डॉ० स्वतंत्र जैन ने एक बहुत बड़ी मुहिम छेड़ी है जिसमें वो पूरे बीस लाख ऐसे विचाराधीन कैदियों को छुड़वाना चाहते हैं जो गरीबी और जमानत के आभाव में बहुत ही मामूली अपराध के कारण जेल में बंद है और इनमें कुछ तो ऐसे हैं जिन्होंने अपराध किये ही नहीं हैं लेकिन शक के आधार पर या दूसरों के लगाए इल्जाम की वजह से जेलों में बंद हैं।
डॉ० स्वतंत्र जैन के मुताबिक बिहार का एक केस था जिसमें मात्र 300 रूपये के आरोप में एक व्यक्ति को पकड़ लिया गया, वो मजदूर था। जिसने चोरी की भी नहीं थी। वो अपनी मजदूरी के पैसे लेकर वहां से गुजर रहा था कि वहीँ मौजूद एक व्यक्ति ने शोर मचा दिया और उस मजदूर को पकड़ लिया। इसके बाद मजदूर पर चोरी का इल्जाम लगा दिया और उसको पुलिस पकड़कर ले गयी चूँकि उसके पास से इल्जाम लगाए गए 300 रूपये बरामद हो गए थे इस पर मजदूर को जेल में डाल दिया। इसके बाद कोर्ट में उस मजदूर पर सुनवाई हुई जिसमें उसने हर बार अपने को बेगुनाह बताया। जेल में 7 साल बीत जाने के बाद मजदूर ने एक दिन तंग आकर अपना गुनाह क़ुबूल कर लिया इस पर जज ने पूंछा की इतने सालों से तुम जेल में बंद हो तुमने इतने सालों में अपना गुनाह क्यों कबूल नहीं किया? इस पर मजदूर ने कहा कि मैंने वैसे तो गुनाह किया ही नहीं था लेकिन जेल में बंद मैं तंग आ गया था मेरे पास मेरी बेगुनाही का कुछ सबूत तो था नहीं जिसे आपके सामने पेश करता और मेरे घरवाले इतने गरीब हैं कि वो मेरी जमानत भी करवाने में सक्षम नहीं हैं इस वजह से मुझे किसी ने जेल में सलाह दी और जो मैंने किया ही नहीं वो जुर्म मैंने आज कबूल कर लिया अब जो सजा मुझे देनी है आप मुझे दे सकते हैं। इस पर जज साहब खुद भी हैरान हुए चूँकि (इस मामूली चोरी की जो उस मजदूर ने की है नहीं थी) ऐसे केस में कम से कम 3 महीने और अधिकतम 2 साल की सजा का प्रावधान है। और उसको बरी कर दिया गया।
न जाने कितने ऐसे लोग जेल में बंद हैं जो खुद नहीं जानते कि उन्हें जेल से निकलने के लिए क्या करना है किसके पास जाना है? बहुत से लोग इतने गरीब हैं कि उनके पास जमानत तक के पैसे नहीं होते।
नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के अनुसार दिस. 2012 तक भारत में 64.7% विचाराधीन कैदी हैं; यह एक बहुत बड़ी संख्या है, जो कि लगभग ढाई लाख होती है. पूरे विश्व में यह संख्या लगभग तीस लाख होती है.
इनमे से लगभग बीस लाख तो ऐसे विचाराधीन कैदी हैं, जो कई साल से जेलों में रह रहे हैं. उनके द्वारा किये बहुत छोटे अपराध या किसी मजबूरी, लालच, या क्रोध वश में की गयी एक छोटी सी गलती से पीडि़त इन कैदियों और इनके बेबस, लाचार परिवार के प्रति हमारी भी जिम्मेदारी होना चाहिये.
हमारी भारतीय न्याय व्यवस्था दोष साबित होने तक हर व्यक्ति को निर्दोष मानने के सिद्धांत पर आधारित है. अतः चार्जशीट पेश होने के बाद किसी भी विचाराधीन कैदी को मात्र इस कारण जेल में रखना अनुचित है कि वह अपनी गरीबी के कारण अपनी जमानत की व्यवस्था नहीं कर पा रहा है.
हमारी जेलों में हजारो-लाखों कैदी बिना मुकदमें या सजा के अत्यन्त दयनीय हालत में जेल के अंदर रखे हुए है, एक तरह से सड़ रहे हैं, पीडि़त हैं,
लेकिन उनके बारे में कोर्इ नही सोच रहा है। क्या यह उचित नहीं होगा कि जिस तरह से सड़ने से बचने के लिए अनाज को बांट देने का निर्देश माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया था, उसी तरह इन पीडि़त कैदियों को भी; जो कि छोटे-छोटे जुर्म या अपराध के कारण हमारी जेलों में तीन वर्ष या अधिक समय से रखे हुए हैं, और उनकी सजा ही मात्र 6 महीने से 12 महीने की ही होना है; उन्हे तत्काल प्रभाव से छोड़ दिया जाना चाहिये।
कुछ एन.जी.ओ. द्वारा केंद्रीय सरकार को दी गयी एक याचिका में अपील की गयी है कि ऐसे विचाराधीन कैदियों को जो एक साल कैद में गुजर चुके हों, और उन्हें अधिक से अधिक 7 साल की सजा हो सकती है, उन्हें खुदबखुद जमानत मिलने का प्रावधान होना चाहिए, ताकि वे अपने परिवार के पास रह सकें और जब भी उन्हें सजा सुनाई जाए, उन्हें पुनः जेल भेज दिया जाये.
मेरा निवेदन है कि जिस तरह देश के हर व्यक्ति, हर परिवार को स्वास्थ्य, शिक्षा, रसोई गैस आदि के लिए हर माह हजारों रुपयों की सब्सिडी दी जा रही है.
क्या पूरे संसार में इसी तरह कोई ऐसी व्यवस्था नहीं हो सकती है कि आम नागरिकों को दी जा रही इस सब्सिडी की राशी में से ही उनकी कुछ हजार की जमानत की राशी की व्यवस्था की जा सके और उतने समय तक उन्हें सब्सिडी नहीं दी जावे.
इस तरह उनकी भी रिहाई संभव हो सकेगी और उनका परिवार भी सामान्य जीवन जी सकेगा.
अक्सर यह कहा जाता है कि हमारे यहां न्यायपालिका में जजों की काफी कमी है और मुकदमों की भरमार है। अतः यही वह कारण है कि हमारे यहाँ विचाराधीन कैदियों की संख्या इतनी ज्यादा है.
तब सवाल उठता है कि यह किसकी गलती या कमजोरी है, या मिस प्लानींग या मिस मेनेजमेंट है, जिसकी सजा ये बेबस कैदी उठा रहे हैं। क्या उन्हें सुधरने का मौका नहीं मिलना चाहिये? अधिकांश कैदी जुर्म से ज्यादा की सजा काट चुके हैं।
क्या किसी फेक्टरी में अगर मिस प्लानींग या मिस मेनेजमेंट से उत्पादन में कमी होती है तो क्या उसकी सजा कर्मचारी को मिलनी चाहिये? नहीं उसके सी.र्इ.ओ. को ही जवाबदेह ठहराया जायेगा और उसे शीघ्र ही सुधार करने हेतु कहा जायेगा या फिर उसे बदलकर नया सी.र्इ.ओ. लाकर यह खराबी या मिस-फंक्शनिंग दूर की जावेगी।
अगर कोर्इ सी.र्इ.ओ. अपना काम महिनों बल्कि सालों में भी पूरा न करे और इसका कारण काम के बोझ और कर्मचारियों की कमी को बताये और कहे कि हमारा स्टाफ बहुत लगन, मेहनत और परिश्रम से कार्य कर रहा है और बधार्इ का पात्र है तो आप क्या करेंगे? शायद उस सी.र्इ.ओ. को ही हटा देंगे।
पुलिस अगर यह कहे कि अपराध बढ़ रहे हैं और हमारे पास पुलिस फोर्स कम है, इसलिये हम अपराध नियंत्रित नहीं कर पा रहे हैं। साथ ही अपने पुलिस फोर्स की तारीफ भी करे कि वे बहुत अच्छे हैं तो क्या आप उसे अच्छा मानेंगे? नहीं न क्योंकि यह जिम्मेदारी तो टाप मोस्ट मेनेजमेंट की सुना है कि Justice delayed is Justice denied. अगर चोर चोरी करे, डाके डाले और पुलिस कहे कि यह चोर बहुत चतुर है, हमे सबूत नहीं दे रहा है या हमे गलत सबूत देकर भटका रहा है, टालमटोल कर रहा है, कानूनी दांव पेच अपनाकर पकड़ार्इ में नहीं आ रहा है। साथ ही पुलिस ऐसे चोरों को न पकड़ने वाले अपने पुलिस कर्मियों की मेहनत (?) की तारीफ करे, उन्हें होशियार एवं काबिल बताये, तो क्या हमें पुलिस की पीठ थपथपाना चाहिये?
यहाँ पर कुछ प्रश्न उपस्थित होते हैं-
1. क्या ऐसे बेबस विचाराधीन कैदियो के प्रति यह मानवाधिकार का हनन नहीं है?
2. क्या हम उसे और उसके परिवार को अपराधी ही बने रहने देना चाहते है?
3. क्या यह स्वतंत्रता के मूलभूत सिद्धांत के विपरीत नहीं है?
4. क्या यह संविधान की मूल भावना के विरूद्ध नहीं है?
5. क्या किसी एक की गलती या मिस-मेनेजमेंट की सजा उसे न देकर किसी ओर को देने के या उसके पूरे परिवार को देने के समान नहीं है, पीडि़त करने के बराबर नहीं है?
6. क्या सरकार का भी करोड़ो रूपया इन कैदियो पर व्यर्थ ही नहीं खर्च हो रहा हैं और देश पर बोझ भी नहीं बढ रहा है?
7. क्या यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के विरूद्ध नहीं है क्योंकि जुर्म से ज्यादा की सजा मिल चुकी है और सुधरने का मौका भी नहीं मिल रहा है?
8. इंजीनियर, डाक्टर, मैनेजर, बिजनेसमेन आदि सभी को जिम्मेदारी से काम करना पड़ता है और अगर उनकी प्रणाली में कोर्इ दोष पाया जाता है तो उसे सुधारने या उसकी सजा भुगतने की जिम्मेदारी भी उन्ही की होती है। किसी दूसरे की लापरवाही, गलती या व्यवस्था की कमजोरी की सजा ये लाखों लोग कब तक उठाते रहेंगे?
मैंने यूनाइटेड नेशंस और चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया से अनुरोध किया है कि बहुत छोटे अपराध या किसी मजबूरी, लालच, या क्रोध वश में की गयी एक छोटी सी गलती से जेलों में विचाराधीन कैदी बन सजा पा रहे कैदियों को जिनकी सजा ही मात्र 6 महीने से 12 महीने की ही होना है; उन्हे जल्द से जल्द छोड़ दिया जाना चाहिये।
फिर भी अगर उनको सिर्फ जमानत पर ही छोड़ा जाना संभव है, तो मेरा न्यायपालिका तथा कार्यपालिका से नम्र निवेदन है कि वे हमें इन कैदियों के नाम और जमानत राशी बताएं, ताकि हम हमारे मुक्तियाँ विश्व शांति, सुख, सम्रद्धि ट्रस्ट के माध्यम से जन सहयोग से इन विचाराधीन कैदियों को छुड़वा सकें.
अतः आप सभी से निवेदन है कि मेरी इस अपील को आप भी इतना ज्यादा शेयर करें कि पूरे विश्व में इसकी गूँज सुनाई दे और सभी देशों कि सरकारें इन विचाराधीन कैदियों को जमानत पर छोड़ने के लिए बाध्य हो जाएँ.
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डॉ. स्वतंत्र जैन
अध्यक्ष : मुक्तियाँ विश्व शांति, सुख, सम्रद्धि ट्रस्ट
अध्यक्ष : अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संघ, इंदौर
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