राफेल, राफेल, राफेल, मोदी सरकार के गले लो फांस बन गया है यह मुद्दा। और बने भी क्यों न, मोदी सरकार इस मुद्दे के कारण तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव जो हारी है। भले भाजपा सरकार की तरफ से मीडिया में कितनी भी दलील पेश की जा रही हों, भले केंद्र सरकार की तरफ से राफेल पर एक के बाद एक सफाई पेश की जा रही हो, भले सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को एक बड़ी राहत दी हो लेकिन फिर भी मोदी सरकार के गले की फांस बन गया है यह राफेल विमान सौदा।
“अब भाजपा 70 शहरों में अपनी सफाई पेश करने और कांग्रेस पर मुद्दे को भटकाने जैसे आरोपों को लेकर प्रेस कॉन्फ्रेंस करने जा रही है।”
सुप्रीम कोर्ट द्वारा मिली क्लीनचिट के बाद भी राफेल का भूत मोदी सरकार का पीछा नहीं छोड़ रहा है। राफेल पर मानों कांग्रेस को एक बड़ी संजीवनी मिल गयी हो।
और इस संजीवनी का सबसे बड़ा कारण भी है कि यह राफेल सौदा यूपीए सरकार से चला आ रहा है और लगभग 526 रुपये करोड़ प्रति विमान से शुरू हुआ सौदा आज 1670 करोड़ रुपये प्रति विमान जा पहुंचा है। यूपीए की सरकार में यह सौदा 126 विमान के लिए हुए था जिसमें तकनीकी भी शामिल थी और इनमें से अधिकतर विमान भारत में बनने थे और उसे भारतीय सरकार की कम्पनी HAL द्वारा बनाया जाता।
लेकिन नए सौदे में एक नहीं बहुत सारे पेंच हैं जिन्हें कांग्रेस छोड़ना नहीं चाहती है।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली जिस बेंच ने यह फैसला सुनाया है उसमें जस्टिस गोगोई के अलावा जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस के एम जोसेफ भी हैं।फैसला देते वक्त पीठ ने मौखिक रूप से कहा कि, ‘सुप्रीम कोर्ट 126 के बजाए 36 विमानों की खरीद के फैसले पर निर्णय को लंबे समय तक टाल नहीं सकता। यह सत्य है कि पहले 126 विमानों को खरीदने की बात की जा रही थी, जिसे बदलकर 36 विमानों की खरीद का सौदा किया गया, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।’
राफेल विमानों की कीमत पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह सुप्रीम कोर्ट का काम नहीं है कि वह किसी विमान की कीमत या वित्तीय मामलों की जांच करे।
अब बात आती है कि राफेल मुद्दे पर भाजपा फंसी कैसे?
मोदी सरकार में राफेल की जानकारी सुप्रीमकोर्ट के मांगे जाने के बाद दी। जिसमें मोदी सरकार ने पहले बताया कि प्राइस की डीटेल कैग को दी जा चुकी है और CAG ने उसकी जांच कर उसे लोक लेखा समिति को दे दिया। पीएसी ने भी अपनी संपादित रिपोर्ट संसद को दे दी, लेकिन न तो PAC की रिपोर्ट आई, न ही वो PAC के पास गई। तो फिर कोर्ट को इसकी जानकारी कहाँ से मिली जब सरकार को तरफ से जानकारी दी ही नहीं गयी?
आपको बता दें कि रक्षा मंत्रालय के उपसचिव सुशील कुमार की ओर से दाखिल किए गए शपथ पत्र के अनुसार मंत्रालय ने बंद लिफाफे में सुप्रीम कोर्ट को जो जानकारी दी थी और इसके आधार पर जो फैसला लिखा गया था उसमें व्याकरण संबंधी कुछयां हैं। सरकार की ओर से कोर्ट को कैग की रिपोर्ट के संबंध में भावी प्रक्रिया के बारे में बताया गया था। विवादास्पद पैरा 25 की शुरूआती पंक्तियों में कहा गया कि सरकार ने राफेल विमानों की कीमत का ब्यौरा कैग के साथ साझा किया है। यह कथन तथ्यात्मक रूप से सही है लेकिन आगे की पंक्ति में व्याकरण संबंधित त्रुटि है। इसके अनुसार राफेल विमानों के बारे में कैग कि रिपोर्ट जब तैयार होगी तो उसे परिक्षण के लिए पीएसी के सामने पेश किया जाएगा तथा इसका संक्षिप्त रूप संसद में रखा जाएगा। इस वस्तु स्थिति से हटकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले में यह लिखा गया कि कैग की रिपोर्ट का पीएसी ने परीक्षण कर लिया है और इसका संक्षिप्त रूप संसद में रखा गया है।
कांग्रेस लगातार केंद्र सरकार से ज्वाइंट पार्लियामेंटरी कमेटी यानी जेपीसी के गठन की मांग कर रही है। हालांकि सरकार इसके गठन को तैयार नहीं है। उसका कहना है कि वह इस मुद्दे पर संसद के दोनों सदनों में चर्चा के लिए तैयार है।
बता दें कि शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने राफेल सौदे पर अपना अहम फैसला सुनाया और सरकार पर लगे सभी आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया। इसके बावजूद कांग्रेस इस मुद्दे पर सरकार से जेपीसी के गठन की मांग कर रहा है। शुक्रवार की शाम कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने एक प्रेस कांफ्रेंस करके जेपीसी के गठन की मांग एक बार फिर उठाई।
आइये जानते हैं कि क्या होती है जेपीसी
दरअसल, संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी संसद की वह समिति होती है, जिसमें सभी दलों की समान भागीदारी होती है। जेपीसी को यह अधिकार होता है कि वह किसी भी व्यक्ति, संस्था या किसी भी उस पक्ष को बुला सकती है और उससे पूछताछ कर सकती है, जिसको लेकर उसका गठन हुआ है। अगर वह व्यक्ति, संस्था या पक्ष जेपीसी के समक्ष पेश नहीं होता है तो यह संसद की अवमानना का उल्लघंन माना जाएगा, जिसके बाद जेपीसी संबंधित व्यक्ति या संस्था से इस बाबत लिखित या मौखिक जवाब या फिर दोनों मांग सकती है।
जानकारी के मुताबिक, इस समिति में अधिकतम 30-31 सदस्य हो सकते हैं, जिसका चेयरमैन बहुमत वाली पार्टी के सदस्य को बनाया जाता है। इसके अलावा समिति में सदस्यों की संख्या भी बहुमत वाली पार्टी की अधिक होती है। किसी भी मामले की जांच के लिए समिति के पास अधिकतम 3 महीने की समयसीमा होती है। इसके बाद संसद के समक्ष उसे अपनी जांच रिपोर्ट पेश करनी होती है।
सरकार क्यों नहीं करना चाहती जेपीसी का गठन?
राफेल मुद्दे को लेकर पिछले कई दिनों से कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दल सरकार से जेपीसी के गठन की मांग कर रहे हैं। इसको लेकर संसद का शीतकालीन सत्र भी नहीं चल पा रहा है। ऐसे में अब सवाल उठ रहे हैं कि आखिर सरकार क्यों नहीं करना चाहती जेपीसी का गठन? उसे किस बात का डर सता रहा है?
संसदीय इतिहास पर नजर डालें तो पिछले 70 सालों में अलग-अलग मामलों को लेकर कुल 8 बार जेपीसी का गठन किया गया है। इसमें 5 बार तो ऐसा हुआ है कि इसकी वजह से सत्ताधारी दल अगला आम चुनाव हार गई। ये एक कारण हो सकता है कि सरकार जेपीसी का गठन नहीं करना चाहती।
ये भी हो सकता है जेपीसी के गठन न करने का कारण?
राफेल मुद्दे पर जेपीसी के गठन का भाजपा लगातार विरोध कर रही है। चूंकि जेपीसी के पास असीमित अधिकार होते हैं और यह मामला सीधे प्रधानमंत्री से जुड़ा हुआ है, ऐसे में अगर जेपीसी का गठन होता है तो इसकी आंच सीधे प्रधानमंत्री मोदी पर पड़ेगी। जेपीसी उनसे मामले को लेकर पूछताछ कर सकती है।
कब-कब हुआ जेपीसी का गठन और क्यों?
- सबसे पहले जेपीसी का गठन साल 1987 में हुआ था, जब राजीव गांधी सरकार पर बोफोर्स तोप खरीद मामले में घोटाले का आरोप लगा था। माना जाता है कि इसी की वजह से साल 1989 में हुआ आम चुनाव कांग्रेस हार गई थी।
- दूसरी बार जेपीसी का गठन साल 1992 में हुआ था, जब पीवी नरसिंह राव की सरकार पर सुरक्षा एवं बैंकिंग लेन-देन में अनियमितता का आरोप लगा था। उसके बाद जब 1996 में आम चुनाव हुए तो उसमें भी इसकी वजह से कांग्रेस हार गई थी।
- तीसरी बार साल 2001 में स्टॉक मार्केट घोटाले को लेकर जेपीसी का गठन हुआ था। हालांकि इसका कोई खास असर देखने को नहीं मिला।
- चौथी बार साल 2003 में जेपीसी का गठन भारत में बनने वाले सॉफ्ट ड्रिंक्स और अन्य पेय पदार्थों में कीनटाशक होने की जांच के लिए किया गया था। इसका नतीजा ये हुआ था कि इसकी वजह से अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार अगला आम चुनाव हार गई थी।
- पांचवीं बार साल 2011 में टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच को लेकर जेपीसी का गठन हुआ था।
- छठी बार साल 2013 में वीवीआईपी चॉपर घोटाले की जांच को लेकर जेपीसी का गठन हुआ और टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले और चॉपर घोटाले का मिलाजुला असर ये हुआ कि कांग्रेस अगला आम चुनाव यानी 2014 का चुनाव हार गई।
- सातवीं बार साल 2015 में भूमि अधिग्रहण,पुनर्वास बिल को लेकर जेपीसी का गठन किया गया। हालांकि इसका कोई नतीजा नहीं निकला।
- साल 2016 में आठवीं और आखिरी बार एनआरसी मुद्दे को लेकर जेपीसी का गठन हुआ और इसका भी कोई नतीजा नहीं निकल पाया।
हालांकि अगर जेपीसी का गठन होता भी है तो सरकार को इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है, क्योंकि जेपीसी में ज्यादातर सदस्य बहुमत वाली पार्टी के ही होते हैं और चूंकि जेपीसी का फैसला बहुमत से होता है, ऐसे में फैसला अक्सर सरकार के ही पक्ष में ही आता है। टूजी घोटाले में भी ऐसा ही हुआ था। जेपीसी की रिपोर्ट में सरकार को क्लीनचिट मिली थी, जबकि अदालत में यह चोरी पकड़ी गई थी।
अब कांग्रेस चाहती है कि राफेल विमान मामले में सुप्रीम कोर्ट सरकार को अवमानना ना नोटिस दे।
सरकार द्वारा उच्चतम न्यायालय में दायर संशोधन याचिका को देश की सर्वोच्च अदालत एवं संसद का अपमान करार दिया है और उच्चतम न्यायालय से अपने फैसले को वापस लेने और सरकार को अवमानना का नोटिस देने का आग्रह किया है।राज्यसभा में कांग्रेस के उपनेता आनंद शर्मा ने कहा कि दो दिन से राफेल पर उच्चतम न्यायालय के निर्णय को लेकर चर्चा हो रही है। कांग्रेस का मानना है कि इसमें विरोधाभास है। उसने हमेशा कहा है कि अदालत इस विषय के लिए सही मंच नहीं है। केवल संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) ही सही ढंग से जांच कर सकती है।
उन्होंने कहा कि इस बीच कुछ चौंकाने वाली बातें सामने आयी हैं कि सरकार ने विमानों के मूल्य निर्धारण को लेकर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) द्वारा जांच करके रिपोर्ट को संसद में और फिर संसद की लोकलेखा समिति (पीएसी) को देने और पीएसी की रिपोर्ट के अंश संसद को देने की बात सरासर गलत है। न सीएजी की रिपोर्ट आयी, न पीएसी ने रिपोर्ट संसद को दी। सरकार ने संशोधन याचिका में यह कहा कि अदालत काे अंग्रेजी का व्याकरण नहीं आता है।
शर्मा ने कहा कि कल सरकार द्वारा अदालत में संशोधन याचिका दाखिल करने से साफ हो गया है कि सरकार ने अदालत की अवमानना की है और अपमान किया है और अब उस पर जश्न मनाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि सरकार को इसके लिए देश से माफी मांगनी चाहिए। इन परिस्थितियों को देखते हुए उच्चतम न्यायालय को अपने फैसले को वापस लेना चाहिए और सरकार को अवमानना का नोटिस देना चाहिए। संसद की अवमानना के लिए भी सरकार के विरुद्ध समुचित कार्रवाई की जाएगी।
मनीष कुमार
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