(श्रीमद् पूर्णिमाँ पुराण से) चैत्र नवरात्रि और उसके बाद आने वाले व्रत, जिसे पुरुष अपनी पत्नी की सर्व भौमिक भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए रखे जाने वाले, स्त्रियों के व्रत करवा चोथ की भांति मनाये जाने वाले प्रेम पूर्णिमां व्रत की चमत्कारी भक्ति में शक्ति की गृहस्थी भक्तों संग घटित हुयी सत्य कथाओं को क्रमशः श्रंखला से बता रहें हैं स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी….
[भाग-1]
चैत्र पूर्णिमाँ व्रत का प्रारम्भ कैसे हुआ :-
ये महासती अनसूया के अत्रि महर्षि से विवाह के कुछ समय के उपरांत की कथा है,जब देवी अनसूया पूर्णिमासी की खिली चांदनी में अपने आसन पर बैठ कर आत्म ध्यानस्थ थी,तभी सहसा उनके चित्त में एक अद्धभुत विचार कौंधा और साकार हुआ की-जिस प्रकार श्री सत्य नारायण भगवान के त्रिस्वरूप त्रिदेवो की धर्म जगत लीलाओं को देव और दैत्यों से लेकर अनगिनत सन्तों तथा जनसाधारण में देव लीला करते हुए ज्ञान-वेराग्य-भक्ति और शक्ति का संदेश देते हुए कल्याणार्थ प्रचार प्रसार करते हुए अनेक तीर्थ स्थान आदि के स्थापना करने में अनुपम सहयोग दिया है।ठीक वेसे ही स्त्री शक्ति के सर्वभौमिक ज्ञान-ध्यान-भक्ति और शक्ति की उन्नति के लिए किसी स्त्री शक्ति को भी ठीक ऐसा ही करना चाहिए!!
अब ये कैसे हो?
ये प्रश्न और इसका समाधान का उत्तर कहाँ और किससे मिलेगा,ये चित्त में संकल्प उदय हुआ।
तब इसी आत्म संकल्प के तपोबल से देवी अनसूया को अनादि त्रिदेवीयों का स्मरण हुआ और स्मरण होते ही-त्रिदेवीयां-ब्रह्म लोक से ब्राह्मणी जो ब्रह्मा की क्रिया शक्ति है वे और विष्णु नारायण लोक से देवी नारायणी जो श्रीमद् नारायण विष्णु जी की क्रिया शक्ति है वे और शिव लोक से देवी ओंकारी जो शिव की क्रिया शक्ति है तथा शिव की प्रथम पत्नी है जिनकी अवतार ही सती और पुनः पार्वती है,वे देवी अनसूया की समाधी लोक में अवतरित हुयी ।जिन्हें देख देवी अनसूया ने उनका स्तुति गान किया,जिससे त्रिदेवी अति प्रसन्न होकर बोली-हे-अनसूया-बताओ क्या प्रश्न है?
देवी अनसूया ने कहा-हे माताओं आप सर्व ज्ञानी और सर्व द्रष्टा है,यो आपको ऐसा कोई विषय नहीं जो ज्ञात न हो।यो मेरे चित्त में जो एक धर्म प्रश्न है,उसे मैं आपसे कहती हूँ की- और उन्होंने अपना धर्म प्रश्न किया।जिसे सुन तीनों माताएं बड़ी ही प्रसन्न और हर्षित होते हुए बोली- हे महाभक्त अनसूया-तुमने स्त्री शक्ति के सर्व कल्याण का जो अति उच्चतम प्रसंग उठाया है,वो ऐतिहासिक है।ये प्रश्न अनेक बार हमारे भी मन में आया था और हमने परस्पर भी और साथ में त्रिदेवों से इस प्रसंग में वार्ता की ,तब यही समाधान निकला की-ये अभी भविष्य में सम्पूर्ण होगा,जो अब तुम्हारे वर्तमान काल में घटित होने जा रहा है,तब हम इस परम् धर्म ज्ञान को त्रिदेवीं स्वरूप में से अपने मूल स्वरूप में एकत्र होकर तुम्हें प्रदान करेंगी।क्योकि वहीं स्वरूप सम्पूर्ण है।जिसका नाम “पूर्णिमाँ” है और यो कहते हुए त्रिदेवी-ब्राह्मणी और नारायणी और ओंकारी का स्वरूप एक स्वरूप में समाहित होता चला गया और महातेजस्वी स्वरूप हो परम् शीतल और अनुपम था,वो प्रकट हुआ।
जिसे देख कर देवी अनसूया की आत्मा भी परमानन्द को प्राप्त होने लगी क्योकि वहीं स्वरूप तो सभी आत्माओं का मूल परम् स्वरूप है-पूर्णिमाँ!!
उन्हें नमन करती,उनकी महिमा गाती देवी अनसूया को भगवती पूर्णिमाँ ने “सतित्त्व भव” का वरदान दिया और बोली-सुनो अनुसूया-जो परम् ज्ञान मैं तुम्हें दे रही हूँ,वही चर्तुथ वेदों का मूल ज्ञान है,जिसके श्रवण और मनन मात्र से सम्पूर्ण स्त्री सहित पुरुषों का सर्व कल्याण होकर जीवंत मोक्ष की प्राप्ति होगी और तब देवी अनसूया को वो महाज्ञान दिया यो ये नवांग सिद्धासिद्ध आत्मज्ञान के “षोढ़ष ज्ञान क्रम” को ही चैत्र माह के नो दिनों जिन्हें नवरात्रि कहते है और उसका समापन पूर्णिमा तक को प्राप्त होने से यही “प्रेम पूर्णिमां” ज्ञान कहलाता है जिसे “सत्यास्मि” भी कहते है।
तब इस सिद्धासिद्ध ज्ञान और उसका महामंत्र-“सत्य ॐ सिद्धायै नमः ईं फट् स्वाहा” और उसकी प्राप्ति को जो ध्यान विधि और अन्य साधना क्रम बताये उन्हें प्राप्त कराते हुए परमावतर पूर्णिमाँ बोली की-अब तुम प्रथम मनु के पत्नी शतरूपा के साथ अन्य छः महर्षियों की पत्नियों को अपने इस धर्म अभियान में सम्मलित करो।क्योकि उन्हें में मैने उनके समाधि लोक में यहीं सिद्धासिद्ध महाज्ञान प्रदान किया है,यो तुम नो महर्षि सुहागन नारियों के द्धारा इस महाज्ञान को कालांतर युगों में भक्त और भक्तनियों को उनके ध्यान और स्वप्नों तथा आवशयकता अनुसार प्रत्यक्ष प्रकट होकर सामूहिक अथवा अकेले ज्ञान लाभ दे कर उनके समस्त दुखों का नाश करो और उन्हें आत्म धर्म की और प्रेरित करो।यो
देवी पूर्णिमाँ का दिया उपदेश संछिप्त में इस प्रकार से है कि-
ईश्वर एक है और उसके दो भाग है- ईश्वर का उत्तर अर्द्धभाग पुरुष है और ईश्वर का वाम अर्द्ध भाग स्त्री है यो ये दोनों एक दूसरे के अर्द्ध भाग होने से अर्द्धांग कहलाते है यो स्त्री को अर्द्धांग्नि कहते है।यो ये मिलकर एक दूसरे के पूरक है।ये दोनों का स्थूल स्त्री और पुरुष रूप साकार कहलाता है और इन दोनों का सूक्ष्म से अति सूक्ष्म रुप निराकार कहलाता है,जिसका एक रूप बीज भी है यो इसी को द्धैत और अद्धैत कहते है।अतः ईश्वर इन दोनों के रूपों में सदैव सजीव बना रहता है यो एक दूसरे की सेवा करनी ही ईश्वर सेवा कहलाती है और एक दूसरे का पूरक बनकर प्रेम करना ही ईश्वर से प्रेम करना कहलाता है और अपने जीवन्त अर्द्ध रूप स्त्री और पुरुष का ध्यान करते हुए एक होने के बोध की प्राप्ति ही आत्मसाक्षात्कार कहलाता है यो ईश्वर की जीवन्त मूर्ति स्वयं स्त्री और पुरुष का जीवित रूप है जो इसका अर्थात स्वयं का ध्यान करता है वह स्वयं ही ईश्वर का ध्यान करता है।यही ज्ञान प्राप्त करना और देना दीक्षा कहलाती है और ज्ञान को प्राप्त होने पर गुरु और प्राप्ति तक शिष्य कहलाता है और सभी प्राणी से लेकर सभी प्रकार के जीव स्वयं ईश्वर की ही जीवित मूर्ति है यो उनकी सेवा करनी भी ईश्वर की सेवा यानि अपनी ही सेवा करनी कहलाती है यही प्रयोगिक ज्ञान ही ग्रहस्थ धर्म कहलाता है।यो जो इस ज्ञान को जानता मानता है वह पुरुष सत्य है और वही ज्ञानी स्त्री अपने ज्ञान स्वरूप में पूर्ण होने से पूर्णिमाँ है,यो पूर्णिमाँ को भिन्न नहीं समझना चाहिए।यो इसे अपनाओ और अपना आत्म कल्याण करो।शेष विस्तार से ज्ञान हेतु सत्यास्मि धर्म ग्रन्थ का अध्ययन करना।
यो वरदान देकर महादेवी पूर्णिमाँ का महास्वरूप पुनः त्रिदेवीयों में विभक्त हुआ और उन त्रिदेवीयों ब्राह्मणी और नारायणी और ओंकारी ने भी यहीं उपदेश और आशीर्वाद देते हुए अपने अपने लोको को प्रस्थान किया।तब इन्हें प्रणाम करते हुए परम् सन्तुष्टि की प्राप्ति करते हुए अपनी समाधि से उठकर भू लोक में प्रकाशित पूर्णिमा देवी के प्रत्यक्ष अवतार चन्द्रमाँ को भी प्रणाम किया और चन्द्रमाँ से भी आशीर्वाद का तेज अलोक उन्हें अपने में प्राप्त हुआ।तब देवी अनसूया ने अपने पति महर्षि अत्रि जो प्रातः स्नान और पूजन को उठ चुके थे,उन्हें ये आत्मानुभूति बताई,जिसे सुन अत्रि मुनि अति प्रसन्न होकर बोले-हे महामति-ये तो सर्व स्त्री शक्ति के साथ साथ सभी पुरुषों और जीवों के कल्याण का अति उत्तम ज्ञान मार्ग है,इस पर चल कर सभी मनुष्य सम्पूर्णता को अवश्य ही प्राप्त होंगे।आप शीघ्र ही अपनी नवदेवीयों की ये भक्ति मण्डली को गठित करो और सर्व कल्याण की और अपने गृहस्थी धर्म पालन के साथ साथ अग्रसर हो जिसमें हमारा भी समुचित सहयोग आपको सभी को प्राप्त होगा।
तब देवी अनसूया ने सर्व प्रथम माता शतरूपा का आवाहन किया और फिर सप्त मनीषियों का जिन्हें मिलाकर इस प्रकार से नो देवी भक्ति मंडली बनी-
देवी शतरूपा,देवी अनसूया,देवी मैत्रेय,देवी अरुधंति,देवी संभूति,देवी स्म्रति,देवी संध्या,देवी सन्नति,देवी,देवी अदिति।जिन्हें अनेकों नामो से भी पुकारा जाता है।को आमन्त्रित किया।सभी ने अपने अपने समाधी काल में यहीं धर्म प्रश्न का त्रिदेवी सहित महावतार महादेवी पूर्णिमाँ से उत्तर प्राप्ति के महाज्ञान को परस्पर कहा और इसी मंत्रणा को करते हुए एक धर्म कीर्तन मण्डली का गठन किया।और आगामी कालांतर और समयानुसार और भी अनेक स्त्री शक्ति देवियों इस धर्म मण्डली में सम्मलित होती चली गयी।मुख्यतया नो और सौलह देवियाँ ही प्रमुख है।जिनका आगामी भविष्यगत धर्म कथाओं में उल्लेखित किया जायेगा।
और सभी नवदेवी प्रत्येक पूर्णमासी के दिन एक स्थान पर एकत्र होकर धर्म चर्चा करती है और स्त्री शक्ति के उत्थान हेतु उनकी प्रार्थनाओं को सुनती और निदान को मानसिक तथा स्वप्निक सन्देश देकर प्रेरित करती है,यो जो स्त्री अथवा पुरुष भक्त पूर्णमासी की रात्रि के मध्य पहर में गुरु मंत्र जपता या जपती हुयी ध्यान करती अपनी मनोकामना कहती है, उसकी अवश्य मनोकामना पूर्ण होने का दिव्य सन्देश प्राप्त होता है और मनोरथ भी सम्पूर्ण होता है।यो जो भी भक्त महादेवि पूर्णिमाँ की उपासना पूर्णमासी को तथा चतुर्थ नवरात्रियों में अवश्य करता करता या करती है,उसकी समस्त मनोकामना पूर्ण होती है।
पूर्णमासी कि सत्यनारायण और सत्यई पूर्णिमाँ की दिव्य सत्यकथा:-
19-4-2019 प्रेम पूर्णिमाँ व्रत कैसे मनाये:-
यह वेदों में वर्णित सृष्टि उत्पन्न होने से पूर्व की बात है जब ईश्वर और ईश्वरी दोनों प्रेम में एक थे तब उस अवस्था को ही लव इज गॉड कहा जाता है तब केवल प्रेम था और इन दोनों के प्रेम से चैतन्य होकर अलग होने के कारण उस माह या समय का नाम चैत्र माह पड़ा यही से हिन्दू सनातन धर्म का नववर्ष प्रारम्भ होता है और इस प्रेम से ईश्वरी ने जो गर्भ धारण किया उसके नो दिनों को ही नवरात्रि कहा जाता है तथा इन नवरात्रि के नो दिनों के बाद मनुष्य जीव जगत की ये सृष्टि हुई जिससे ईश्वेरी माँ बनी यो नवरात्रि को माँ कि नवरात्रि कहा जाता है इस नवरात्रि में माँ के गर्भ में पल रहा जीव संतान अपनी माता से अपने उद्धार को इस अँधकार भरी नवरात्रि से मुक्ति हेतु प्रार्थना
करता है की हे माता अपने इस सन्तान की सभी प्रकार से रक्षा करते हुए मुझे अज्ञान के इस अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की और ले चलो और मुझे सभी प्रकार का दिव्य ज्ञान देकर मेरी मुक्ति करो यही वेदों का मूल मंत्र गायत्री है जो जीव अपनी माँ सविता के गर्भ जो भर्गो है उसमे प्रार्थनारत है और माता उसे अपने ज्ञान ध्यान के बल से अपनी ज्ञान नाभि से जोड़कर ये दिव्य आत्मज्ञान प्रदान करती है यो माँ की उपासना इन चार नवरात्रियों में अर्थ काम धर्म और मोक्ष के रूप में चार वेदों के रूप में जीव द्धारा की जाती है और सविता पूर्णिमाँ इन चार नवरात्रि में उसे अपने गर्भ के अंतिम चार माह में प्रदान करती है और यो माँ के आठ गर्भ माह ही सच्ची अष्टमी कहलाती है और गर्भ का नो वा माह में माँ अपनी सन्तान को अपने से दिव्य ज्ञान ध्यान की सम्पूर्ण शिक्षा दीक्षा प्रदान के उस नवरात्रि अंधकार से प्रकर्ति में बाहर प्रसव वेदना को सहती हुयी लाती है तब जीव अपने संसारी कर्मो के कर्म भावों को माँ से प्राप्त दिव्यज्ञान को प्राप्त करता चार कर्म धर्मों में सम्पूर्ण करता है यही है सच्ची नवरात्रि साधना कथा और आगे तब ईश्वर पिता ने अपनी संतान जीव जगत का सोहल संस्कार के साथ नामकरण किया यो ईश्वर पिता ही सवर्प्रथम जीव का गुरु बना यो इस *चैत्र नवरात्रि की आगामी पूर्णिमा को इतनी सारे कारणों से *प्रेम पूर्णिमा* कहा जाता है और इसी दिन ईश्वर पुरुष ने अपनी प्रेम पत्नी ईश्वरी व अपनी संतान के लिये सवर्प्रथम व्रत रखा जो प्रेम पूर्णिमाँ व्रत कहलाता है जैसे स्त्री अपनी पति संतान की मंगल कामना के लिया कार्तिक माह में “करवा चौथ व्रत” रखती है। वैसे ही ये व्रत भी निम्न प्रकार से किया जाता है कि पूर्णिमा की दिन पुरुष निराहार रहकर प्रेम पूर्णिमाँ देवी के सामने घी की अखंड ज्योत जलाए व एक सेब जो ईश्वर ने सवर्प्रथम दिव्य प्रेम फल उत्पन्न किया था जिसे खा कर ही आदम हव्वा में ग्रहस्थी जीवन जीने का काम ज्ञान हुआ था उस दिव्य फल सेब में *एक चांदी का पूर्ण चंद्र लगाए और पूजाघर में रख दे शाम को उसकी पत्नी उस सेब को अपने मुँह से काट कर भोग लगाकर पति को देगी जिसे खाकर पति अपना व्रत पूर्ण करेगा तथा दो “प्रेम डोर” जो सात रंग के धागों से बनी हुई है। वो पति पत्नी एक दूसरे के सीधे हाथ मे बांधेंगे ये प्रेम डोर सात जन्मो के प्रेम का प्रतीक है और जो पुरुष अभी विवाहित नहीं है और जिन पुरुषों की पत्नी स्वर्गवासी हो चुकी है। वे ब्रह्मचारी अविवाहित युवक व विधुर पुरुष अपना सेब व चांदी का बना भिन्न चन्द्रमा प्रेम पूर्णिमाँ देवी को शाम पूजन के समय भेंट कर अपनी एक प्रेम डोरी देवी के सीधे हाथ की कलाई में बांधेंगे और एक अपने सीधे हाथ की कलाई में बांधेंगे व देवी को खीर का भोग लगाकर शेष खीर और सेब खाकर व्रत खोलेंगे जिससे अविवाहितों को भविष्य में उत्तम प्रेमिक पत्नी की प्राप्ति होगी व विदुर पुरुषों को उनके आगामी जन्म में मनचाही प्रेम पत्नी की प्राप्ति होकर सुखी गृहस्थी और उत्तम संतान की प्राप्ति होगी यो यह प्रेम पूर्णिमाँ व्रत प्रतिवर्ष मनाया जाता है “जो अपनी पत्नी से करे प्यार वो ये व्रत मनाये हर बार” यो सभी पुरुष अवश्य इस व्रत को मनायेंगे।।
इस व्रत से लाभ:-
अकाल ग्रहस्थ सुख भंग होना, प्रेम में असफलता, संतान का नही होना,संतान का सुख,कालसर्प दोष,पितृदोष,ग्रहण दोष आदि सभी प्रकार के भंग दोष मिट जाते हैं।।
यो आप सभी पुरुष इस सनातन पूर्णिमाँ व्रत को अपनी पत्नी की सार्वभोमिक उन्नति और ग्रहस्थ सुख और भविष्य की उत्तम पत्नी की प्राप्ति व् सुखद ग्रहस्थ सुख प्राप्ति के लिए अवश्य मनाये।।
तथा जो भी मनुष्य स्त्री हो या पुरुष वो किसी भी नवग्रह के दोषों से किसी भी प्रकार की पीड़ा पा रहा हो वो यदि कम से कम एक वर्ष की 12 पूर्णिमासी को ये दिव्य कथा पढ़ता और सुनता हुआ 12 व्रत रखता है और सवा किलों की खीर बना कर गरीबों को और विशेषकर गाय व् कुत्तों को भर पेट खिलाता है तो उसके सर्वग्रह दोष समाप्त होकर सभी शुभ सफलताओं की प्राप्ति करता है व् इष्ट और मंत्र सिद्धि की प्राप्ति होती है।।
!!सत्यई पूर्णिमाँ आरती!!
ॐ जय पूर्णिमाँ माता,ॐ जय पूर्णिमाँ माता।
जो कोई तुमको ध्याता-2, मनवांछित पाता..ॐ जय पूर्णिमाँ माता।
सरस्वती लक्ष्मी काली,तेरे ही सब रूप-2-
ब्रह्मा विष्णु शिव भी-2,सत्य सत्यई स्वरूप।।ॐ जय पूर्णिमाँ माता।।
नवांग सिद्धासन तुम विराजो,श्री भगपीठ है वास-2..
इंद्रधनुष स्वर्ण आभा-2, ईं कुंडलिनी स्वास्-2।।ॐ जय पूर्णिमाँ माता।।
गुण सगुण निराकार तुम्ही हो,सब तीरथ तेरा वास-2..
सत्य पुरुष चैतन्य करा तुम-2,संग सृजित करती रास।।ॐ जय पूर्णिमाँ माता।।
अरुणी से हंसी तक तुममें,षोढ़ष कला हैं ज्ञात-2..
नवग्रह तेरी शक्ति-2,तेरी कृपा ही दिन रात।।ॐ जय पूर्णिमाँ माता।।
धन-वर-धर्म-प्रेम-जप माला,सोम ज्ञान सब बाँट-2..
धरा धान्य सब तेरे-2,तेरी उज्वल ज्योत विराट।।ॐ जय पूर्णिमाँ माता।
विश्व धर्म का सार ही तू है,मोक्ष कमल ले हाथ-2..
सिद्ध चिद्ध तपि युग और हंसी-2,बारह युग की नाथ।ॐ जय पूर्णिमाँ माता।।
सत् नर तेरा जीवन साथी,व्रत चैत पुर्णिमाँ-2..
बांधें प्रेम की डोरी-2,लगा भोग सेब का।।ॐ जय पूर्णिमाँ माता।
अरजं पुत्र हंसी तेरी कन्या,तेरी सुख छाया में मात-2..
हम संतति तुम्हारी-2,तुझे सुख दुःख मेरे ज्ञात ।।ॐ जय पूर्णिमाँ माता।।
पूर्णमासी का व्रत जो करता,जला अखंड घी ज्योत-2..
जो चाहे वो पाता-2,इच्छित देव ले न्यौत।।ॐ जय पूर्णिमाँ माता।।
चैत्र जेठ क्वार पौष की,चार नवरात्रि ध्याय-2..
जल सिंदूर जो चढ़ाये-2-सब ऋद्धि सिद्धि पाएं।।ॐ जय पूर्णिमाँ माता।।
जो करता है आरती नित दिन,सुख सब उसे मिले-2..
मोक्ष अंत में पाता-2,सत पूर्णिमाँ ज्ञान खिले।।ॐ जय पूर्णिमाँ माता।।
पाँचवा प्रेम पूर्णिमाँ व्रत उत्सव 19 अप्रैल 2019 दिन शुक्रवार को मनेगा।
प्रेम पूर्णिमां व्रत के करने से हुए भक्तों के संग भक्ति में शक्ति के चमत्कार प्रसंग आगे के लेखों में पढ़ें…
जो आश्रम से प्रकाशित पूर्णिमां व्रत कथा में भी प्रकाशित है,उसे प्राप्त कर व्रत करते हुए पढ़ सकते है।
श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येंद्र जी महाराज
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
www.satyasmeemission.org