वक्त पर कविता
रुकता नहीं वक्त किसी के लिए
साथ ले चलने की आदत जो।
चल दिये संग संग मिला हाथ
वही महक छोड़ते वक्त की रो।।
वक्त समय काल बेला
चाहे कहो कोई नाम।
निष्पक्ष रहता साक्षी बन
कर्म फल बीच बन अंजान।।
वक्त के दो छोर दिन ओर रात
तपिश छांव दो हाथ।
ब्यार सिरहन अहसास वक्त
होनी अनहोनी वक्त की लात।।
हर धुंध वक्त की मौजूदगी
ख़ुद में ख़ुद से डर।
दूजा जो भी तुम्हें लगे
वहीं वक्त का घर।।
न प्रेम घृणा इंतजार किसी का
न किंतु परंतु कर प्रश्न।
दिखता वही प्रदर्शन बन जन
बस ढल बन उसका दर्शन।।
गुजरता पुनः पुनः हर आगे
कुछ नया नहीं है हुआ परिवर्तन।
बढ़ाते जा रहे बोझ कभी ख़ाली
उतारते कर्ज़ हर्ज़ फ़र्ज़ कर तरसन।।
बस ठहरता उसी संग
जो ठहरे ख़ुद बनकर।
जो ठहरा वही उपयोग ले पाये
वक्त खुद बन जनकर।।
वक्त किसी के वश में हो कैसे
तो जानो ये तीन अक्षर बना।
व वो क कोहम त तत् वह
इन्हें जान जनो स्व वक्त घना।।
यो इंतजार नहीं करो वक्त का
तुम्हीं से है जो भी दिखे।
जो दिखे नहीं वह भी तुम हो
यही स्वध्यान कर पाये जो सीखे।।
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
स्वामी सत्येन्द्र सत्यसाहिब जी
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