1996 में जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद दिल्ली पहुंचे लालू यादव के इन शब्दों की याद बहुतों को होगी। आज लालू पुत्र तेजस्वी यादव ने जब कहा कि..
आधारहीन वक्तव्य नहीं है। 1997 में लालू चारा घोटाले में पहली बार गिरफ्तार हुए।
सभी ने उनकी राजनीतिक मौत की भविष्यवाणी कर दी थी। लेकिन, लालू तबसे आजतक बिहार की राजनीति के पर्याय बने रहे।उनकी हस्ती को कोई भी मिटा नहीं पाया।
आज जब लालू को चारा घोटाले के एक अन्य मामले में जेल की सजा हुई तब फिर प्रतिद्वंद्वियों के साथ-साथ मीडिया का भी बड़ा वर्ग उनकी’राजनीतिक मौत’ की भविष्यवाणी करने लगा है।बगैर किसी जोख़िम के मैं यहाँ चिन्हित कर दूं कि ऐसी भविष्यवाणी करने वाले फिर मुँह की खाएंगे। क्योंकि लल्लू नहीं हैं लालू!
तथ्यों से अनजान, या जानबूझ कर उनपर पर्दा डाल रखने वाला यह वर्ग समतावादी समाज का विरोधी है।प्राचीन वर्ण-व्यवस्था का पक्षधर इस वर्ग को दलित-उत्थान कांटे की तरह चुभता है।लेकिन बिहार का कड़वा ‘जातीय सच’ अपनी जगह अटल है।भाषण देने के लिए, लिखने के लिए ‘जातिवाद विरोध’ एक सरल-सुगम आकर्षक विषय है।लेकिन, व्यवहार के स्तर पर, कुछ अपवाद छोड़, सभी कट्टर जातिवादी ही हैं।
1990के आरंभ में जब लालू पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तब उनकी पार्टी को विधानसभा में बहुमत प्राप्त नहीं था।झारखण्ड मुक्तिमोर्चा, वामपंथी दल और अन्य छोटे गुटों के समर्थन पर उनकी सरकार टिकी थी।शासन के आरंभ में लालू ने प्रदेश के सर्वांगीण विकास के लिए अनेक क्रांतिकारी कदम उठाए थे। तभी तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कर बिहार सहित पूरे देश की राजनीतिक-सामाजिक फिज़ां बदल डाली।अपने”गॉड फादर” राजा साहब(वीपी) के हुक़्म पर लालू ने आयोग की सिफारिशों के समर्थन में वस्तुतः पूरे बिहार प्रदेश को जातीय आधार पर बांट डाला।पूरे बिहार में जातीय विद्वेष-घृणा का एक ज्वार उठ खड़ा हुआ।दुःखद रूप से उक्त ज्वार की शिकार पुरानी-नई दोनों पीढ़ी हुई आरंभिक’ क्रांतिकारी कदम’ गुम हो गए।विकास दरकिनार, सिर्फ जाति,जाति और जाति! लालू यहां चूक गए।
बिहार के एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी ने तब मुझसे कहा था कि,’ अगर लालू ने विकास पर ध्यान दिया होता तो वे मसीहा बन जाते। ..लेकिन दुःखद कि विकास के नाम पर एक लाल ईंट भी कहीं नहीं लगी।’
किन्तु, विडंबना देखें।और देखें बिहार का सच!अगले1995के चुनाव में लालू को पूर्ण बहुमत प्राप्त हो गया।जबकि तब ‘चारा घोटाला’ सुर्खियों में आ चुका था।बावजूद इसके’जातीय लट्ठ’ सब पर भारी पड़ा। विकास के ऊपर जातीय प्राथमिकता लालू के लिए ‘जीत का फार्मूला’ साबित हुआ।
1995 में पुनः मुख्यमंत्री बनने के बाद दिल्ली में लालू से मेरी मुलाकात हुई।मैंने उन्हें जनता द्वारा पुनःप्रकट विश्वास में निहित आकांक्षा की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए विकास की जरूरत बताई।लालू की प्रतिक्रिया क्षोभकारी थी।उन्होंने अनेक पूर्व मुख्यमंत्रियों के नाम गिनाते हुए कहा,”…इन सभी ने विकास का नारा दिया था, लेकिन जनता ने क्या किया?..”…..” पर लात मार बाहर निकाल दिया….!….मुझे बाहर नहीं निकलना।”अर्थात, विकास नहीं करना।लालू-राबड़ी ने मिलकर 15 वर्षों तक बिहार पर शासन किया।
यही था तब के बिहार का सच।
उल्लेखनीय ये भी है कि 2015 का विधानसभा चुनाव लालू ने नीतीश और कांग्रेस के साथ गठबंधन कर तब लड़ा जब वे चारा घोटाला में सजायाफ्ता थे।परिणाम से सभी अवगत हैं।लालू के राष्ट्रीय जनता दल को सर्वाधिक सीटें मिलीं।नीतीश के जदयू से भी अधिक।महागठबंधन की सरकार बनी।परंतु, राजनीतिक अवसरवादिता ने विचित्र खेल खेला।जिस नीतीश ने नरेंद्र मोदी का विरोध करते हुए कभी भाजपा से नाता तोड़ लियाथा,’संघ-मुक्त’ भारत का आह्वान किया था, वही नीतीश लालू से नाता तोड़ भाजपा की गोद में बैठ गए! भाजपा के समर्थन से लालू को बाहर कर नई सरकार का गठन कर लिया।
अब परिस्थितिया कुछ बदली अवश्य हैं, किन्तु जातीय-रोग अभी भी विद्यमान है।
लालू के ताज़ा जेल जाने में उनके राजनीतिक जीवन का अंत देखने वाले किसी मुगालते में न रहें।बनते-बिगड़ते जातीय समीकरण के बीच,संभावना शेष है कि लालू निर्णायक रूप में प्रासंगिक बने रहेंगे।हाँ, परिवर्तन का वर्तमान कालखंड विकास का आग्रही है।इस बात को ध्यान में रख कर ही लालू एवं उनके समर्थक-अनुयाइयों को भविष्य की रणनीति बनानी होगी।
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वरिष्ठ पत्रकार श्री एस.एन विनोद
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