स्त्रियों का कुण्डलिनी जागरण (भाग-7), स्त्रियों की कुण्डलिनी और दुर्गासप्तशती में स्त्रियों का स्थान कहाँ? : श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज
दुर्गासप्तशती महर्षि मार्कण्डेय द्धारा रचित-मार्कण्डेय ब्रह्मपुराण या श्रीमद् देवी भागवत का देवी उपासना अंश है।और भारतीयों में विशेष पूजनीय है।विशेषकर नवरात्रियों में..आओ इसके सच्चे अर्थ को बताता हूँ की सत्य क्या है..
दुर्गासप्तशती यथार्थ में मनुष्य के कुण्डलिनी जागरण और उसके आत्मसाक्षात्कार का महर्षि मार्कण्डेय और ब्रह्मा जी के मध्य आत्मज्ञान संवाद् है-की कैसे मनुष्य अपने समस्त भय यानि दैत्य को काटकर अंत में देवत्त्व यानि आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति करें। इस विषय में शिव भी पार्वती को बता रहे है और फिर अन्य देव आदि संवाद् कथन है।जो की वास्तव में इस प्रकार से है–
दुर्गासप्तशती का अर्थ:-इसके मूल तीन यानि त्रिगुण भाग है- दुर्गा+सप्त+शती- यानि यहाँ मनुष्य साधक की तीन स्थितियां है-1- दुर्गा माने आत्मा-2- सप्त माने उसके सात जीवन जागरण स्तर या चक्र और -3- शती माने अंत में शक्ति के जागरण के बाद आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति होना है।
अब संछिप्त में विस्तार से अर्थ जाने..
दुर्ग माने शरीर और ‘आ’ माने आत्मा अर्थात जो शरीर आत्मयुक्त हो वो “दुर्गा” कहलाता है। और इस दुर्गा रूपी आत्म शरीर की सात स्थितियां है-मूलाधार चक्र से सहस्त्रार चक्र तक – जो त्रिगुण है-तमगुण यानि इच्छा शक्ति, ये सरस्वती यानि जिनका ऐं बीज है-रजगुण यानि क्रिया शक्ति, ये लक्ष्मी देवी है, और इनका बीज मंत्र ह्रीं है, और तीसरा सतगुण ये आनन्द शक्ति है,जो काली देवी है और इनका बीजमंत्र क्लीं है,यो सप्तशती के प्रारम्भ में जो तीनों तत्वों या गुणों के शोधन को कहा है की-
1-ॐ ऐं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा-2-ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा,-3-ॐ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।और अंत में-4-ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।ये तीनों गुणों यानि जो मनुष्य शरीर में स्त्री+ पुरुष और बीज या इलेक्ट्रॉन+न्यूट्रॉन+प्रोटॉन= आत्मा है, जो दुर्गा है,उसका गुरु के द्धारा गुरु मंत्र और शक्ति दीक्षा लेकर और प्राणायाम आदि के द्धारा अपने मल का शोधन क्रिया उपाय है,जिसे शापविमोचन मंत्र-“ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं क्रां क्रीं चण्डिका देव्ये शापनाशानुग्रह कुरु कुरु स्वाहा” कहते है।इससे भौतिक शरीर में जो सूक्ष्म शरीर है,उसका मल शोधन होकर वो इस भौतिक पंचततत्वी शरीर से अलग होकर स्वतंत्र हो,यही करना भूतशुद्धि कहलाती है।इसी सूक्ष्म शरीर के अलग होने पर साधक को अपना प्रेत शरीर की प्राप्ति होती है,और ईसी में कुंडलिनी के सात चक्र उदित होते है।अब आगे कुण्डलिनी शक्ति का यानि सप्तशती या सात चक्रों के द्धारो को शुद्ध करने या खोलने को मंत्र जपा जाता है-“ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशती चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा” और फिर मृत संजीवनी मंत्र-ॐ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृत संजीवनि विद्ये मृतमुत्थाप्योत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा” आदि मंत्र से उत्कीलन यानि जाग्रत हो सके।और फिर अपने संकल्प अनुसार पहले कवच के बीज मंत्र का जप करके सिद्धि पानी पड़ती है। इसके बाद अर्गला को शक्ति बीज मंत्र से जाग्रत करके सिद्धि पानी पड़ती है और इसके बाद कीलक के बीज मंत्र का जप करके सिद्धि पानी पड़ती है।यहां मैं बताता हूँ की-ये तीन बीज मंत्रों के जप की अलग अलग स्वतंत्र जप करने की अवस्था हैं।यानि पहले तमगुण को शोधन करके उसे इस भौतिक शरीर से अलग करना पड़ता है,मतलब ये है की-तमगुण का शुद्ध रूप प्राप्त करना पड़ता है,यो इसका क्रीं बीज मन्त्र की सिद्धि करनी पड़ती है,फिर रजगुण ह्रीं और फिर सतगुण क्लीं बीजमंत्र जप से शुद्धि करनी पड़ती है।तब शुद्ध त्रिगुण का मध्य बिंदु यानि सुषम्ना नाड़ी या शुद्ध मन की प्राप्ति होती है।तब मन या मन की शक्ति जो कुण्डलिनी है,उसके 7 द्धार जो की सात देवी है,उनके एक एक करके प्रवेश करते हुए तब मूल कुण्डलिनी यानि 7 शक्तियों का एक रूप महाकुंडलिनी की प्राप्ति होती है।
यही सब कीलक आदि उपाय है।और इस सबके बाद ही, तभी इस मूलमंत्र का जप और उसकी सिद्धि होती है –ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।।में से त्रिगुण की मुलशक्ति महाकुण्डलिनी है यानि आगे चलकर जो- तम्+रज+सत् के त्रिगुणन पर 9 स्तर बनते है- 3×3×3=9- यही “चामुण्डायै” ही महाकुण्डलिनी है,उसका जप प्राप्त होता है,यही इसका रहस्यवादी अर्थ है, चामुण्डायै में 9 बीजाक्षर है च,आ,म,उ,न,ड,आ,य,ऐ–यही नो त्रिगुण नो देवियां आत्म शक्ति और नो ग्रह भी कहलाते है और विच्चे में पांच बीजाक्षर है,जो मनुष्य-स्त्री में 5 कुंडलिनी बीजमंत्र है-जो आज तक किसी को पता नहीं है, वे ये हैं-भं गं सं चं मं और पुरुष में 5 बीज मंत्र ये है- ळं वं रं यं हं..
जो सब साधना के क्रम के उपरांत इस पँचतत्व शरीर में ही कुण्डलिनी शक्ति दुर्गा के रूप में जाग्रत तथा स्थापना और समापन या विसर्जन का अर्थ है। अतः इन त्रिगुणों के द्धैत यानि दो दो भाग और उनके संघर्ष से ये-मूलमंत्र-ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे-में पहले स्तर पर- त्रिकोण और फिर- षटकोंण और नवकोण यानि चामुंडायै और पुनः लौटकर पँचकोण यानि विच्चे बनता हुआ सम्पूर्ण होता है। जिससे ये सारी सृष्टि और जीव पंचतत्वी शरीर लेकर उतपन्न है, यही त्रिगुण का परस्पर मिलन और संघर्ष का नाम त्रिदेवी और दैत्य का युद्ध है और सातवां यानि सप्तशती इन सारे गुणों का एकीकरण का नाम है। यही अपरावस्था अद्धैत अवस्था कहलाती है।तम् गुण आत्मा की शाश्वत इच्छा का नाम है। जिसे सामान्य अर्थ में सरस्वती यानि सदैव बनी रहने वाली इच्छा कहते है। और दूसरा गुण रज गुण है जिसका नाम क्रिया शक्ति है, जो वास्तव में तम् और सत् का ही एकमात्र संधर्ष या द्धंद का नाम है। यही द्धैत का द्धंद ही देव और दैत्य का संघर्ष है। जिसका नाम लक्ष्मी है। जिसका सामान्य अर्थ लक्ष्य की प्राप्ति है। संसार के जितने भी लक्ष्य यानि उद्धेश्य है, इच्छाएं है, उनकी प्राप्ति क्रिया यानि कर्म करने से होती है, यो लक्ष्मी यानि क्रिया शक्ति का आस्तित्त्व केवल इच्छा × ज्ञान के मेल से उत्पन्न होता है, ये इन दोनों गुणों के एकीकरण का नाम है, यो ये दुर्गासप्तशती में प्रमुख बीजमंत्र “ह्रीं” नाम से देवी यानि इन त्रिगुणों का मूल एक्त्त्व “प्रणव” जो ॐ के जैसा समान है,उसे जपने को कहा है,ये ह्रीं हिंदूवादी सभी मतों में जपने का मुख्य विधान है,चाहे वो जैन धर्म में हो या बौद्धधर्म में हो।यो ह्रीं को सम्पूर्ण महामंत्र कहा गया है, क्योकि क्रिया ही मुख्य है, परन्तु क्रिया किस दो तत्वों के मेल से हो रही है, यो ये जानकर ये क्रम बनाया है कि- तम् का बीजमंत्र “ऐं” है और क्रिया यानि रज का “ह्रीं” है, और ज्ञान जो क्रिया और काल के क्रम से लेकर अतीत यानि परे भी है, वो काली अर्थात सत् गुण है, जिसका बीजमंत्र “क्लीं” है। यो यहाँ केवल ॐ का उपयोग नही किया गया है, उसकी मूल मंत्र में आवश्यकता भी नही रखी है। ये ही ॐ बिना महामंत्र है कि-ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।।जिसका वास्तविक अर्थ है की- हे आत्म इच्छा सरस्वती- ऐं -हे आत्म क्रिया लक्ष्मी ह्रीं,-हे आत्म ज्ञान शक्ति क्लीं काली, मेरी अज्ञान रूपी रज्जु ग्रन्थि को खोल, मुझे मुक्त कर महाज्ञान प्रदान कर।।
अब आपको दुर्गासप्तशती में ही लिखे इस मंत्र भावार्थ में, कही भी किसी संसारी मनोकामनाओं का अर्थ नही है। और हो भी नही सकता है, क्योकि- जो इस त्रिगुण की साधना करने वाला जीव है, जो यहाँ मुक्ति मांग रहा है, वो कौन है? वही मुख्य है, वही प्रारम्भ इच्छाधारी आत्मा है। वही क्रियाधारी आत्मा मध्य है, और वही ज्ञान प्राप्ति कारक अंत आत्मा है।यों यहाँ ऐं-ह्रीं-क्लीं में जो अंग का उच्चारण है। वो ॐ का म् अनन्त नाँद है, यो ये सही में- एम्-ह्रीम-क्लीम बोलकर उच्चारण होता और करना चाहिए। और इन दो तम् और सत् रूपी दो द्धैत द्धंद जो हमारे सारे शरीर से लेकर अंतरजगत में प्रत्येक जगह व्यक्त है जैसे-साँस और प्रसाँस और उनका संघर्ष और मन के दो भाग एक आत्मा का शाश्वत ज्ञान है, जो सदा स्थिर और सत्य है, दूसरा उसका प्रयोगिक भाग है, जो शाश्वत ज्ञान को उपयोग में लेकर उसकी शाश्वतता और सत्यता को जांचता है और उससे प्राप्त आनन्द को प्राप्त कर शाश्वतता को सत्य मान पुनः उसी में लीन हो जाता है। यही सब लीला यहाँ वर्णित है। जिसे देव और दैत्य का नाम से सामान्य जन को समझाया गया है।और यहाँ त्रिगुण शोधन के बाद, जो त्रिगुणों की संयुक्त शक्ति महाशक्ति का यानि चामुण्डायै का या देवी नाँद है,उस महाशक्ति का मूल बीजमंत्र का कोई उल्लेख नहीं दिया है।जिससे महाकुंडलिनी को साधा जाता है और तीन गुण का एक एक स्वतंत्र शोधन होकर, जो अलग अलग जागर्ति होती है,जो ऐसे है की- 1-मूलाधार चक्र में तमगुण यानि इच्छा शक्ति या सरस्वती-ऐं की शक्ति जागती है,और आगे बढ़कर ये अगले चक्र में प्रवेश करके उसकी शक्ति से जुड़ती है-2-स्वाधिष्ठान चक्र,जहाँ क्लीं सतगुण या काली शक्ति है,उसका जागरण होकर,अगले क्रिया क्षैत्र में प्रवेश होता है,तब वहाँ इन दोनों गुण-तम् और सत का मिलन होता है,और इनकी एकत्र शक्ति ह्रीं जाग्रत होती है-3-नाभि चक्र में केवल पहले दो गुण स्त्री और पुरुष शक्ति का परस्पर रमण या संघर्ष होता है,क्योकि नाभि से सृष्टि होती है।ये सृष्टि स्थूल शरीर को मंथ कर सूक्ष्म शरीर की यहीं प्राप्ति होती है,यो ही इस नाभि चक्र को पहले दो गुण तम् स्त्री और सत् पुरुष( ये दोनों गुण पुरुष यानि देवो के X,Y या धन ओर ऋण है) और इनकी ही क्रिया शक्ति रज गुण या ह्रीं या लक्ष्मी का जागरण इस स्थान नाभि चक्र में होता है ओर तब इनकी संयुक्त शक्ति का बीजमंत्र यहाँ दुर्गासप्तशती में नहीं दिया है।जो की मैं बताता हूँ-वो है-ईं-ईम्,ये ही भगवती दुर्गा का या चामुण्डायै या चार मुख वाली ब्रह्मयी ब्रह्म शक्ति पूर्णिमां,जो चारों वेदों या चार धर्मो का ज्ञान देने वाली मूल कुंडलिनी शक्ति है,उनका बीज मंत्र या शक्ति नाँद है।ये जपा नहीं जाता है।ये परानाँद की अनुभूति दर्शन है।ये गुरु से जानना चाहिए।
और आपको बताता हूँ कि- दुर्गासप्तशती में कही भी “माँ” शब्द का उच्चारण उपयोग नही हुआ है। जो किसी अन्य संत जैसे-शँकराचार्य आदि भाष्यकर्ताओं ने भावयुक्त शब्दों के प्रयोग में ये लिखा है। वहीँ स्थान पर उन्हीं श्लोकों में ये “माँ” शब्द प्रयुक्त हुआ है। अन्यथा केवल, हे- देवी और हे- देवताओं का उच्चारण ही प्रयुक्त हुआ है। क्योकि सनातन धर्म में स्त्री को देवी व् पुरुष को देव या स्वामी कहा जाता है। यही यहाँ बोला गया है।यो ये माँ शब्द से मनुष्य की अपनी ही आत्मशक्ति यानि कुण्डलिनी शक्ति को माँ कहकर अर्थ का अनर्थ ही हुआ है।यही है स्वास् और प्रस्वास् की साक्षी भाव साधना। जहाँ केवल क्रिया पर ही ध्यान केंद्रित किया जाता है। यही यहाँ मूल द्धंद या संधर्ष पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। वह है- ह्रीं बीज मंत्र की साधना। इसी बीजमंत्र के निरन्तर उच्चारण से कुंडलिनी यानि आत्मशक्ति यानि दुर्गा जाग्रत होती है। यही दुर्गासप्तशती का मूल और मुख्य महामंत्र है। इसीकी साधना रहस्य को जो जानता है वही साधना कर सिद्ध होगा। यो यही रहस्य कीलक यानि छिपाया गया है। उसे गुरु से जाना जाता है की- ये दुर्गासप्तशती में वर्णित गुप्त रूप से छिपा-स्त्री और पुरुष के 5 और 5 कुण्डलिनी बीजमन्त्रों के साथ जो क्रियायोग है,उसका आत्म रहस्य क्या और कैसे प्राप्त किया जाये? साधक देखेंगे की- दुर्गासप्तशती के आरम्भ में ही ये सब बताया गया है और तीन तत्वों-तम्-रज-सत् गुणों का शोधन दिया है,और इन तीनों गुणों की संयुक्त शक्ति सर्वगुण का भी शोधन किया गया है -1- ॐ ऐं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा-2-ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा-3-ॐ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा और-4- चौथा सम्पूर्ण-ऐं ह्रीं क्लीं सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।।और यहाँ कहाँ त्रिगुण तत्वों का शोधन रहस्य स्पष्ट किया गया है? पहले तत्व शोधन के लिए ही-ताम्र-ताम्बे की अंगूठी और यन्त्र ओर ताबीज या रक्षा कवच को गुरु से बनवाकर साधक अपने शरीर में पहनता है,ताकि तमगुण के जागर्ति होते समय के संघर्ष से उत्पन्न ऊर्जा का शरीर में सन्तुलन बना रहे,अन्यथा तम् से जो दोष या व्याधि-जैसे-मोह,आलस्य,निंद्रा,व्यर्थ का या ऊर्जा की गर्मी से मूलाधार तप्त होते रहने से काम भाव और अतिरिक्त वीर्य का बार बार रिसाव होने से धातु क्षीणता आनी, आदि का निवारण होता है।ओर ऐसे ही सतगुण के संघर्ष से उत्पन्न ऊर्जा के अतिरिक्त संतुलन के लिए ही चांदी की अंगूठी में बीजमंत्र लिखवाकर शोधन के बाद तर्जनी ऊँगली में दिन के हिसाब से पहना जाता है।और यन्त्र भी ओर गुरु प्रदत्त सिद्ध ताबीज भी पहना जाता है,ताकि उससे वायु शरीर का सूक्ष्म शरीर के उदय होने के संघर्ष से उत्पन्न अतिरिक्त ऊर्जा की गर्मी को सन्तुलित किया जा सके।इसके रोग या चिन्ह है-ज्यादा जागना,निंद्रा नहीं आनी,रुंदन-कम्पन,अश्रुपात होते रहना आदि लक्षण नियंत्रित होते है।यही दुर्गासप्तशती में दैत्य की क्रिया उल्लेख है।और ऐसे ही रजगुण जोकि क्रिया शक्ति या रमण शक्ति है,उसके दोष-विपतित लिंगी की और ज्यादा आकर्षण होना,जो दैत्यों का देवी के प्रति आकर्षण दिखाया है,जिससे साधक को प्राप्त उन्नति होती ऊर्जा का विपरीत लिंगी के सम्पर्क से बारबार स्खलन हो जाना होता है।यही ब्रह्मचर्य का विनाश है ओर दैत्यों का विनाश है। और सन्तुलन को सोने की अंगूठी में ह्रीं बीजमंत्र शुभ महूर्त में लिखाकर अनामिका ऊँगली में पहनी जाती है ओर गुरु प्रदत्त ताबीज व् यन्त्र हाथ और गले में पहने जाते है।और त्रिगुण शक्ति का भूमि में प्रवेश नहीं हो,यो गुरु पंच तत्व के आधार पर पाँच सिद्ध ताबीज बनाकर शिष्य का रेशम और कुशा से निर्मित आसन साधना में बैठने को तैयार कर देता है ओर उसे इस भौतिक और अशुद्ध पृथ्वी तत्व से ऊपर जो,शुद्ध पृथ्वी तत्व है,उस पर स्थित कराकर साधना का निर्देश देता है।यो उसके पूजाघर और आसन पर कोई अन्य नहीं बैठ सकता है।यही है-आसन सिद्धि आदि विषय का संछिप्त ज्ञान।फिर इस आसन सिद्धि पर ही चौथा तत्व का आवाहन और शोधन होता है,ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सर्व आत्मतत्व शोधयामि नमः स्वाहा।और इसी चोथे तत्व के शोधन होने पर चार मुखों या चार धर्म या चार वेदों की दाता-पूर्ण माँ..पूर्णिमां यानि चामुंडा के दर्शन आदि होते है ओर यही महाकुण्डलिनी शक्ति है ओर यहीं ईं बीजमंत्र के ओर उससे उत्पन्न महानांद यानी महादेवी के अट्टहास आदि के शास्त्र वर्णित दर्शन और अनुभव होकर विशुद्ध रूप में पँच तत्वी महाशरीर अक्षत ओर शाश्वत यानि महादेह आदि नाम के त्रिगुणातीत योग शरीर की विच्चे नाम से प्राप्ति होती है।इससे भी आगे साधना है,जो गुरु के सानिध्य और कृपा से समझ आती है।योहि इन त्रिगुण तत्वों के शोधन हेतु ही ये शाप और कीलक आदि की रहस्यवादी रचना की गयी है। जिसे ना समझे बिना लोग केवल धुप दीप आदि व्यर्थ के विधि से मंत्राउच्चारण करते हुए अपना समय व्यर्थ करते है। और अंत में कहते है की- गुरु जी मेने तो सकड़ों पाठ दुर्गासप्तशति के कर डाले,पर कोई लाभ नही हुआ। और ऐसे होगा भी नही। ये अति तंत्रवादि रहस्य कुंडलिनी जागरण साधना है। जो अतिगोपनीय भी है। और जानकर को सहज भी है।।इस महामंत्र निर्वाण का उच्चारण भी वैदिक रीति और विशिष्टता से किये जाने पर और उसके साथ साथ अपने अंतर्जगत में मनोप्राणायाम के अनुलोम और विलोम के साथ जपने और ध्यान करने से सिद्धि की प्राप्ति होती है। अन्यथा कुछ नही प्राप्त होता है और इन त्रिगुण यानि त्रिदेवी के अनर्गल उच्चारण के ताप से अनेक योगजनित व्याधियां शरीर में उतपन्न हो जाती है।इन्हीं के निवारण को तंत्र और मंत्र के मेल शरीर यानि यंत्र में शोधन के लिए तम् गुण की मात्रा के नियंत्रण के लिए “मद्य यानि शराब” जिसे तंत्र में “कारण” भी कहा जाता है, उसका उपयोग है। और आप देखेंगे की- “ह्रीं” बीजमंत्र,जो की- विष्णु जी और अन्य देवों के बीजमंत्र के रूप में प्रयुक्त है। वेसे ही “क्लीं” बीज मंत्र भी- काली और कृष्ण जी के लिए भी प्रयुक्त है। आखिर ये बीजमंत्र पुरुष और स्त्री प्रधान कैसे हुए? क्योकि ये बीजमन्त्र केवल क्रिया शक्ति जागरण का ही बीजमंत्र है। जिसे जिस भी देवी या देवता की जागर्ति को रखते हुए, उस देवी या देवता का नाम, इन शक्ति बीजमंत्रों के साथ मिलाकर जपने से, वो देव या देवी, इस शक्ति के रूप में प्रकट हो जाते है। यो इन बीजमंत्रों का कोई नामार्थ नही है।यो ये केवल त्रिगुण तत्वों के जागरण के ही बीजमंत्र है।ठीक ऐसे अनगिनत रहस्यों को गुरु से जानकर ही दुर्गासप्तशती की रहस्यपूर्ण साधना करनी चाहिए।।
अभी यहाँ कई रहस्य और है की-दर्गासप्तशती केवल पुरुष प्रधान तंत्र ग्रन्थ है-प्रमाण-1-इसके रचयिता-मार्कण्डेय ऋषि है-2-इसमें वक्ता-ब्रह्मा-विष्णु-शिव है-3-इसमें कोई श्रोता हैं,तो वो पार्वती हैं,यदि ये स्त्री ग्रन्थ होता,तो इसमें पार्वती ये कथा इन पुरुषों को सुनाती।और इसके अंत में भी देवी यानि कुण्डलिनी शक्ति रूपी दुर्गा ने केवल पुरुष देवों को ही वरदान दिया है की-जो इसके ग्यारहवें अध्याय के अंत में इन श्लोकों में दिया गया है की-
इत्थं यदा यदा बांधा दानवोत्था भविष्यति।।54।।
तदा तदावतीयार्हं करिष्याम्यरिसंक्षयम्।।ॐ।।55।।
भावार्थ:-हे देवों-इस प्रकार जब जब संसार में दानवी बांधा उपस्थित होगी,तब तब अवतार लेकर मैं शत्रुओं का संहार करूंगी।।
अब इसे पूरे ग्रन्थ में किसी भी स्त्री के लिए ये वरदान नहीं दिया है और ना यहां कोई स्त्री है, या किसी पुरुष से ये नहीं कहा है की-जब जब तुम किसी अबला स्त्री के साथ अत्याचार करोगे,तो मैं स्त्री शक्ति दुर्गा,तुम पुरुषों को दंड दूंगी और यदि ऐसा होता तो अनादिकाल से लेकर आज तक कोई स्त्री के साथ बलात्कार या प्रताड़ना नहीं होती।और स्त्रियों को भी ज्ञान देकर उनकी कुण्डलिनी जाग्रत कर देती।ताकि वे भी भौतिकवादी और भोगवादी विचारधारा से ऊपर उठकर आध्यात्मिक जीवन में सर्वोच्चता पाती।यो ये केवल पुरुषवादी तंत्र दर्शन है।यो सत्यास्मि मिशन ने इन सभी ग्रन्थों में छिपे रहस्यों को जाना और उनमें से स्त्री के किये कुंडलिनी जागरण के 5 बीजमन्त्र खोज साधना को निकाले है।
और सिद्धकुंजिकास्त्रोत्र का मूल निर्वाण महामंत्र-
का सच्चा उच्चारण को जनसाधारण के लिए उच्चारित कर दिया है,ताकि उसके सही उच्चारित जप से भक्तों की कुण्डलिनी जाग्रत हो सके-
और आत्मसाक्षात्कार हो।
इस पुरे मंत्र में नमः नहीं लगाये,अन्यथा मंत्र में दोष हो जाता है और हानि ही मिलेगी। जो दुर्गासप्तशती ग्रन्थ में लिखा है।वहीं यहाँ है और इसे अपने मूलाधारचक्र से सहस्त्रार चक्र तक अनुलोम विलोम क्रिया से जपे,तो अवश्य कुण्डलिनी जागरण दर्शन होकर आपका कल्याण होगा।
यहाँ वर्णित चामुंडा शक्ति ही ब्रह्मा की भांति चार मुखों वाली यानि चारों वेदों का और चार धर्म का ज्ञान देने वाली आत्म शक्ति वेद शक्ति ब्रह्मयी ब्रह्मशक्ति पूर्णिमाँ है,यही गायत्री और गाँवो की चामण्ड देवी आदि नाम से विख्यात है।जो की केवल मनुष्य की कुण्डलिनी शक्ति जागरण के बाद जो व्यक्ति को अपनी आत्मशक्ति के दर्शन होते है,उसी का दर्शन मात्र है।
और यहाँ एक अधूरापन भी है,ये ग्रन्थ केवल सविकल्प समाधि का दर्शन शास्त्र है।क्योकि जबतक मन है,तबतक सभी प्रकार की मनोकामनाएं और उनके पाने की इच्छा देवता या देवी है और उसे खोने की इच्छा ही दैत्य या आसुरी शक्ति है।यो इससे पार जाना पड़ता है।तब मनुष्य मन से मुक्त होकर ब्रह्मज्ञान यानि अपने आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करता है और वहीं निर्विकल्प समाधी यानि मन और उसके सभी संकल्प विकल्प रूपी विचारों से मुक्त अवस्था ही सच्ची मनुष्यता पानी है।वहीं पाये।
जो देव भाषा संस्कृत की जगहां हिंदी भाष्य पढ़ते है,वे जान ले उससे कोई लाभ नहीं होता है।केवल मन समझने को भाव के भूखे है भगवान आदि वाक्य दोहराने से कोई लाभ नहीं होता है।यो उन्हें किसी योग्य गुरु से ये सब उच्चारण सहित सीखकर जपना और साधना करनी चाहिए।तभी लाभ होगा।
जो शेष प्रश्न रह गए है-उन्हें आगे किसी लेख में कहूँगा।यहाँ संछिप्त में कहा है।यो कुछ ज्ञान बातेँ शेष रह ही जाती है।यो कुतर्क नहीं करके इसे पढ़कर समझे।
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श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येंद्र जी महाराज
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः