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Home / Breaking News / पितृपक्ष (भाग-पांच), सोलह दिवस यानि पूर्णिमा से अमावस तक, पितृऋण से मुक्ति का ज्ञान एवं रहस्य, जानें पूजा विधि और महामंत्र, श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज की जुबानी

पितृपक्ष (भाग-पांच), सोलह दिवस यानि पूर्णिमा से अमावस तक, पितृऋण से मुक्ति का ज्ञान एवं रहस्य, जानें पूजा विधि और महामंत्र, श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज की जुबानी

 

 

 

 

 

पितृपक्ष के सोलह दिन आज से यानि 24 सितंबर से शुरू हो रहे हैं। इन सोलह दिनों में अपने पितरों को याद करके जितनी भी पूजा-पाठ की जाए वो उतना ही अधिक फल देती है। पितरों के त्याग भावना, परिवार के प्रति उनका समर्पण इन सबको याद किया जाता है और अपने इष्ट देवों के साथ पितरों की भी पूजा की जाती है।

 

 

पितृपक्ष में 16 दिन तक विशेष पूजा-पाठ करते हैं, और अपने पितरों की कृपा प्राप्त करने के लिये ये सोलह दिन श्राद्ध पक्ष कहलाते हैं, कुछ जगह पर इसे महालय भी कहते हैं, भारतीय संतो ने ये दिन इसलिये निकाले थे जिससे कि लोग अपने जीवन को सुखमय कर सके, और अपने साथ-साथ अपने पूर्वजो का कल्याण भी कर सके।

वास्तव में ये हमारा कर्त्तव्य है कि हम अपने पूर्वजों के परिवार के प्रति उनके त्याग, समर्पण और परिवार को बनाएं रखने के लिए उनकी मेहनत को याद करें और ईश्वर से उनके लिए मुक्ति के लिए और उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करें।
हमारे पूर्वजों की सांस्कृति को आगे बढ़ाने के लिए भी यह जरूरी है इससे न केवल हमारे पूर्वजों की आत्मा खुश होती है बल्कि घर में सुख-शांति आती है दुःख दरिद्री दूर हो जाती है। इसके लिए पितरो को समय-समय पर याद करें। हर खुशी में उनका मान रखें, और साथ ही उनकी कृपा के लिए उनका धन्यवाद दे, क्योंकि हम इस सुन्दर धरती पर अगर हैं तो उनके कारण।

इसी से सम्बन्धित श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज का जो ज्ञान है वो हमें जीवन की ऐसी बातें सिखाता है जो हमारे दोषों को तो दूर करता ही है साथ ही जीवन को भी सफल बनाता है। श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज जीवन जीने की कला सिखाते हैं।

 

स्वामी जी इससे संबंधित चार भाग बता चुके हैं और यह पितृपक्ष का पांचवां भाग है। बाकी चार भाग आप खबर 24 एक्सप्रेस के लेखों में पढ़ सकते हैं।

 

पितृपक्ष (भाग चार) यानि प्रायश्चित दिवस इस संबंध में श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज के सच्चे अनुभव जरूर पढ़ें

 

 

तो आज पांचवे भाग में स्वामी जी से जानते हैं पितृपक्ष के सौलह दिवस यानि पूर्णिमा से अमावस तक में पितृऋण से मुक्ति सम्बंधित ज्ञान विज्ञानं रहस्य में सिद्धासिद्ध महामंत्र की महिमा वर्णन :-

भाग पाँच : –

 

 

पूर्णिमासी को श्रीमद् सत्यनारायण भगवान से स्त्री शक्ति महावतार सत्यई पूर्णिमां के सौलह कला शक्तियों का सिद्धासिद्ध महामंत्र-“सत्य ॐ सिद्धायै नमः” में प्रत्यक्ष साकार स्वरूपों की सत्यास्मि धर्म ग्रंथ वर्णित पूर्णिमां पुराण से कथा कहना:-
जो स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी ने यहाँ इस प्रकार उद्धग्रथ की है कि….
एक बार पूर्णिमासी के पवित्र दिवस पर सत्य नारायण भगवान ने देवी सत्यई पूर्णिमां से प्रश्न करते हुए पूछा कि-
हे सत्यई- हमारे और तुम्हारे सत्य और सत्यई के एकल आत्म स्वरूप पूर्णिमां के शब्द बोधक ये सिद्धासिद्ध महामंत्र-“सत्य ॐ सिद्धायै नमः” में तुम और तुम्हारी सौलह कलायें कैसे समाहित और प्रकाशित है? और मूल स्त्री शक्ति महावतार सत्यई पूर्णिमां के षोढ़ष यानि सोलह कला अवतारो के श्रंखला बद्ध नामो का सत्यार्थ भावार्थ ये नाम कैसे पड़े है,इसे समझाये?और साथ ही ये सिद्धासिद्ध महामंत्र मनुष्य के भौतिक और आध्यात्मिक जीवन के सभी अष्ट विकार और अष्ट सुकारों का शोधन करके उसे अष्ट ऋद्धि सिद्धि प्रदान कर सभी देव-ऋषि-पितृ-क्षेत्र आदि ऋणों से मुक्त कर जीवंत मोक्ष का अधिकारी बना सकता है?और आठ पुरुष पितृ और आठ स्त्री पितृ रूपी पैत्रक दोष यानि पितृऋण से कैसे मुक्ति दिलाता है? और इसके जाप की विधि क्या है?..

-तब प्रसन्नता व्यक्त कर उत्तर देते हुए देवी पूर्णिमां बोली की आप सही कह रहे है कि-हमारे एकल पूर्णिमां स्वरूप सिद्धासिद्ध महामंत्र-“सत्य ॐ सिद्धायै नमः” के सौलह अक्षर कला शक्तियों-सं-तं-यं-अं-उं-मं-सं-ईं-दं-धं-आं-यं-ऐं-नं-मं-हं !! और इसके उपरांत इस महामंत्र में व्याप्त स्त्री और पुरुष और बीजाक्षर से प्रकट महकुण्डलिनी शक्ति जिसका बीजाक्षर “ईं यानि ईम्” है।और इस कुण्डलिनी का चारों मनुष्य धर्म-अर्थ+काम+धर्म+मोक्ष-के रूप में,जिन्हें चारों वेद भी कहते है,उनका फट् रूप में प्रस्फुटित या प्रकट होना और इन चारों धर्म और कर्मों का सम्पूर्ण रूप में विस्तारित होना यानि स्वाहा यानि स्वमं का ही चारों कर्मो और धर्म के निर्वाह के रूप में आवाहन यानि प्रकट और विस्तारित होना ही-स्वाहा नामक स्वयं की सम्पूर्ण अवस्था कहलाती है। इस महामंत्र का जाप यो करना चाहिए- सं-तं-यं-अं-उं-मं-सं-ईं-दं-धं-आं-यं-ऐं-नं-मं-हं-सत्य ॐ सिद्धायै नमः ईं फट् स्वाहा.. और गुरु प्रदत्त रेहि क्रिया योग विधि से अपने शरीर में अनुलोम विलोम जप ध्यान करना चाहिए।तब उपरोक्त सभी ऋद्धि सिद्धि और जीवंत मोक्ष की समयानुसार प्राप्ति होती है।
अब इस सिद्धासिद्ध महामंत्र के आत्म साकार रूपों का सभी भक्तों में भक्ति और शक्ति की लौकिक और अलौकिक दैविकता प्राप्ति हेतु इस प्रकार वर्णन करती हूँ की-
-हे सत्येश्वर-मेरे सोलह कला शक्ति के सोलह नाम इस प्रकार से है की- मैं आपकी सत्य की मूल आदि शक्ति और क्रिया शक्ति “सं” होने सत्यई कहलाती हूँ।यो जो मेरे इस स्वरूप का अर्थ सहित चिंतन ध्यान करता है।उसे सत्य और शक्ति के युगल स्वरूप सत्यई के दर्शन होते है ओर वो सदा सत्य गुण में वास करता है। और मैं सत्यई पूर्णिमां अर्थात “तं” बीजाक्षर से मैं जब अपनी नित्य तरुण यानि युवा युवती रहने वाली इच्छा शक्ति को निरन्तर सृष्ट और व्यक्त करने के कारण “तरुणी” कहलाती हूँ।तभी संसार में प्रत्येक जीव को बाल्य से युवा और योवन की प्राप्ति होती है। और इसी से सृष्टि में सौंदर्य का प्रादुर्भाव यानि प्रकट और विस्तार होता है। जिससे संसार में पँच तत्वगुण रूप,रस, गंध,स्पर्श,शब्द में अनुपमता की अनुभूति होती है।यो जो मेरे इस स्वरूप का अर्थ सहित ध्यान करता या करती है,उसे सदा युवावस्था बने रहने का भेद प्राप्त होकर परम् यौवन की प्राप्ति होती है।
ओर जब मैं “यं” बीजाक्षर से अपनी पुरुष शक्ति के साथ अपने चतुर्थ धर्म पालन रूपी चतुर्थ कर्म यज्ञों को करने में सलंग्न होती हूँ। जिसे संसार में ग्रहस्थ धर्म कहा जाता है।उस ग्रहस्थ धर्म के कर्म काल अर्थात-भोग और योग के संतुलन में जिसे यथार्थ क्रिया योग कहते है, उस क्रिया शक्ति स्वरूप को धारण और वरण करने के कारण “यज्ञई” कहलाती हूँ।यो जो मेरे इस स्वरूप का अर्थ सहित चिंतन ध्यान करें,उसे समस्त भौतिक भोग यज्ञ और आत्मयज्ञों से प्राप्त फलों का रहस्य और परिणाम प्राप्त होता है।वो स्वयं यज्ञेश्वर या यज्ञेश्वरी सिद्धि को प्राप्त होता व् होती है।
और इसी प्रकार “अं” बीजाक्षर से चतुर्थ धर्म का पालन पोषण करते हुए समस्त आनन्दों का स्रोत ज्ञान को जो कि स्वयं से ही उत्पन्न है, की-प्रथम आनन्द मुझसे उत्पन्न है। और उसे पहले मुझे देना है,ना की पहले लेना है, ये जानने के कारण स्वयं की पहल करने के कारण मैं “अरुणी” कहलाती हूँ।जो मेरे इस स्वरूप का अर्थ सहित ध्यान करें,उसे समस्त प्रकार की क्रिया-प्रतिक्रियाओं से उत्पन्न होने वाला आनन्द फल की प्राप्ति और अधिकार प्राप्त हो जाता है।
और आगे “उं” बीजाक्षर से पुनः अपने ही स्वरूप पुत्र और पुत्री या स्त्री और पुरुष को प्रजन्न करने की सामर्थ्य धारण करने के कारण की- ये प्रजन्न शक्ति का प्रारम्भ और प्रथम अवस्था यानि पुरुष को आकर्षित कर उसे उत्तेजित कर,परस्पर रमण के क्रिया योग से बीज दान करने को प्रेरित करना और उसके उपरांत उसे अपने बीज में संयुक्त करना तदुपरांत उसे धारण करना,जिसे योग में पूरक शक्ति कहते है-अब द्धितीय यह अवस्था है कि-मध्य यानि उस बीज को अपने में पोषित करना, जो जीव की मेरे गर्भ में स्थापित होकर स्थित और स्थिर होना ही कुम्भक अवस्था है। और अब अंत यानि तृतीय अवस्था रेचक शक्ति का गुण,जिससे मेरे गर्भ में स्थित गर्भस्थ जीव इस सृष्टि में प्रकट होता है। वह अंतिम अवस्था भी मुझमें ही है,यो इस तीन लय यानि पूरक-सृष्टि यानि कुम्भक-प्रकट यानि रेचक शक्ति की त्रिअवस्था यानि उरूवा शक्ति के कारण मेरा नाम “उरूवा” कहलाता है।यो जो मेरे इस स्वरूप का अर्थ सहित ध्यान करें,उसे समस्त जड़ चैतन्य जीवों के स्त्री व् पुरुष की उत्पत्ति और सृष्टि का रहस्य और उसपर अधिकार प्राप्त हो जाता है।उसे उर्वक नामक सिद्धि की प्राप्ति होती है।
इसके उपरांत मैं “मं” बीजाक्षर से जब अपने से उत्पन्न की गयी, ये स्वयं सृष्टि के चतुर्थ कर्मों के कारणों को जानने के कारण, जो की आत्मा की समस्त आनन्द इच्छाओं के समूह का नाम “मन” है,उस मन और मन की शक्ति “माया” यानि उसकी क्रिया शक्ति के ज्ञान को जानने से और उसे अपने अधिकार में करने से “मैं” मन की ईश अर्थात मैं ही इस समस्त आनन्द इच्छाओं के जननी और स्रोत और इस माया की अधिकारी हूँ,यो मैं “मनीषा” कहलाती हूँ।इसी मं बीजाक्षर से ही सभी जीवों में मम् यानि मेरा और मैं का प्रारम्भिक से अंतिम अहं ज्ञान प्रकट होता है।और इसी मम यानि मेरा में जो जीव लिप्त होकर भूल जाता है की-यहां मैं और मम मेरा का सच्चा अर्थ भी दाता है।उसी ज्ञान को देने से मैं मनीषा कहलाती हूँ।यो मेरे इस स्वरूप के अर्थ सहित ध्यान से उसे मन की समस्त मायाविक शक्तियों की प्राप्ति हो जाती है।वो विज्ञानमय शरीर की प्राप्ति कर समस्त विज्ञानं का अधिकारी यानि विज्ञ सिद्धि बन जाता या जाती है।
इससे आगे की अवस्था में मैं जब “सं” बीजाक्षर से अपनी नव सृष्टि पुत्र और पुत्री को ये आत्म ज्ञान और उसकी क्रिया शक्ति यानि उपयोगी शक्ति को देकर यानि उनके मष्तिष्क यानि शीश पर वरदहस्त रख कर देने की कला जिसे “दीक्षा” कहते है, उस शक्तिपात करने के कारण उन्हें ग्रहणशील बनाती हूँ,जिससे मेरे स्वं स्वरूप शक्ति ग्रहण करने के कारण “शिष्य” बनते है। और मैं ये ज्ञान देने में सिद्धहस्त होने के कारण “सिद्धा” कहलाती हूँ, यानि अपनी सन्तान की प्रथम और अंतिम “गुरु” भी कहलाती हूँ।यो मेरे इसी स्वरूप में चिंतन मनन ध्यान करने से स्त्री व् पुरुष को शिष्य और गुरु के बीच जो शक्ति भक्ति का शक्ति रहस्य है।जिससे उन्हें दोनों को द्घिज जन्म प्राप्त होकर गुरु पद की प्राप्ति की सिद्धि प्राप्त होती है।
इससे आगे यही चतुर्थ धर्म की परिपूर्णता नहीं होती है, इससे और भी आगे जब मैं अपने “ईं” बीजाक्षर से-आदि से अंत तक मैं ही स्वं कर्मी हूँ,तब मेरी यह अवस्था “इतिमा” कहलाती है।अर्थात मैं अपने स्वरूपों पुत्र और पुत्री रूपी स्त्री और पुरुष का आत्मज्ञान उपलब्ध होने तक उनकी सभी प्रकार से प्रत्यक्ष माँ बन कर जिसका अप्रत्यक्ष रूप प्रकर्ति भी कहते है,उस सभी रूपों में साहयक और सेवार्थी बन उनसे सभी अवस्थाओ में संयुक्त रहती हूँ,यही आदि से अंत तक की इति यानि सम्पूर्णता में सहभागी होने वाला मेरा “माँ” स्वरूप ही “इतिमा” कहलाता है।मेरे इस स्वरूप का अर्थ सहित चिंतन मनन ध्यान करने से पुरुष में पितृत्त्व और स्त्री में मातृत्त्व की सम्पूर्णता की प्राप्ति और सिद्धि प्राप्त होती है।
इसके उपरांत “दं” बीजाक्षर से मेने जो पाया और जो ध्याया यानि जो भी मेरे रूप में आत्म उपलब्ध है,उसे सर्वत्र निष्काम भाव और रूप से दान देने के कारण मेरा ये स्वरूप “दानेशी” कहलाता है।यहां मेरे देने में ही मेरी तृप्ति है और यही तृप्ति ही मेरी समस्त आनन्द इच्छाओं की स्वं पूर्ति का कारण है,ये क्रिया विहीन अवस्था है और यही दान और दाता का यथार्थ स्वरूप और अर्थ है और तभी दान फलता है।जैसे प्रकर्ति तुम्हें देती ही रहती है,तुम्हारे सारे फेंके विषों को भी ग्रहण करते हुए उसे पुनः शुद्ध करके फिर से उपयोगी बना तुम्हे प्रदान करती ही रहती है,यही उसका कर्म और धर्म है और यही उसका निष्काम दाता और दान है।यो यही मेरी अवस्था “दानेशी” कहलाती है।जो मेरे इस दानेशी स्वरूप के अर्थ का ध्यान और मनन करता है।वो अपने प्रत्यक्ष गृहस्थी जीवन में प्रेम की सर्वोच्चवस्था यानि दिव्य प्रेम की प्राप्ति करता है।वो महादानी यानि सभी दानों का स्वामित्व “दानेश” व् “दानेशी” सिद्धि को प्राप्त होता है।
और इसके उपरांत जब मैं “धं” बीजाक्षर से- मैं अपने ही आनन्द के सर्व कर्म और उसके फलों के साथ साथ उसके उत्पन्न होने के कारण और निवारणों को धारण करने के कारण ही “धरणी” कहलाती है,इसी का मेरा एक रूप “धरती” यानि पृथ्वी भी कहलाता है।जो मेरे इस स्वरूप के अर्थ का चिंत्तन ध्यान करता है।उसे पृथ्वी तत्व पर अधिकार होकर पृथु शक्ति व् सिद्धि की प्राप्ति होती है।वो अनंत विश्व का सम्राट् बनता है।
तथा अब मैं “आं” बीजाक्षर से- मैं ही स्वयं के सभी कर्मो की कर्ता और भोगता आदि भी हूँ,अतः मैं ही सर्व कर्मो की स्वं प्रेरणा-इच्छा-क्रिया-ज्ञान देने से ज्ञानी हूँ और उस ज्ञान को स्वं के आनन्द को विस्तारित करने स्वं आज्ञा स्वं की शक्ति को क्रिया करने को देने के कारण ही मैं “आज्ञेयी” कहलाती हूँ।जो।मेरे इस स्वरूप अर्थ को ध्याता और मनन करता है।वो सभी जड़ पदार्थ और चैतन्य जीवों पर जो आज्ञा करता है।वो सम्पूर्ण होती है।इससे उसे आज्ञेयी सिद्धावस्था की प्राप्ति होती है।
इससे आगे जब मैं अपने “यं” बीजाक्षर से-मैं ही स्वयं के कर्म जो मेरे अर्द्ध रूप नर नारी यानि अर्द्धांग और अर्द्धांग्नि के प्रेम सहयोग से किये और भोगे जाते है। और उनका एश्वर्य यश,प्रतिष्ठा की भागीदार और भोगीदार भी मैं ही, उन दोनों के एक सम्पूर्ण स्वरूप के रूप में मैं ही हूँ, अर्थात मैं ही समस्त एश्वर्य और यश आदि की ईश्वरी हूँ यो मैं ही “यशेषी” कहलाती हूँ।यो जो मेरे इस स्वरूप और अर्थ का चिंतन ध्यान करता है,उसे विश्व के सभी लौकिक और अलौकिक यश एश्वर्य की प्राप्ति होती है।
और आगे मैं जब अपने “ऐं” बीजाक्षर से- मैं ही स्वयं की स्वं इच्छा और क्रिया से स्वं जन्मा और स्वयं उत्पत्तिकर्ता और स्वयं संहारक हूँ। और यो ही मैं स्वयं में सर्व स्त्री और पुरुष के इस दो द्धैत रूपों की आदि-मध्य- और अंतिम यानि त्रिअवस्था में भी एक ही स्त्री स्वरूप एक हूँ,यो मैं अकेली ही “ऐकली” कहलाती हूँ।यो जो मेरे इस स्वरूप का अर्थ सहित चिंतन ध्यान करता है।उसे अपने ही समस्त जीव जगत का केंद्र स्वरूप स्वयं की एकल स्वरूप का दर्शन होता है और वो अपने में ही अद्धैत अवस्था की सिद्धि को पाता है।तब उसका कोई अहित नहीं कर सकता और अहित होता है।वो निर्द्धन्दता को प्राप्त होता है।
तथा इससे आगामी अवस्था में जब मैं अपने “नं” बीजाक्षर से-मैं ही नव नव यानि नए नए सूक्ष्म से स्थूल स्वरूपों में विभिन्न साकार रूप में सर्वत्र व्याप्त हूँ, अर्थात समस्त नवीनता की जननी और कारक और कर्ता केवल मैं ही हूँ, यो इस ज्ञान के कारण मैं ही “नवेषी” कहलाती हूँ।यो जो मेरे इस स्वरूप का अर्थ सहित ध्यान करता है।उसे समस्त नवीनता की सृष्टि कैसे होती है।इस परम् विद्या का महाज्ञान प्राप्त हो जाता है ओर वो नवीन सृष्टि करने में पूर्णतया सक्षम होता है।
तथा इसके उपरांत मैं जब अपने “मं” बीजाक्षर से-मैं ही प्रेम के सर्व आनन्द का सार “सोम रस” अर्थात “मद्य” हूँ,यो समस्त रसों के मध्य बसने वाली और उसको पल्लवित करने वाली और रसावदन करने वाली मैं ही होने से मैं “मद्यई” कहलाती हूँ।यो ही मुझ पर सभी प्रकार के रसों को प्रसाद रूप चढ़ाया जाता है।और उसे उन्ही भक्तों के रूप में उनके आनन्द से स्वयं ग्रहण करती हूँ।यो जो मेरे इस स्वरूप का अर्थ सहित ध्यान मनन करता है।उसे समस्त आनन्दों का कारण और उत्पत्ति और इसके फल का रहस्य ज्ञान प्राप्त हो जाता है।उसे कोई विष या मद्य या नशा प्रभावी नहीं होता है और वो इन सभी अवस्थाओं में रहकर परमानन्दित रहता है।
और अंत में मैं जब अपने “हं” बीजाक्षर से-मैं ही आपान-प्राण के द्धारा उत्पन्न शब्द-वर्ण-अक्षरों और भाषाओँ के संयोग का पूर्णत्त्व हूँ,और इस महाज्ञान के संधिस्थल यानि केंद्र में जो है,जो सदा स्थिर और स्थित है-“हंस” यानि सिद्धिसिद्ध महामंत्र-“सत्य ॐ सिद्धायै नमः” का प्रारम्भ अक्षर “स” और मध्य अक्षर ॐ का “अंग” तथा अंतिम अक्षर नमः का “ह” का एक गोलाकार व्रत जब बनता है,तब कभी “स” प्रारम्भ लगता है,तो कभी “ह” अंत लगता है,और पुनः अंतिम अक्षर “ह” से नवीन सृष्टि होने के कारण “ह” प्रारम्भ लगता है और “स” अंतिम अक्षर लगता है,यो दोनों का मध्य “अंग” मध्य यानि बीज ही बना रहता है,तब इस पर मनन या जपने से ये “हंस” या “संह” का व्रत चक्र बनता रहता है ,यो इस मूल अक्षर को ही “आत्मा” कहा जाता है,या यो कहे कि- आत्मा का नाम हंस है, और उसी संह का ही विस्तारित स्वरूप ‘सहम्’ यानि “सोहम्” भी है।यानि समस्त में मैं ही हूँ। यो मैं इस मूल ब्रह्म अक्षर हंस की मूल क्रिया शक्ति होने के कारण ही “हंसी” कहलाती हूँ।जो मेरे इस स्वरूप का अर्थ सहित चिंतन ध्यान करता है।उसे समस्त जीवों और जड़ चैतन्य में स्वयं का ही बोध होता है और अन्यों को भी उसमें ये मैं ही हूँ का बोध होता है।तब समस्त विकार मिट जाते है और अहिंसक प्रेमानन्द की प्राप्ति होती है।ऐसे स्त्री पुरुष को कोई जड़ चैतन्य जीव अजीव अहित नहीं पहुँचाता है।अद्धैत महाभाव की प्राप्ति होती है।
यही मेरा सिद्धासिद्ध महामंत्र के सौलह कला बीजाक्षर शक्तियों के प्रत्यक्ष
ज्ञान सहित अंह और उस ज्ञान का सर्व स्वरूप अहं मैं ही हूँ। यो ये जाना और उसे धारण कर, विस्तारित करना ही मेरी अहं रहित अवस्था ही “अहम् सत्यास्मि” कहलाती है।यो जो मेरे यानि स्वयं के इन सौलह कला स्वरूपी शक्तियों का आत्म मनन चिंतन करता आत्मा की सम्पूर्ण अवस्था में स्थित रहता है,वही अपने और सर्वत्र रूप में, परमात्मा या ईश्वर और ईश्वरी है। और पूर्ण होने से “पूर्णिमाँ” कहलाता या कहलाती है।क्योकि मैं सर्व स्वरूपों में भिन्न और अभिन्न भी हूँ,यो मैं ही सत्य की शक्ति सत्यई हूँ। और सत्य ही अपनी शक्ति सत्यई के साथ संयुक्त अवस्था में अंतिम और सम्पूर्ण है,यो मैं “सत्यई पूर्णिमाँ” कहलाती हूँ।और मेरा यही सौलह कला शक्ति स्वरूप पूर्णिमां के रूप में चारों युगों में चार नवरात्रि अर्थ बनकर और वर्तमान में चार स्त्री युग में प्रथम सिद्ध युग में प्रकट होकर स्वकल्याण कर रहा है। यो जो भी इस सिद्धासिद्ध महामंत्र का सहज या सौलह बीजों को एक क्रम से जपता ध्यान करता है।उसकी कुंडलिनी जाग्रत होकर,उसे सर्व ऋद्धि सिद्धि की प्राप्ति होकर परम् अभेदावस्था की प्राप्ति होकर अहम् सत्यास्मि की परमावस्था प्राप्त होती है।वो जीवंत ही मुक्त और मोक्ष का अधिकारी बन सदा आनन्दित और सम्पूर्ण रहता है।तो पूर्णिमाँ के दिन और रात्रि को अवश्य इस सिद्धासिद्ध महामंत्र- सं तं यं अं उं मं सं ईं दं धं आं यं ऐं नं मं हं सत्य ॐ सिद्धायै नमः ईं फट् स्वाहा!! का कम से कम 16 माला या रेहि क्रिया योग से जप ध्यान करना चाहिए।और यज्ञ भी कर सके तो अति उत्तम होगा।इसके निरन्तर जप ध्यान से स्वयं के पूर्व रूप पूर्वज और स्वयं के वतर्मान अंश यानि वंशजों को अपने आप ही जप शक्ति की प्राप्ति होकर, सभी देव-ऋषि-पितृ आदि ऋणों का शोधन होकर ऊपर दिये सभी सुख कल्याण और ऋद्धि सिद्धि की प्राप्ति होती है।यो आज पूर्णिमासी से अमावस्या तक या अन्य सभी पर्वों पर निसंशय होकर आरम्भ करें और परमफल पाये।

इस प्रकार से श्रीमद् सत्यई पूर्णिमां से अद्धभुत आत्मज्ञान को पूर्णिमासी के दिन सुनकर भगवान सत्यनारायण अति गदगद भावाविष्ट होकर प्रसन्नचित होकर बोले कि-हे महादेवी-जो भी भक्त आपके इस आत्मज्ञान को 12 पूर्णमासी के दिन और चारों नवरात्रि में श्रद्धा से चिन्तन मनन करते महामंत्र का जप ध्यान करेगा और इसे अन्य भक्तों को भी सुनायेगा,और आपका प्रिय भोग खीर का प्रसाद बनाकर स्वयं ग्रहण और बंटेगा, उसका सर्व भुत-वर्तमान-भविष्य के सभी ऋणों व् पापों से अति शीघ्र मुक्ति होकर सभी लौकिक और अलौकिक मनोकामनाएं सम्पूर्ण होकर इष्ट और अभीष्ट सिद्धि की प्राप्ति होगी।ये मेरा सत्य वचन है।

सिद्धासिद्ध महामंत्र सम्बंधित और भी विज्ञानवत ज्ञान आगामी लेख में कहूँगा।

 

 

इस लेख को अधिक से अधिक अपने मित्रों, रिश्तेदारों और शुभचिंतकों को भेजें, पूण्य के भागीदार बनें।”

अगर आप अपने जीवन में कोई कमी महसूस कर रहे हैं घर में सुख-शांति नहीं मिल रही है? वैवाहिक जीवन में उथल-पुथल मची हुई है? पढ़ाई में ध्यान नहीं लग रहा है? कोई आपके ऊपर तंत्र मंत्र कर रहा है? आपका परिवार खुश नहीं है? धन व्यर्थ के कार्यों में खर्च हो रहा है? घर में बीमारी का वास हो रहा है? पूजा पाठ में मन नहीं लग रहा है?
अगर आप इस तरह की कोई भी समस्या अपने जीवन में महसूस कर रहे हैं तो एक बार श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज के पास जाएं और आपकी समस्या क्षण भर में खत्म हो जाएगी।
माता पूर्णिमाँ देवी की चमत्कारी प्रतिमा या बीज मंत्र मंगाने के लिए, श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज से जुड़ने के लिए या किसी प्रकार की सलाह के लिए संपर्क करें +918923316611

ज्ञान लाभ के लिए श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज के यूटीयूब  https://www.youtube.com/channel/UCOKliI3Eh_7RF1LPpzg7ghA  से तुरंत जुड़े

 

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श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येंद्र जी महाराज

बोलो-जय जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः

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