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सत्यास्मि मिशन का सनातन धर्मआह्वान – अर्थहीन, अनसुलझे और मनगढंत धार्मिक तर्कों पर श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज का वार

 

 

 

 

भारतीय संस्कर्ति समाज को भ्रष्ट और नास्तिकवाद की और ले जाती ये अपूर्ण धर्म कथाओं को अब सभी वर्तमान धर्माचार्यों को एकत्र होकर पुनः संशोधन करते हुए पुनः प्रकाशित करने के अतुल्य विचार का पुनर्जागरण करना ही होगा। इस विषय पर सत्यास्मि मिशन का शीघ्र धर्म आंदोलन प्रारम्भ होगा-इस विषय पर स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी तर्कसंगत ज्ञान बता रहे हैं।

 

 

 

सत्यास्मि मिशन का सनातन धर्म आवाहन-
भारत के सभी धर्माचार्यों को एक मत से अपने प्राचीन गर्न्थो में जो अर्थहीन और अनसुलझे ऋषियों और राजाओं के जन्मादि कथाओं के वर्णन है-
संक्षिप्त में जैसे-
1-वेदों में जब कोई सत् न असत् था। तब शून्य शेष था।उसमे हलचल हुयी। उससे एक ब्रह्म ने एकोहम् बहुस्याम कहा।ठीक यहाँ ही अनसुलझे अनगिनत प्रश्न बनते है। प्रथम ही पर्याप्त है की क्या ये ब्रह्म केवल पुरुष था?या स्त्री था? या बीज़ था? और अधिकतर स्त्री पक्ष का विषय यहाँ वेद में विलुप्त है।
2-बाल्मीकि रामायण में कुछ है और तुलसीदास रामचरित्र में कुछ है। ऐसे अनेक विषय परस्पर बडे विवादस्त है।
3-शिवलिंग से प्रकट तो एक पुरुष शिव होते है। और उसमे योनि को संयुक्त किया है। यदि शिवलिंग में शिव और शक्ति है। तो सती और पार्वती के तपस्या और वरदान समय शिवलिंग से शिव और शक्ति प्रकट होकर इन्हें वरदान देते।
4-विष्णु का मोहनी रूप से शिव का रमण। जिससे दक्षिण भारत के हरिहर यानि अयप्पा भगवान और हमारे यहां हनुमान जी की उत्पत्ति भ्रम रहस्य है। यहाँ दोनों ही पुरुष तत्व है।यहां प्राकृतिक स्त्री पक्ष नगण्य है।
6-ॐ का चित्रकारों द्धारा अपूर्ण चित्रण किया जाना। इस प्रचलित ॐ चित्र में ॐ के पीछे का बद्ध स्वरूप प्रकट है। जबकि योगियों का ध्यान में और प्रत्यक्ष में दर्शित ॐ इससे बिलकुल भिन्न है।
7-केवल पुरुष के चार युगों का ही वर्णन है। इन चार पुरुष युगों के समाप्ति के उपरांत पुनः पुरुष युग ही होंगे। यो सभी धर्मग्रन्थों में स्त्री को और बीज तत्व को बिलकुल नगण्य किया गया है। जबकि ईश्वर का अर्द्धस्वरूप स्त्री है और एकल स्वरूप बीज भी है। ये और इनके युग कहाँ गए?
8-संसार में केवल पुरुष प्रतीक-शिवलिंग और शालिग्राम और पीपल आदि व्रक्षों में भी देवों की स्थापना और स्त्री लिंग की पूजा उसके श्रीभगपीठ को गुप्त और विभत्सव करते हूए लुप्त और अल्प करना।
9-गंगा में केवल पुरुष स्नान ही प्रथम करते हुए पुरुष वर्चस्व रखना और धर्म चर्चा में स्त्री को समान मानना स्पष्ट विरोधाभास है।
10-दुर्गा सप्तशती के लेखक-देव,दैत्य,उन्हें पुरुषों को ही वरदान से लेकर सारी कथा में स्त्री पार्वती केवल श्रोता मात्र होना आदि।
11-पृथ्वी को भी किसी स्त्री से जन्मा नही दिखा कर केवल पुरुष पृथु से उसका अहंकार तुड़वा उसे अपनी पुत्री बनाना आदि है।
12-सभी सप्त नदियों को केवल एक पुरुष कृष्ण की प्रेम दास्य सेविका सिद्ध करना स्त्रीत्व का अपमान है।
13-नवदा भक्ति में केवल एक पुरुष की उपासना अपने पुरुष या स्त्री व्यक्तित्व को त्याग कर पुरुष वर्चस्व को प्रकट करना वर्णित है।
14-विष्णु के ही चौबीस अवतार संसार में प्रकट है, और स्त्री देवी के अवतारों के प्रकट समयकाल आदि में भयंकर विरोधाभाष है।
15-सभी देवियाँ वैष्णवी भी केवल पुरुष की आराधना ही करती और उसी की प्राप्ति को त्रिकुट धाम पर विराजमान है।
16-कृष्ण का महारास में एक पुरुष और अनन्त स्त्री समूह का क्या स्वरूप है? और पत्नी से उच्चतम प्रेमिका राधा का स्वरूप सिद्ध किया है? तब पूर्व से वर्तमान तक केवल स्त्रियों को तो प्रेम की इच्छा करने या उनके परपुरुष के विषय में उसकी सुंदरता को लेकर केवल विचार मात्र करने पर उनका वध(परशुराम में माँ रेणुका का वध किया),अहिल्या को शाप, उर्वशी को पत्थर बनाना,सारी अप्सराओं ने ही इस सनातन धर्म के महावीर राजाओं को जन्म दिया-मेनका और विश्वामित्र से शकुंतला और भरत जिससे भारत नाम है,गृताची अप्सरा के आकर्षण से भारद्धाज ऋषि से द्रोणाचार्य का जन्म है। और जनपदी अप्सरा से शरद्धान ऋषि प्रसंग से कृपाचार्य और कृपि का जन्म हुया,तिलोत्तमा अप्सरा और निकुम्भ से निशुंडा और सुंडा हुए जिन्हें देवता भी नहीं हरा पाये। वे परस्पर ही लड़कर मर गए,मधुरा और शिव प्रेम प्रसंग में पार्वती के शाप से वो राक्षस कुल में जन्मी जो मंदोदरी बनी,अद्रिका अप्सरा से शाप ग्रस्त मछली बनने से ऋषि के वीर्य ग्रहण से महाभारत के प्रथम नायिका सत्यवती और उसका भाई चेदि नरेश हुए,पुंजास्थला अप्सरा जो अंजनी बनी से केसरी ने विवाह कर हनुमान को जन्म दिया,उर्वशी और विंधयक ऋषि प्रसंग से ऋष्यश्रंग ऋषि जन्म हुया जो श्री राम के बहनोई बने,तिलोत्तमा का जन्म ब्रह्मा जी ने संसार की सभी वस्तुओं के तिल तिल अंश लेकर हवनकुंड से किया। जो हवन सामग्री स्वरूप भी कहलाती है,तिलोत्तमा को दुर्वासा के शाप से वाण की पुत्री बनी और अष्टावक्र ने भी इसे शाप दिया था और भी कथा से ये आश्वनी मास में सात सौर गणों के साथ सूर्य के रथ की स्वामिनी बनी,रति अप्सरा ने कामदेव को जीवन्त किया और कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न के रूप में प्राप्त किया। ऐसी अनगिनत कथाएँ स्त्री के पुरुष द्धारा स्वेच्छित उपयोग के शोषण और शाप से भरी है। तब इन सबका संशोधन होना चाहिए।
इनकी स्वव्याख्या त्याग कर उन्हें मूल शास्त्रों में नवीन लेखन के साथ पुनः प्रकाशित करने का प्रयास करना चाहिए। अन्यथा हमारे धर्म का जो विभत्सव स्वरूप जनसाधारण के समक्ष जा रहा है। जिससे नास्तिकवाद और अनस्थावादि विचारधारा की बढ़ोतरी हो रही है। वो भविष्य में इन सभी शास्त्रों का खुला वहिष्कार कर देगी। अभी समय है कुछ सच्चा करने का।हम एक तरफ तो उन शास्त्रों को जनसाधारण को पढ़ने की आज्ञा और प्रोत्साहन देते है। और जब वो उनमे प्रकट विभत्सव और व्यभचारी जन्मकथाओं पर अपनी प्रश्न टिपणी करते है। तब हम उनकी अपनी तरहां व्याख्या करते है। की-ये यो विज्ञानवत है आदि आदि। इसकी अपेक्षा वे धर्म ग्रन्थ भी जब कभी पूर्वजों ने यथार्थ सत्य रूप में लिखे होंगे, तब जो स्वरूप था। उसकी जगहां कालांतर में औरों ने जो उन्हीं ऋषियों के नाम पर अपने अल्प योग अनुभव के अज्ञान और अल्प संस्कृत ज्ञान से उनके सत्यार्थ को अर्थ से अनर्थ की और पहुँचा कर लिखा। जिस पर अनेक बार युगान्तरों में कुछ महाज्ञानियों ने उन्हें संशोधित करने का अलप प्रयास किया। क्योकि उनके सामने दो समस्या और चुनोती खड़ी थी- एक समाज में फेली अनगिनत भ्रष्टाचारी कथित धर्माचार्यों की, जो स्वं निर्मित शास्त्रों को संस्कृत में लिख उन्हें सनातन ऋषियों के नाम पर जनसाधारण को ठग रहे थे।और जो आज भी विद्यमान है। और दूसरी समस्या थी- उन शास्त्रों को पुनः सत्य स्वरूप में लिखने के लिए अल्प समय का होना। यो बहुत कम ही धर्म शास्त्रों के स्वरूप का सत्य प्रकाशन हुआ। यही आज अति आवश्यक हो चला है की सभी सनातन धर्म के सभी धर्म शाखाओं वाले धर्माचार्यों को एक मंच पर एकत्र होकर अपने अपने मत सिद्धांतों के धर्म गर्न्थो को सही और सुलझे स्वरूप में एक मत से लिखकर पुनः नवीन प्रकाशित किया जाए। इसमें कोई विरोधाभाष भी नही है।क्योकि धर्म का यथार्थ अर्थ ही ध से धारण करना यानि ईश्वर की इस स्व सृष्टि में सभी कुछ अपनाने योग्य है। और र से रमण करना यानि जो भी देशकाल अनुसार उपयोगी है उसे आत्मसात करना।और म से मर्मज्ञ होना है, यानि ईश्वर कृत सभी कुछ आत्मा के जानने के योग्य होना है।यो इस पर समाज को भी अपने अपने गुरुओं को ये सन्देश अवश्य देना चाहिए। ये हमारा और हमारी संस्क़ति और हमारे मूल व्यक्तित्त्व के अस्तित्व का प्रश्न और उत्तरदायित्व है। इस समपूर्ण विषय को ही “सत्यास्मि धर्म ग्रन्थ” में विस्तार से पुनर्जागरित और प्रकाशित किया है। तब भी इस विषय पर सनातन धर्म के सभी धर्माचार्यों को एक मत से इस प्रकार के आतँकवाद हो या समाजवाद हो,इन सभी विषयों पर अपने भक्तों सहित समाज को अपना राष्ट् हित संदेश अवश्य और तुरंत देना चाहिए और आवशयक्ता पड़ने पर हिन्दुत्त्व के लिए आगे बढ़कर समाज को प्रबलता से वैचारिक समर्थन देना चाहिए।
आशा है पढ़ने वाले इस सन्देश को अधिक से अधिक अपने मित्रों को भेजेंगे।

 

 

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श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येंद्र जी महाराज

जय सनातन धर्म की जय

जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः

www.satyasmeemision.org


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2 comments

  1. Jay Satya om siddhaye namah

  2. Jai satya om sidhaye namah

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