[भाग-11]
ह्रदय चक्र और अनाहत चक्र में भी भिन्नता है।ह्रदय चक्र भौतिक चक्र है,जो मनुष्य के फेफड़े के मध्य और नीचे तथा कुछ उलटे भाग की और होता है,और अनाहत चक्र आध्यात्मिक चक्र है,जो केवल कुंडलिनी जाग्रत होने पर साधक के सूक्ष्म शरीर में उलटे भाग की और कुछ ऊपर की और होता है।इसका सम्बन्ध मस्तिष्क के सहस्त्रार चक्र यानि मेंडुला चक्र के नीचे और तालु के ऊपर के भाग में स्थित होता है।जब सूक्ष्म शरीर की जागर्ति होती है,तब साधना के विकास के साथ साथ साधक की जीभ प्राणों के ऊपर उठने के कारण इसी चक्र की और इस चक्र के नीचे की और व्यक्ति में मुख में अंदर तालु में ऊपर लगने लगती है।पहले पहले जीभ ऊपर की बार बार खिंचती है,तब साधक में मुख में जीभ के बार बार उठने और तालु को छूकर फिर नीचे गिरने से चट चट की आवाज होती है।और बाद में ये यही ठहरने लगती है।तब ऐसी अवस्था में साधक का ह्रदय चक्र में साँस प्रस्वास् की स्थिति बहुत कम और धीरे धीरे हो थमने लगती है।तब साधक को भाग दौड़ के व्यायाम सख्त मना है।उसे केवल टहलने का ही मुख्य व्यायाम करना चाहिए। अन्यथा एक तरफ सांस कम होकर ठहरने जा रही है और दूसरी और साँस की बढ़ा रहें है,परिणाम ह्रदय आघात की सम्भावना बढ़ जाती है।इस चक्र में जब प्राण ऊर्जा का प्रवेश नहीं होता है,तब तक तो अनेक प्रकार की तेज या मंदी साँस प्रसांस के आकर्षण विकृष्ण के कारण भस्त्रिकाएं होती रहती है।और जब इस चक्र में प्राण और आपन वायु का एक होकर प्रवेश होने लगता है।तब यहाँ साधक को अपने रीढ़ के पीछे की और इस बिंदु पर चींटियाँ सी रेंगती लगती है और इस चक्र में प्रवेश करते ही ठीक इसी स्थान पर एक तेज बिंदु के दर्शन होते है।जिसमें से एक साथ ही नीचे की और तथा ऊपर की और को एक पंचरंगी मिश्रित ऊर्जा चढ़ती है।तब साधक का गम्भीर ध्यान लगना प्रारम्भ होता है और उसे अपने सामने जो भी विषय और उस सम्बंधित द्रश्य होता है,वो सजीव होकर उसके अंदर जितने भी स्तर होते है,वो एक के बाद एक बिलकुल स्पष्ट दीखते है और इसके बढ़ते ही उस विषय और उसके सम्बंधित दर्शय का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता जाता है।यहीं संयम विद्या की प्राप्ति होती है।और तब ही सच्चे ज्ञान और समस्त विद्याओं के स्थूल से सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म रहस्य की प्राप्ति होती है।यहाँ शरीर में जितनी भी प्राण वायु और उपवायु है,उनका बाहरीतोर पर शमन हो जाता है और यहां मन की गति पर अधिकार करने के अभ्यास का प्रारम्भ होना शुरू होता है,वो भी क्षण क्षण लगती समाधि के द्धारा।ध्यान रहें,समाधि एक दम से नहीं लगती है,बल्कि प्रत्येक आती और जाती साँस के बीच एक केवल कुम्भक की अवस्था बढ़नी शुरू होती जाती है,जो चित्त की स्वभाविक एकाग्रता से बनती और बढ़ती चलती है।तब यही केवल कुम्भक की रुक रुक कर बढ़ोतरी होकर एक बड़ा कुम्भक स्वभाविक रूप से बनता है,तब समाधि होती है।की एक दम साँस रुक गयी और आपको पता नहीं चलेगा क्योकि आप तो विषय और उसके दर्शय के दर्शन की अनुभूति में खोये थे।ठीक ऐसे ही बड़ी समाधि बनती है।वो बहुत आगे का विषय है।
ये सब गुरु से ज्ञान प्राप्त किया जाता है।
अनाहत चक्र बीजमंत्र:-
स्त्री या पुरुष के अनाहत चक्र में 12 पंखुड़िया होती है और स्त्री के अनाहत चक्र में मूल में चं बीज मंत्र और उसके पंखुड़ियों में एक क्रम से 12 बीज अक्षर मंत्र होते है-प-फ-ब-भ-म-य-र-ल-व-श-ष-स।जो परमानन्द,विशुद्धता,भक्ति,अनुकम्पा,दयालुता,क्षमा,प्रेम का भाव और उसकी शक्ति के प्रतीक होते है।
जब भौतिक ह्रदय चक्र में प्राण शक्ति और चेतना शक्ति की कमी रहती है।तब अनिच्छा,ईर्ष्या,तटस्थता,निराशा,चंचलता,शुष्कता भावो की वृद्धि होती है और इन्हीं से उत्पन्न रोगों से मनुष्य रोगी रहता है।
उपाय:-पहले अपने भौतिक ह्रदय चक्र को स्मरण करते हुए,उसे अनुभव करते हुए अपना गुरु मंत्र जपते हुए ध्यान करें।तो आपको ध्यान की ऊर्जा से और उससे उत्पन्न हुयी सहज साँस लेने व् उसकी स्वभाविक बनी धीमी भस्त्रिका से बहुत लाभ होगा।
देव देवी दर्शन:-
यहाँ स्त्री और पुरुष का युगल अवस्था में दर्शन होते है।जो साधक के सम्प्रदायिक मन्त्रों भावों से भिन्न भिन्न रूप से दर्शित होते है।
चक्र आकृति व रंग:-
पीले और हरे मिश्रित रंग वाला तोतयी आभा से रंग 12 पंखुड़ी वाला द्धादश कमल स्वरूप होता है।वेसे यहां हरित व् आकाशीय दमक रंग की पृथ्वी पर इसी आभायुक्त से विश्व प्रकाशित दीखता है।तथा हरित रंग की साड़ी पहने या वस्त्र पहने मध्यम गोर यानि बहुत कम सांवले वर्ण की मध्यायु के स्त्री शक्ति जो रजोगुण की प्रकर्ति शक्ति के जागरूकता अवस्था में बैठे हुए या खड़े हुए दर्शन होते है।
ध्वनि या नाँद:-
ब्रह्म शब्द के नो ध्वनि में नाँद सुनाई आते है।जिसे अनाहत शब्द कहते है,अर्थात जो बिना किसी आघात ध्वनि के उत्पन्न हुआ हो।उसे योग शास्त्र में प्रणव या ओंकार ॐ नाँद कहते है।वेसे यहां सभी मंत्र अपने मूल बीजमंत्र में लीन होकर उस मूल बीजमंत्र के उच्चारण व् दर्शन पाते है और उस उस मूल बीजमंत्र से उस शब्द का रूप दर्शन होता है तथा जब शब्द रूप में बदलता है,तब उससे प्रकाश और ध्वनि और गन्ध के साथ साथ साधक को उस मूल बीजमंत्र से उत्पन्न रूप का स्पर्श और आलिंगन आदि के साक्षात् अनुभूति होती है।यहीँ इष्ट का मंत्र सहित साक्षात्कार होता है।
वेसे यहाँ जब सारे प्राणवायु आकर ज्यों ज्यों स्तब्ध होने लगते है,त्यों त्यों उनके ही परस्पर घर्षण से ही भिन्न भिन्न ये प्राण वायु की ध्वनि उत्पन्न होकर हमें सुनाई आती है,यो इनका कोई विशेष अर्थ नहीं होता है,ये आती जाती रहती है।
अनाहत चक्र से भक्ति का उदय:-
इस चक्र के जाग्रत होने पर ही भक्ति और भक्त तथा भगवान का अनुभव व् प्रत्यक्षीकरण होता है।समस्त भक्ति शास्त्र और उसका दर्शन शास्त्र इसी स्थान की देन है।पर यहाँ शांति नहीं है।यहां सभी संसारी अष्ट विषयों की मलिनता की विशुद्धि होती है।यानि यहाँ विषय की विशुद्धवस्था में प्राप्ति है।यो यहां सिद्धियां है,चाहे वे सप्त रागों गायन से हो या वे गुरु की भक्ति से या इष्ट की भक्ति से हो।यहाँ सदा द्धैत भाव बना रहता है।यहां प्रारम्भिक समाधि की प्राप्ति और उसमें प्रवेश होता है।यानि यहीं से समाधि का प्रवेश द्धार की प्राप्ति होती है,समाप्ति नहीं होती है। समस्त प्रकार के मनुष्य हो ता जीव आदि हो उनके ह्रदयों के समस्त भावो का ज्ञान साधक को हो जाता है।परचित्त ज्ञान सिद्धि और दूसरे को भी अपने भाव से संयुक्त कराकर उसे भी अपने या जो उसका भाव हो,उस भाव के रूप दर्शन यानि इष्ट आदि के दर्शन कराने की सामर्थ्य प्राप्त हो जाती है।
मंत्र की स्थिति:-उच्चतर साधना होने पर,मानो जैसे की आपका ये मंत्र है-सत्य ॐ सिद्धायै नमः,तब-यहां सत्य ॐ सिद्धायै नमः मंत्र के दो भाग स्वयं हो जायेगे,यानि सत्य ॐ + सिद्धायै नमः।अब आगे चलकर केवल सत्य + ॐ ही शेष रह जायेगा और सिद्धायै व् नमः इन्हीं दोनों में विलीन हो जायेगा।और बाद में ये दोनों भी आती व् जाती साँस के साथ ह्रदय की धड़कन के श्रवण होने पर उसके संग संग विलिन हो जायेंगे और समाधी हो जायेगी।
यो गुरु प्रदत्त मंत्र और रेहि क्रिया योग करते रहने पर ये सब अवस्था की प्राप्ति होती है।
इससे आगामी स्त्री की कुंडलिनी के कंठ चक्र के विषय में आगामी लेख में बताऊंगा।
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स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
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Ji guru ji. Jai satya om sidhaye namah.