हृदयतल को स्पर्श करतीं डॉ किशोर सोनवाने” अनीस” की ग़ज़लें
आज देश-दुनिया में हिन्दी ग़ज़ल का बोलवाला है। तमाम पत्र- पत्रिकाओं में ग़ज़ल को प्रमुखता से स्थान दिया जा रहा है। स्व. दुष्यंत कुमार के बाद, उनकी परम्परा को आगे बढ़ाने वाले ग़ज़लकारों की एक बड़ी तादाद है, जो हिन्दी में बेहतरीन ग़ज़लें लिख रहे हैं, गा रहे हैं, कह रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि अगर हम बात ग़ज़ल की करें तो ग़ज़ल को हिन्दी गज़ल या फारसी या उर्दू गज़ल कहना बेमानी है, क्योंकि समूची गज़लों में हमारा समूचा जीवन बोलता है। ग़ज़ल, ग़ज़ल हैं, उसमें भेद नहीं किया जाना चाहिये और न अलग–अलग खाने बनाने की ज़रूरत है।
आज हम एक ऐसे ग़ज़लकार का ज़िक्र करने जा रहा हैं, जिनकी लाजवाब ग़ज़लें पढ़ते ही बनती हैं, ऐसे मशहूर- मारूफ ग़ज़लकार का नाम डॉ किशोर सोनवाने ” अनीस” है। बहरहाल आज,,हिन्दी में जो गज़लें लिखी जा रही हैं, उन्हें उर्दू कवि स्वीकार नहीं कर पाते हैं। दरअसल उसमें मीटर और नाप जोख की दीवारें हैं। इसलिये देवनागरी में लिखी जा रही गज़लों को हिन्दी में गज़ल कहने या मानने की एक लचर परम्परा विकसित हो रही है, बगरहाल, यह मसला बाहरी है और एक तरह बेमानी भी है। किसी भी भाषा की लोकप्रिय विधा के सामने कभी कोई अवरोध आड़े नहीं आता। गज़ल की हम जब भी बात करते हैं, उर्दू का नाम ज़रूर आता है। जाहिर है कि अब गज़ल आशिक–माशूक के तकरार–इकरार और हुश्न–ओ–इश्क का मामला नहीं हैं, और आज की ग़ज़ल आम आदमी के दुख-दर्द और उसकी तकलीफ की तर्जुमानी करती है। डॉ किशोर सोनवाने साहिब की ग़ज़लें प्रगतिशील सोच का एक सच्चा आईना हैं। डॉ किशोर सोनवाने की ग़ज़लें ज़िन्दगी के तमामतर अहसासों का एक गुलदस्ता हैं। डॉ किशोर सोनवाने साहिब की ग़ज़लें पढ़कर लगता है कि डॉ सोनवाने ने ज़िन्दगी को बहुत नज़दीक से छुआऔर महसूस किया है। ज़िन्दगी के हर खट्टे- मीठे अनुभव डॉ किशोर सोनवाने साहिब की ग़ज़लों में सहज ही दिखाई पड़ते हैं। डॉ किशोर सोनवाने साहिब की ग़ज़लें सामाजिक, राजनीतिक विसंगतियों पर करारा प्रहार तो करती ही हैं, साथ ही उनकी ग़ज़लें प्यार,मुहब्बत और अमन-चैन का संदेश बखूबी देती हैं। एक खास बात और, वह यह कि डॉ किशोर सोनवाने साहिब ग़ज़ल की सारी बंदिशों का पूरी तरह खयाल रखते हुए ऐसे शेर कहते हैं, जो दिल की गहराइयों को छू जाते हैं। सच कहा जाए तो डॉ सोनवाने साहब एक अच्छे और बड़े ग़ज़लकार हैं। उनकी ग़ज़लों की भाषा में भी बहुत मिठास है। और ग़ज़ल की भाषा बहुत मायने रखती है। मैं मानता हूँ कि दाग़ सबसे अच्छे शायर हुए हैं।उन्होंने ग़ज़ल को फ़ारसी ने निजात दिलाई। इकबाल के उस्ताद थे दाग़।ग़ज़ल को अलग मुहावरा दिया। इन्होंने और कई लोगों ने आगे चलकर दाग़ के स्टाइल मे शायरी भी की।दाग देहलवी एक परंपरा बन गई। 1865 में बहादुर शाह जफ़र की मौत के बाद ये रामपुर चले गए।दिल्ली स्कूल को दाग से एक पहचान मिली।
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी।
आप से तुम तुम से तू होने लगी।।
नहीं खेल ऐ ‘दाग़’ यारों से कह दो।
कि आती है उर्दू ज़ुबां आते आते।।
दाग़ इसी लिए सराहे गए कि वो ग़ज़ल की भाषा को जान गए थे और आम भाषा और सादी उर्दू में उन्होंनें ग़ज़लें कही, यही एक मूल मंत्र है कि ग़ज़ल की भाषा साफ और सादी होनी चाहिए।
ये जो है हुक्म मेरे पास न आए कोई।
इसलिए रूठ रहे हैं कि मनाए कोई।।
इस शे’र को पढ़के कोई क्या कहेगा कि उर्दू का है या हिंदी का. बस हिंदोस्तानी भाषा में लिखा एक सादा शे’र है. हिंदी और उर्दू कि बहस यही खत्म होती है कि एक बोली की दो लिपियाँ है देवनागरी और उर्दू। कहने का तात्पर्य यह है कि डॉ किशोर सोनवाने ग़ज़ल की भाषा के प्रति पूरी ईमादारी बरतते हैं। यूँ हिन्दी में
हिंदी के अनेक रचनाकारों ने इस विधा को अपनाया। जिनमें निराला, शमशेर, बलबीर सिंह रंग, भवानी शंकर, जानकी वल्लभ शास्त्री, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, त्रिलोचन आदि प्रमुख हैं। जिन्होंने हिन्दी ग़ज़ल की विकास यात्रा को आगे बढ़ाया। आज के दौर के ग़ज़लकारों में दुष्यंत कुमार की परम्परा को सलीके से मूर्तरूप देने वाले ग़ज़लकार डॉ किशोर सोनवाने साहिब कहीं बहुत आगे हैं, दो बहुत बढ़िया ग़ज़लें लिख रहे हैं। आज मैं डॉ किशोर सोनवाने ” अनीस” साहिब की ग़ज़लें पेश करने जा रहा हूँ, इस उम्मीद के साथ कि आपके हृदयतल को स्पर्श कर सकेंगी।
शै बदल तो जाती है आजकल जमाने में ।
फर्क कुछ तो रहता है हर नए पुराने में ।।
ज़ख्म हो गया है अब लाइलाज ही शायद ।
उम्र लग गयी हमको ज़ख्म इक सुखाने में ।।
शहृ जब कभी जाओ तुम खरीदकर लाना ।
बिक रहा इमां अब तो फक्त चार आने में ।।
दर्द इस कदर दिल में है बसा मिरे यारो ।
अश्क़ बह निकलते हैं मेरे मुस्कुराने में ।।
बोझ कर्ज का सर पे था यही सुना लेकिन।
है रखी हुई क्योंकर लाश बारदाने में ।।
उसकी करगुजारी को देखते नहीं वरना ।
दो मिनट लगेगा बस धज्जियां उड़ाने में ।।
मुफ़लिसी ने छीना है किस कदर यहां बचपन ।
तिफ़ल पेट की खातिर मिलते कारखाने में ।।
नाम दोस्ती के ही ज़ख्म ये हुए हासिल ।
रूह कांपती है अब हाथ तक मिलाने में ।।
वक्त भी लगा है यूँ तुमको आजमाने में ।
अब तुम्हें ये डर कैसा सच को सच बताने में ।।
सफ़र है तन्हा के रहबर तलाश करता हूँ ।
मकाँ की भीड़ में इक घर तलाश करता हूँ ।।
कफ़स से छुटके आया निकल परिन्दे सा ।
उड़ान भरने को अम्बर तलाश करता हूँ ।।
जहां का दर्द समेटे जहन में मैं यारो ।
कलम से खुद में ही शायर तलाश करता हूँ ।।
कि जिसके लफ्जों में हरदम ही सचबयानी थी ।
वही तो मस्त कलन्दर तलाश करता हूँ ।।
हुआ है कत्ल मिरा औ खबर नहीं मुझको ।
निगाहेनाज का खंजर तलाश करता हूँ ।।
गुरूर जिसका किया चूर कभी शीशे ने ।
कि शहृ में वही पत्थर तलाश करता हूँ ।।
मुल्क से ही मुहब्बत वफ़ा कीजिये ।
शाद हो मुल्क अब ये दुआ कीजिये ।।
दौरे गर्दिश से गुजरा है अपना वतन ।
साथ इसके न हरगिज दगा कीजिये ।।
आज कुर्बानियों की है दरकार फिर ।।
मुल्क का कर्ज कुछ तुम अदा कीजिये ।।
बोस बिस्मिल बनो मुल्क के वास्ते ।
मुश्किलें कुछ नहीं हौसला कीजिये ।।
पाक हो चीन या अमरिका हो भले ।
दर्दे सर पालकर मत रखा कीजिये ।।
नजरें दुश्मन की सरहद पे गड़ने लगी।
तुम इसी वक्त उसकी दवा कीजिये ।।
लांघते सरहदें आज घुसपैठिये ।
फौजियों तुम भी अब रतजगा कीजिये ।।
जाया हरगिज शहादत ये होगी नहीं ।
मुल्क के हक़ में हर फैसला लीजिये ।।
सींचकर खूँ से अपने बदन के ‘अनीस ‘।
हिन्द के इस चमन को हरा कीजिये ।।
दिल में सबके वतन से मुहब्बत लिखें ।
मुल्क ईमान मजहब इबादत लिखें ।।
दे रही है सदा टूटकर सरहदें ।
अब है कुर्बानियों की जरूरत लिखें ।।
शाद आबाद है हिन्द यारो मगर ।
हर फसादों की जड़ है सियासत लिखें ।।
यूँ ही हासिल न होती है आजादियां ।
देनी पड़ती है लाखों शहादत लिखें ।।
गंध बारूद की सरहद से आने लगी ।
हिन्द कैसे अभी है सलामत लिखें ।।
ऐसी रौनक न देखी सुनी है कहीं ।
यारो कश्मीर को धरती का जन्नत लिखें ।।
अम्न कायम रहे मुल्क में ही सदा ।
रखते दिल में न हम हैं अदावत लिखें ।
जहन में नफरतें भरकर जताना प्यार आदत है ।
सदा ही घोंपना यूँ पीठ पर तलवार आदत है ।।
दिखाकर सब्ज सपने लूट लेती है गरीबों को ।
यहां आवाम को हर हाल देना भार आदत है ।।
यकीं होता नहीं लेकिन सदा ये सच निकलता है ।
कबीले का बिका तारीख में सरदार आदत है ।।
जमाने में किसी को मशविरा देना नहीं अच्छा ।
भला चाहे उसे अक्सर समझना खार आदत है ।।
कलम की सचबयानी ने किया है शहृ में तन्हा ।
लिखूँ मैं आग सा दहका हुआ अशआर आदत है ।।
लगाकर उम्र भर रक्खो मगर रहता पराया है ।
निकलता हर दफा ये दिल यहाँ गद्दार आदत है ।।
ग़ज़लकार-डॉ किशोर सोनवाने ‘अनीस’
आकलन- सलीम तन्हा
(सलीम तन्हा मशहूर शायर हैं, लेखक हैं, एक पत्रिका का संपादन भी करते हैं।, डॉ किशोर सोनवाने की ग़ज़लों के मुरीद शायर सलीम तन्हा ने ये लेख लिखा है)