीर गर्म रहता है। और दूसरी है चन्द्र स्वर यानि ठंडी शक्ति, जो इंगला नाड़ी से मनुष्य शरीर में बहती है। और इन दोनों का मेल सुषम्ना स्वर, जो इन दोनों की शक्ति गर्म ओर ठंडी मिलकर कुण्डलिनी शक्ति यानि जीवन शक्ति बनकर मनुष्य को सम्पूर्ण बनती है। यो कार्तिक से चैत्र तक गर्म सूर्य यानि पुरुष शक्ति का जागरण या अधिकता मनुष्य शरीर में प्रवाहित रहती है ताकि उस पर सर्दी का असर कम हो और चैत्र माह से जेठ माह तक चन्द्र यानि ठण्डी शक्ति या स्त्री शक्ति का प्रवाह मनुष्य शरीर में रहता है। ताकि उसे गर्मी में ठंडी शक्ति मिले और सावन से कार्तिक माह तक ये दोनों शक्तियों का मेल रहता है। यही समय सुषम्ना यानि सन्धिकाल है। इसी प्रकार मनुष्य शरीर में इन त्रितत्वों के परस्पर त्रियोग और भोग के लिए तीन बंध लगते है। जिनका नाम मूलबन्ध और जलन्धरबन्ध और उड़ियांबन्ध है। पहले मूलबन्ध से प्राण और अपान वायु और अग्नि का बन्ध लग कर मेल होता है। जिससे ऊर्जा बनती हुयी सुषम्ना नाड़ी में प्रवाहित होती है। और अंतर्जगत खुलते है, और जलन्धरबन्ध से पृथ्वी और अग्नि और जल तत्वों का संयोग होता है। और आकाश तत्व में प्रवेश होकर अंतर्जगत में अंतर आकाशों का निर्माण और दर्शन होते है। जिनमे योगी अपनी इच्छारूपी इष्ट देवी देव आदि के दर्शन करता है। और तीसरा बन्ध उड्डियान बन्ध से ये पंचतत्व एक होकर अतिसूक्ष्म चित्त आकाश का निर्माण करते हुए उसमे प्रवेश करते है। इसी चित्ताकाश में ही योगी की कुण्डलिनी शक्ति छटे चक्र आज्ञा व् सातवें अंतिम चक्र सहत्रार चक्र में जाकर स्थिर होती व् आत्मसाक्षात्कार के दर्शन पाती है। यो इन त्रिबंधों का मनुष्य शरीर से लेकर ब्रह्मांड में अनगिनत स्थूल से सूक्ष्म और अतिसूक्ष्मातीत सृष्टियों की सृष्टि होती है। यो आगे कहने वाली मेरी कथा में आप जालंधर बन्ध के नाम के भावार्थ को तुलसी विवाह की लोककथा में पायेगे। जो आगे बताउंगी। यो इन त्रिबन्धों के साथ यह समय योग आदि सभी साधनाओं को अति उत्तम समय है। यही सब शक्ति विज्ञानं मनुष्य के शरीर से लेकर विश्व ब्रह्मांड में कार्य करता है। यही पुरुष शक्ति का जागरण है। यहां स्त्री शक्ति की योग निंद्रा प्रकर्ति बन कर अल्प होती है। वह सुप्त नही होती है। वह सदा जागरूक रहती और सृष्टि का पालन लालन करती है। और यहाँ देवों का निंद्रा से जागरण का अर्थ और भी गहरा है, की जब एक तत्व यानि पुरुष सोता है। तो यहाँ सोने का अर्थ है वो स्थूल संसार या प्रकर्ति से सूक्ष्म संसार या प्रकर्ति में चला जाता है अर्थात सूक्ष्म प्रकर्ति के निर्माण में कार्य करता है। यही स्त्री तत्व का सोना और जागना अर्थ है। नाकि सामान्य मनुष्य की भांति सोना मानना चाहिए। जैसे मनुष्य बाहरी संसार से आंतरिक संसार में सोता और फिर वहाँ से जाग कर बाहरी संसार में जागता है। ठीक यही यहाँ देवताओं यानि त्रिगुणों का क्रियायोग विज्ञानं अर्थ है। और यही सत् गुण की जागर्ति होने का नाम ही श्री नारायण का योगनिंद्रा से जागर्ति कहलाता है। सत् गुण के अधिक सक्रिय होने से पुरुषत्त्व का जागरण होता है। यही उसके प्रकर्ति को भोगने का समय है और प्रकर्ति यहाँ इस समय कार्तिक से फाल्गुन माह तक अपने दिव्य प्रेम यौवन की पूर्णता की और अग्रसर होती है। और चैत्र माह की नवरात्रि में प्रसव करती हुयी, जगत जीव की सृष्टि करती है। तभी चैत्र माह से नवसृष्टि का नववर्ष आरम्भ होता है। यो यहाँ कार्तिक माह में उसका गयारहवीं कला से पूर्णिमा तक पंचतत्वों के प्रज्जन्न के लिए पुरुषत्त्व को ग्रहण करने की सम्पूर्ण शक्ति जाग्रत होती है। यो इसी के साथ मनुष्य समाज में विवाह योग प्रारम्भ हो जाता है।
और तुलसी विवाह का संक्षिप्त योग रहस्य का यथार्थ अर्थ इस प्रकार से है की:-

मेने यानि पूर्णिमा सत्यई भगवती ने प्रकर्ति के रूप को धारण करते हुए सभी प्रकार के जीवों की सृष्टि करने के साथ साथ समस्त जीव और व्रक्षों आदि की सभी प्रजातियों की भी सृष्टि की, जिससे वायुतत्व का सन्तुलन पृथ्वी पर है। यो वायुमंडल बना मनुष्य व् जीवों की प्राण ऊर्जा प्राण वायु और अपान वायु का सन्तुलन इन व्रक्षों के माध्यम से होता है। और इसमें मेरी सोलह कलाओं से सौलह प्रकार के मूलतत्व वाले व्रक्ष और पोधें जन्मे। आरुणी देवी से आम आदि के व्रक्ष,तरुणी से ताड़ नारियल आदि,यज्ञई से समस्त लौंग,इलायची आदि मसालों की बनस्पति,उरूवा से पीपल वट आदि उच्चे विशाल व्रक्ष,मनीषा से केवल बड़ी पत्तियों वाली बेलें,सिद्धा से जड़ मुलकन्द आदि हुयी। और इसी प्रकार मेरी ग्यारहवी देवी यशेषी से प्रथम तुलसी और अन्य ओषधियों की सृष्टि हुयी। चूँकि मेरी ग्यारहवी शक्ति कला देवी कार्तिक माह में प्रकट हुयी और उससे प्रकर्ति में तुलसी आदि की सृष्टि हुयी, यो इसी माह की एकादशी को तुलसी की पूजा उत्सव मनाया जाता है। और तुलसी से ही अन्य उसी जैसी अनेक ओषधियों वाले पौधों की उत्पत्ति हुयी। यो इस एकादशी को प्रकर्ति पुरुषत्त्व बीज को अपने में विशेष रूप से धारण करने की और अग्रसर होती है। यो पुरुषत्त्व रूप सत् गुण के साकार रूप सत्य नारायण से मेरी ही ग्यारहवी शक्ति रूप यशेषी यानि दूसरा नाम तुलसी का विवाह किया जाता है। जो एक प्रकार से मेरा ही प्रेम विवाह है। ऐसे ही मेरी सोलह कलाओं का पुरुष सत् गुण से सोलह योगिक विवाह है। इसी आयुर्वेद योगविज्ञान के सृष्टि को मनुष्य कथाओं से यो जागरूक किया गया है। की प्रकर्ति के तत्वयोग से भोग प्रारम्भ होकर मनुष्य समाज में स्त्री पुरुष तत्व भोग और योग का प्रारम्भ हो जाता है।और समाज में प्रचलित शिवांश जालंधर बन्ध यांनी जल से उतपन्न दैत्य और तुलसी के विवाह की कथा यो है- तुलसी, राक्षस जालंधर की पत्नी थी, वह एक पति व्रता सतगुणों वाली नारी थी, लेकिन पति के पापों के कारण दुखी थी। इसलिए उसने अपना मन विष्णु भक्ति में लगा दिया था। जालंधर का प्रकोप बहुत बढ़ गया था, जिस कारण भगवान विष्णु ने उसका वध किया. अपने पति की मृत्यु के बाद पतिव्रता तुलसी ने सतीधर्म को अपनाकर सती हो गई. कहते हैं उन्ही की भस्म से तुलसी का पौधा उत्पन्न हुआ और उनके विचारों एवम गुणों के कारण ही तुलसी का पौधा इतना गुणकारी बना। तुलसी के सदगुणों के कारण भगवान विष्णु ने उनके अगले जन्म में उनसे विवाह किया। इसी कारण से हर साल तुलसी विवाह मनाया जाता है।
जबकि ये कथा में त्रिगुणों में तीसरा गुण रज जो श्री विष्णु अर्थ है। जिससे समस्त क्रियाएँ होती है। उसके पंचतत्वों जो देवता अर्थ किया है। उनका एकीकरण योग ही मनुष्य शरीर के पेट में जालंधर बन्ध के लगने से होता है। तब पंचतत्व जल के साथ अतिसूक्ष्म चिदाकाश जिसे ह्रदय आकाश भी कहते है,वो बनाता है। वही श्री हरी विष्णु या रजोगुण इष्ट देवी लक्ष्मी यानि मेरे दर्शन होते है। यही जालंधर बंध का त्रिदेवो ब्रह्मा विष्णु शिव से युद्ध दिखाया है और जालंधर बन्ध के सिद्ध हो जाने पर यानि उसके सहज हो जाने को जालंधर बन्ध की मृत्यु कही है और उसकी क्रियाशक्ति नाम तुलसी का भी सती होना कहा है। चूँकि शक्ति अमर और रूपांतरित होती है, वो समाप्त नही होती है।
किसी अन्य रूप में उत्पत्ति होती है। यो इसी शक्ति से श्री हरी की सिद्धि और दर्शन होते है। यही तुलसी की भक्ति पूजा अर्थ है। यो श्री हरी विष्णु से पुनः तुलसी का विवाह कहा है। ये कथा योग रहस्य नही जानने वालो को थोड़ी दुष्कर लगेगी,यो समझ नही आएगी। परन्तु उन्हें थोड़े अध्ययन से समझ आ जायेगी। तभी सनातन धर्म का योग रहस्य इन पुराणों में कही कथाओं के रूप में समझ आएगा और जो भी भक्त मनुष्य इस योग कथा का चिंतन मनन और ध्यान करेगा। वो सभी सुखों को प्राप्त होकर मोक्ष को प्राप्त होता है।
ऐसे गम्भीर तत्वविज्ञान योग रहस्य को श्रीभगवती सत्यई पूर्णिमा से महाज्ञान सुनकर सभी सोलह देवियों ने जय जयकार किया और अपने अपने सृष्टि कार्यों के लिए प्राकृतिक संसार की और प्रस्थान किया।

 

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श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येंद्र जी महाराज

जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः

www.satyasmeemission.org

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