रक्षा बंधन पर्व और उसकी उत्पत्ति कथा:-
सृष्टि बनाने के उपरांत सत्यनारायण भगवान और सत्यई पूर्णिमाँ ने उसकी पवित्रता की सम्पूर्णता को दर्शाता सोलह कला सम्पूर्ण पूर्णिमां का दिन ही क्यों निश्चित हुआ?
आदि अनेक ज्ञान तर्कों के प्रश्नों अनेक भक्तों के मन में सदा आंदोलित रहते है,और इसी विषय पर स्वामी सत्येंद्र सत्यसहिब जी ने भक्तों को पूर्णिमां पुराण से रक्षा बंधन पर्व की कथा संछिप्त में इस प्रकार से कहीं है-की-
रक्षाबन्धन व्रत की कथा:-
एक बार हंसी और अरंज कुछ बड़े होकर वयस्कता को प्राप्त हुए,और सरोवर(ज्ञान सरोवर) के तट पर वृक्ष(सेब के वृक्ष) के नीचे बैठे परस्पर ज्ञान चर्चा कर रहे थे,औरउस समय पूर्णमासिक चन्द्रमा अपनी चन्द्र कलाएं खिला जगत में शीतलता बिखेरे था,उसे देखते हुए उन्हें अचानक अपनी माता पूर्णिमां और पिता सत्यनारायण के मध्य स्त्री पुरुष रूपी क्या सम्बन्ध है और हम दोनों भी अपने अपने शरीर से भिन्न और अपने माता पिता की भांति ही स्त्री और पुरुष शरीर को प्राप्त है और हम दोनों जन्म से एक दूसरे के सभी गुणों और अवगुणों को जानते है और उन्हें परस्पर रहते हुए सभी और से समझा है और जो समझ नहीं आया उसे अपने माता पिता से ज्ञान चर्चा के माध्यम से समझा है।तब हम भी और बड़े होने पर एक स्त्री और एक पुरुष बनेंगे,तब क्या हम ही परस्पर अपने माता पिता की भांति ही प्रेम करते हुए परस्पर उन्हीं की भांति हमारे जैसी ही सन्तान उत्पन्न करें ?
ऐसे अनेक प्रश्नों का दोनों ने परस्पर बहुत तर्क करके उत्तर प्राप्ति का प्रयास किया, पर घूम फिर कर वहीं आ जाते की-ये रिश्ते की छोर ड़ोर हाथ नही आ रही।तब वे अपने माँ पूर्णिमां और पिता सत्यनारायण के पास पहुँचे।और यही सब प्रश्न किये।
जिसे उन्होंने सुना और दोनों को अपने अपने निकट बैठाया और बोले की-
तब बारी बारी से कभी पूर्णिमां और कभी सत्यनारायण भगवान ने उत्तर दिया की-हम दोनों मूल पुरुष और स्त्री है,हमारे परस्पर सहयोग से एकोहम् बहुस्याम कहते ही- हमसे तीन प्रकार की सृष्टि हुयी।प्रथम-मुझ पुरुस से 9 प्रकार के पुरुष सृष्ट हुए- यानि केवल पुरुष प्रधान गुण वाले तीन पुरुष और स्त्री प्रधान गुण वाले तीन पुरुष और बीज रूपी तीन गुण वाले किन्नर पुरुष।और ऐसे ही पूर्णिमां ने कहा की-मुझसे भी 9 प्रकार की स्त्री सृष्ट हुयी-तीन केवल स्त्री गुणों वाली स्त्रियां और तीन पुरुष गुण लिए तीन स्त्रियां और तीन बीज रूपी गुण लिए किन्नर स्त्रियां।
जो केवल पुरुष प्रधान गुण वाले पुरुष है वे ही-1-ब्रह्मा-2-विष्णु-3-शिव है।
और जो स्त्री प्रधान गुण लिए पुरुष है,वे ही तीन-
और जो बीज रूपी गुण लिए पुरुष है,वे ही तीन-
ये बीज वाले पुरुष और स्त्री में से दो में परिवर्तन होकर पुनः संतति करने की सामर्थ्य उत्पन्न हो सकती है।और एक तीसरे में केवल बीज ही रहने से वो संतति उत्पन्न नहीं कर सकता है,वो केवल इन दोनों का साहयक है,यानि ये ब्रह्मचारी रूप का बीज पुरुष है।जो सदा ब्रह्मचारी ही बना रहता है और इसी से और उसी के सहयोग से सभी ब्रह्मचारी पुरुष के बीज सृष्ट यानि अवतरित होते है।
ऐसे ही पूर्णिमां ने कहा की-ठीक ऐसे ही मुझसे जो 9 स्त्रियों की सृष्टि हुयी,उनमें-प्रथम तीन ही-1-सरस्वती-2-लक्ष्मी-3-शक्ति। इनका सम्बन्ध त्रिदेवों से हुआ,पर इनसे संतान नहीं हुयी।
हाँ इनके मनुष्य अवतारों से हुयी है।
और तीन स्त्री जो पुरुष गुण लिए हुयी,वे ही-
और ऐसे ही तीन बीज गुण लिए स्त्री किन्नर हुयी-1-जो बाहरी शरीर से स्त्री है पर अंदर से पुरुष अंग लिए है।-2-दूसरी बाहर से स्त्री शरीर लिए और और जनेंद्रिय में कुछ स्त्री अंग लिए है और अधिक पुरुष अंग लिए है।-3-तीसरी जो बाहर से स्त्री शरीर लिए है और अंदर और जनेंद्रिय में कुछ बाहरी अंग लिए नहीं है।ये केवल बीज स्त्री ही है।और पहली दो में प्राकृतिक सन्तुलन करने से उनमें सही परिवतर्न किया जा सकता है और वे सम्पूर्ण स्त्री बन सकती है।वेसे ये सभी स्त्रियां मेरे ही स्त्री के रूप में जो पुरुष सहयोगी गुण धारण कर रखा है,उसी के परिवर्तित रूप है।।
तुम दोनों भी हमारी तरहां मूल स्त्री और मूल पुरुष हो।
जब हमसे सृष्टि हुयी तो-जो हमारे ही समान प्रतिमूर्ति हुए,वे हमारे समान होते हुए भी हमसे कुछ कम गुण वाले रहे,यो उन्हें कनिष्ठ यानि छोटा या अवतार कहा जाता है,उनकी उत्पत्ति भी हममें काम भाव की इच्छा और काम भाव की क्रिया और काम भाव के ज्ञान से हुयी।
यो उनसे जो भी संतति हुयी और होगी,उनमें काम भाव मुख्य रहेगा।
काम भाव के दो भाव है-1-भोग-2-योग।यानि भोग है-प्रत्येक बाहरी कर्म और योग है-प्रत्येक आंतरिक कर्म।और इन दोनों के भी तीन मुख्य भाग है,जिनमें दो मुख्य भाग है-कर्म और उसका व्यवहार।
यानि जो कर्म किया है,उसको सही रूप में व्यवहारिक बनाना या उपयोग में लेना।यो बाहरी भोग कर्म के भी दो भाग है-1-भोग यानि क्रिया रूपी कर्म और-2-उस किये गए क्रिया रूपी कर्म का सही से उपयोग करना ही व्यवहार कहलाता है।और इसी दोनों कर्म यानि भोग और योग और दोनों व्यवहार यानि दोनों क्रियाओं का सही से उपयोग और उपभोग करना ही काम और उसका दिव्य यानि संशोधित रूप प्रेम कहलाता है।
जिसमें बाहरी काम भाव से जीव की सृष्टि होती है और उसके व्यवहार से उस जीव का लालन पालन होता है।इसी के चार भाग-1-ब्रह्मचर्य यानि शिक्षाकाल-2-ग्रहस्थ यानि जो ज्ञान पाया उसका क्रियात्मक और प्रयोगात्मक व्यवहार ही ग्रहस्थ है-3-वानप्रस्थ यानि जो ज्ञान और उसकी क्रिया और उसका उपयोग व् उपभोग का पक्का ज्ञान पाया,उसे अपनी सन्तान या शिष्यों को देना ही वानप्रस्थ या गुरु धर्म है-4-सन्यास यानि अब कुछ लेना और देना नहीं है,केवल जो पाया है,उसको आत्मसात करना और अपनी आत्म में स्थिर और स्थित होने से आत्मा की सम्पूर्ण अवस्था परमात्मा बनना है।तभी ये आत्म घोष की प्राप्ति होती है की-अहम् ब्रह्मास्मि-की मैं ही ब्रह्म हूँ और इससे भी अंतिम और उच्चतर अवस्था का आत्म घोष की प्राप्ति होती है की-अहम् सत्यास्मि-मैं ही सम्पूर्ण और सत्य हूँ।
रक्षा बंधन का यथार्थ अर्थ है की-ऐसा बंधन यानि नियम + उसकी रक्षा यानि उसका पालन करना ही रक्षा बंधन कहलाता है।
अब वो नियम क्या है ? जिसका पालन यानि रक्षा करते हुए सदा सजग और कर्तव्यशील रहना है?
यही विषय यहाँ संछिप्त में कहता हूँ-
मैं क्या है:- मैं में 3 स्थितियां है-1-म,-2-ऐ,-3-अं=मैं।
यानि-म-पुरुष Y है,+ ऐ-स्त्री X है,+अं-बीज O है=मैं यो मैं त्रिगुणों का संयुक्त पूर्ण रूप है।यहां म स्थिर अक्षर है और पुरुष को बीजदान करने बाद उसमे कोई परिवतर्न नहीं आता यो उसे स्थिर तत्व माना है। और ऐ अक्षर में विस्तार है,ए और मात्रा यो ये स्त्री तत्व है,जहां कुँवारापन ए है और मात्रा उसका बीज ग्रहण करने से बनी परिवर्तनशील स्त्री अर्थ है और अं की मात्रा स्त्री के गर्भ में पल रहा स्त्री और पुरुष का संयुक्त बीज अर्थ रूप है।
ये सक्रिय बीज है जिसमें दो स्त्री+पुरुष एकाकार है,यहाँ दो का एक दूसरे में प्रलय यानि लीन अवस्था भी है और दोनों से किसी एक या अनेक की स्वयं की ही नवीन जीव सृष्टि हो रही है और यही जीव सृष्टि होकर और स्त्री उसे करके यानि मैं की सर्वोच्चवस्था माँ बनकर पूर्ण होती है,यो यहाँ अं बीज में लय+सृष्टि+विस्तार+प्रलय ये चार अवस्था बनती है।
तभी पुरुष हो या स्त्री दोनों अपने को परिभाषित और उपस्थिति आदि करते हुए मैं बोलते है की-मैं स्त्री और ये नाम है और ऐसे ही मैं पुरुष मेरा ये नाम है और अंत में दोनों जब प्रेम में संयुक्त होकर अपने अपने मैं को एक दूसरे में लीन करते है,तब केवल अं के रूप में यही मैं ही मोन बनकर साकार में निराकार और निराकार में साकार बन उपस्थित रहता और चैतन्य रहता है।तब यही मैं प्रेम की सर्वोच्चवस्था है।क्योकि ये ही मूल ब्रह्म है और बीज है।और फिर इसी अं से सृष्टि होती है-मैं की।इसी मैं से घोष होता है-एकोहम् बहुस्याम-एक यानि मैं से अनेक मैं हो जाऊ..कितने ही मैं से मैं रूपी स्त्री और पुरुष और बीज बन जाये,वे रहेंगे-तीन ही,स्त्री मैं और पुरुष मैं और साकार में निराकार यानि प्रलय और निराकार में साकार यानि प्रलय से पुनः सृष्टि का मैं रूपी बीज।
ज्येष्ठ रिश्ता क्यों है-क्या ये क्रम है की:-
1-ईश्वर मूल-2-देवता और दैत्य-3-ऋषि-4-मनुष्य-5-जलचर जीव-6-भूमिचर जीव-6-नभचर जीव-7-सूक्ष्म जीव-8-वृक्ष,वनस्पति-9-पत्थर,रत्न,खनिज आदि जड़ पदार्थ।
प्रश्न:-पिता जी ये यो हुआ,ईश्वर की अखण्ड अवस्था से उसका खण्ड खण्ड उच्च से निम्न और फिर निम्न से उच्च तक का बंटवारा,यानि अखण्ड से खण्ड और खण्ड से फिर अखण्ड का वृत चक्र,इसमें भी अनेक प्रश्न है,पर मेरा प्रश्न वहीं है की-इस सभी खण्ड अवस्थाओं में जो ऋण+धन शक्ति से बनी इनकी अवस्थाएं है,उनका परस्पर भोग रिश्ते से ही तो उनकी भी सृष्टि है,तब उनके बीच भाई बहिन का रिश्ता कहाँ सिद्ध हुआ? हमें वो बताओ?
और मेरे ये प्रश्न भी है की-प्रचलित ज्ञान ये कहता है की- परस्पर भाई बहिन के विवाह भोग सम्बन्ध विकृति आती है।
जबकि ये तो सामान्य जातिगत गोत्रो में भी विवाह उपरांत विकृतियां देखने में आती है।
क्या हमें परस्पर बचपन से संग रहते रहते एक दूसरे के प्रति आकर्षण समाप्त हो जाता है?
या हमें निरन्तर छोटी छोटी से बातों के बीच में रटाया जाता है की-अरे नहीं तुम तो भाई बहिन हो,यो ऐसा नहीं करना..और क्या यही हमारें गुणों यानि हार्मोंस या जीन्स में आता गया है और हमारे अंदर एक दूसरे के प्रति आकर्षण समाप्त या उतना चरम पर नही पहुँच पाता है,जितना की हम एक अनजाने या अपरिचित के प्रति अनुभव करते है।यो हमें अपरिचित अंजाना इस सम्बन्ध को अच्छा लगता है?
तब सत्य क्या है?
तब हंस कर बच्चे की उद्धिग्नता देखा, पूर्णिमाँ ने उसे उत्तर देते कहा की बच्चों:-
स्त्री और पुरुष के इन दो रिश्तों में भोग और योग को लेकर दो प्रकार का अर्द्ध अर्द्ध वृत का 16-16 कलाओं के योग से प्रेम बनता है-भोग की 16 कलाओं से प्राप्त दिव्य प्रेम और योग की 16 कलाओं से प्राप्त दिव्य प्रेम।और ये दोनों मिलकर ही 16+16=32 गुणों का दिव्य प्रेम बनता है।यहां मुख्य तो 15+15=30 कलाएं ही होती है। क्योकि 16 वीं कला केवल परस्पर प्रलय+लीन+सृष्टि के 3 गुण लिए होती है,यो ये दो नहीं गिनी जाती है,बल्कि ये एक ही मानी जाती है,यो 31 तक ही पूर्णता है।और यही वर्ष के 30 और 31दिन का वर्गीकरण भी है।जिसे विस्तार से ज्योतिष या खगोलीय शास्त्र ज्ञान कहते है।सबके पीछे 3 गुण-स्त्री+पुरुष+बीज=दिव्य प्रेम, का ही गुणनफल गणित है।
भोग से प्रेम की सोलह कला:-
1-सानिध्य-2-सारूपता-3-ममता-4-स्नेह-5-राग-6-विश्वास-7-प्रणय(यहां 7 कलाओं तक विवाह संस्कार पूर्ण होता है)-8-श्रवण-9-स्मरण-10-कीर्तन-11-पादसेवा-12-अर्चन-13-वन्दन-14-दास्य-15-सख्य-16-आत्मनिवेदन।और यहाँ पर विवाह के बाद से उसके समस्त कार्यों को प्रेम दायित्वों से सम्पूर्ण करने के इन 9 गुणों के दोनों पति और पत्नी के द्धारा समान रूप से निरन्तर पालन करने से दिव्य प्रेम की प्रत्यक्ष जीवन में प्राप्ति की जाती है।
अब स्त्री पुरुष के विपरीत पक्ष यानि योग से दिव्य प्रेम की प्राप्ति यानि भाई बहिन के प्रेम की सोलह कलाएं:-
जिसमें दोनों एक-दूसरे की सभी प्रकार से रक्षा के पवित्र वचन का परिपालन एक रक्षा सूत्र यानि “सप्त सूत्र” 7 भौतिक और 9 आध्यात्मिक ज्ञान नियम के निरन्तर पालन से दिव्य प्रेम की प्राप्ति करते है,जिसे रक्षा बन्धन कहते है।उस रक्षा नियम के क्रतिम सूत्र प्रतीक को भाई की कलाई पर बांध कर मिष्ठान खिलाकर मनाते है।यहाँ शारारिक सम्बंधों से परे चतुर्थ कर्म यानि-1-सेवा-2-रक्षा-3-दीर्घता-4-स्थायित्व का वचन निभाते जीवन का दिव्य सुख का आदान-प्रदान करते है।यह दिव्य प्रेम की सोलह कलाएं इस प्रकार से है-
1-स्नेह-2-समर्पण-3-सेवा-4-शुचिता-5-पूजा-6-रक्षा-7-कर्तव्यता( ये भौतिक संसारी सम्बन्ध का दिव्य प्रेम है)-8-स्थायित्व-9-समता-10-सहयोग-11-कल्याण-12-परिपूर्णता-13-निष्काम-14-निश्छलता-15-अभेद-16-दिव्य प्रेम।ये आध्यात्मिक प्रेम सम्बन्ध का दोनों भाई बहिन पालन करते दिव्य प्रेम की प्राप्ति करते है-यो इस सबकी सम्पूर्णता यानि पूर्णिमाँ को साक्षी मानकर मनाने के कारण श्रावण माह की पूर्णमासी को मनाया जाता है।
भोग के योगिक वैज्ञानिक विषय और क्रिया को जाने:-
भोग में भी मन यानि इच्छा और शरीर यानि क्रिया करने वाला दोनों की आवशयकता होती है। और योग में भी मन की आंतरिक इच्छा और शरीर यानि अंतर क्रिया यानि आंतरिक शरीर की आवशयकता होती है।यो दोनों में मन और शरीर की आवश्यकता होती है।
यो जब गर्भ से सृष्टि होती है,तब उस स्त्री के अंदर एक वात्सल्य का अनूठा अद्धभुत रस प्रधान रिसाव होता है,जिसे मातृ का ममतामयी प्रेम रस कहते है,परिणाम उसके गर्भ में पल रहे उसके अंश की अधिक मात्रा को ग्रहण करते उसके अंश एक या दो या अनेक,उनमें वो अनूठा रस का प्रवाह उन अंशों यानि बच्चों में होता है और उससे इन स्त्री या पुरुष बच्चों में उसी रस या हार्मोन्स से एक आकर्षण और विकर्षण का वास होता है।जिसके कारण उन दोनों में परस्पर जो आकर्षण शक्ति की अधिकता बढ़ती है,वो अन्य स्त्री या पुरुष के प्रति होने वाले आकर्षण से भिन्न होती है।
माँ के गर्भ में पनपते बच्चे या संयुक्त बच्चों में एक ही पिता और माता के काम भाव का संचरण तो होता ही है।साथ में अंतिम समय तक माता का अपने गर्भ में पलते बच्चों के प्रति एक वात्सल्य भाव के पोषण से उन बच्चों में परस्पर एक वात्सल्य भाव् का भी संचार होता है।जिसके फलस्वरुप उन सभी में परस्पर काम भाव के विपरीत भाव का उदय होता है।इसे विकर्षण भाव शक्ति कहते है।यही तो उन्हें स्त्री और पुरुष के आपस में शारारिक काम आकर्षण के भाव से स्वयं ही विशेष स्तर तक मुक्त रखती है।
उन्हें चाहे वे अकेले पैदा हुए हो या साथ में पैदा हुए हो।उनमें अपनी माँ से मिला एक सा वात्सल्य भाव ही उनके जीन्स में परस्पर काम भाव के आकर्षण को नहीं आने देता है। और यदि किसी कारण से आ भी गया तो,शीघ्र ही वो विकर्षण का भाव उस आकर्षण के भाव को तोड़ देता है और उन्हें बहुत जल्दी आपस में इस सम्बन्ध को लेकर अरुचि पैदा कर देता है और लगातार ये विकर्षण की बढ़ती प्रक्रिया उन्हें काम भाव की सर्वोच्चता का आनन्द ही नही देता है।
ये एक माँ से उत्पन्न स्त्री और पुरुष या लड़का लड़की संतान में स्वभाविक रूप से परस्पर काम का उदय और प्रवाह उतना प्रभावी नहीं होता है और यदि किसी कारण ऐसा काम का प्रवाह से कोई शारारिक सम्बंध बन भी गया,तो वो शीघ्र ही इस आकर्षण में जो अल्पता यानि कमी है,उससे परस्पर स्वभाविक विकर्षण बनकर टूट जाता है या समयांतराल से स्वयं टूट जायेगा।
उन्हें चाहे वे अकेले पैदा हुए हो या साथ में पैदा हुए हो।उनमें अपनी माँ से मिला एक सा वात्सल्य भाव ही उनके जीन्स में परस्पर काम भाव के आकर्षण को नहीं आने देता है। और यदि किसी कारण से आ भी गया तो,शीघ्र ही वो विकर्षण का भाव उस आकर्षण के भाव को तोड़ देता है। और उन्हें बहुत जल्दी आपस में इस सम्बन्ध को लेकर अरुचि पैदा कर देता है। और लगातार ये विकर्षण की बढ़ती प्रक्रिया उन्हें काम भाव की सर्वोच्चता का आनन्द ही नही देता है।
और यदि किसी कारण से इस प्रकार के आकर्षण के रहते यदि दोनों की संताने हुयी,तो वे आत्मा की काम से प्रेम तक की सर्वोच्चता यानि परमात्मा की अवस्था को प्राप्त नही हो सकती है।
इस प्रकार के आकर्षण में दोनों में जो पुरुष में जो X,Y तत्व है और स्त्री में जो X1,X2 है,वे परस्पर विशेष आकर्षित नहीं होंगे।
परीणाम उनकी संतान हुयी भी तो वे प्रेम की विशेष उच्चता को प्राप्त नहीं होकर केवल एक सामान्य मनुष्य ही बनी रहेंगी।
उनमें एक परस्पर विकर्षण भी बना रहेगा।
अब इसे और भी गहनता से संछिप्त में समझे:-
आकर्षण शक्ति की 3 स्तर है-प्रारम्भ से मध्य तक-2-मध्य से चरम तक-3- चरम से अंत तक और वहाँ से इस आकर्षण शक्ति का रूपांतरण होता है-विकृष्ण शक्ति में..
पहले इस आकर्षण शक्ति के पहले चरण में स्त्री पुरुष के बीच प्रेम के 5 स्तर घटित होते है:-1-सानिध्य-2-सारूपता-3-ममता-4-स्नेह-5-राग..
फिर आकर्षण शक्ति के द्धितीय चरण में प्रेम का मध्य से चरम तक 5 स्तर घटित होते है:-6-विश्वास-7-प्रणय-7-श्रवण-9-स्मरण-10-कीर्तन…
और फिर आकर्षण शक्ति के तृतीय चरण में चरम से अंत तक 5 स्तर घटित होते है:-11-पादसेवा-12-अर्चन-13-वंदन-14-दास्य-15-सख्य…
यो ये 3 चरण के 5+5+5+=15 प्रेम की कलाएं घटित होती है और 16 वीं कला आत्मनिवेदन है-प्रेम का अंत से पुनः विकर्षण में रूपांतरण होना-यहां समर्पण या आत्मसाक्षात्कार की परम् प्रेम की स्थिति में रुक कर पुनः एकोहम् बहुस्याम की वैदिक घोष घटित होकर दोनों स्त्री और पुरुष की नवीन स्वं सृष्टि होती है।
यो आकर्षण शक्ति से स्त्री पुरुष का बीज उनमें से आकर्षित होकर उनके मूलाधार चक्र में आता है और विकर्षण शक्ति यहाँ कुछ कम रहती है।स्मरण रहे ये आकर्षण और विकर्षण शक्तियां एक दूसरे की विरोधी शक्तियां नहीं है,बल्कि ये एक दूसरे की सदा साहयक शक्तियां है।इनके परस्पर घर्षण और संतुलन से ही सब चल रहा है।यो ये एक दुसरे में लीन होकर एक दूसरे की साहयता करती है।यो यहां जब आकर्षण शक्ति प्रबल होती है,तब विकर्षण शक्ति उसकी साहयक होती है और जब विकर्षण शक्ति प्रबल या एक्टिव होती है,तब आकर्षण शक्ति उसकी साहयक होती है।यो आकर्षण शक्ति से दोनों के बीज एक होकर स्त्री गर्भ में एकत्र होते है,इसी क्रिया के 3 चरण होते है-1-एक दूसरे में मन और तन से आकर्षित होकर अपने अपने लिंगों से संयुक्त होने की काम या रमण क्रिया-2-उस आकर्षण शक्ति का मध्य से चरम तक अनुभव करना-3-आकर्षण शक्ति की एकाकार स्थिति से उत्पन्न चरम से अंत तक का एक दूसरे में मिट जाने की अहम् के मिट या खो जाने और केवल प्रेम में बने रहने का अहं रहित अनुभव करना।और इस आकर्षण शक्ति के अंतिम इस अंत अवस्था में ही,
ठीक यहीं आत्मसात और समर्पण की 15 वीं कला घटित और 16 वीं कला केवल प्रेम ही शेष और पूर्ण है,ये अवस्था दोनों को होती है।अब आकर्षण शक्ति का कार्य समाप्त होकर विकर्षण शक्ति का कार्य प्रारम्भ होता है और इस विकर्षण शक्ति से ही स्त्री और पुरुष के दो बीज रचित होकर यानि स्खलित होकर,अब दोनों स्त्री और पुरुष अपनी अपनी उपस्थिति यानि अपने अपने अहं या मैं का अनुभव करते प्रेम के चरम से चैतन्य होते है।तब इस रेचन की स्थिति से दो बीज रेचित यानि स्खलित होकर और परस्पर मिलकर एक बनकर उससे नवीन जीव बच्चे की 3 चरण की क्रिया-1- सृष्टि और-2- विस्तार और-3- गर्भ से बाहर निकलने की सारी प्रक्रिया घटित होती है।यहाँ केवल माँ का कर्तव्य अधिक होता है और पिता का कर्तव्य सहयोग में होता है।तब माँ बनी स्त्री और उसके गर्भ में पल रहे जीव बच्चे में ये विकर्षण शक्ति की अधिकता अधिक होती है और आकर्षण शक्ति की कमी होती है।यो ये विकर्षण और आकर्षण का मेल से बच्चा गर्भ में लगभग 9 माह में बड़ा और पूर्ण होता है।तब भी माँ के गर्भ से बाहर आने की प्रक्रिया में ये रेचन यानि विजर्षण शक्ति ही प्रबल होती है।ठीक इसी बीच गर्भावस्था में माँ ओर उसके बच्चे के बीच विकर्षण शक्ति के भी 3 स्तरों का 5+5+5=15 और 16 वीं कला का पूर्व विकास होता है।ठीक यही आगे चलकर माँ ओर बच्चे और बच्चे से परसपर आगामी भाई बहिन के बीच प्रेम के 16 कला संस्कार बढ़ते है ओर यही प्रेम के 16 नियम और उन नियमों की प्राकृतिक रक्षा या पालन ही “रक्षा बंधन” नामक दिव्य प्रेम बनता है।तब वे नियम ऊपर दिए है जो यहाँ संछिप्त में इस प्रकार से है-माँ के गर्भ में बच्चे से पहले चरण में यानि-1 माह से 3 रें माह तक, ये 5 स्तर सम्बन्ध बनते है-1-स्नेह-2-समर्पण-3-सेवा-4-शुचिता-5-पूजा…फिर द्धितीय गर्भ विकास के चरण में 3 रें माह से 6 वें माह तक ये 5 स्तर या गुण सम्बन्ध बनते ओर मिलते है-6-रक्षा-7-कर्तव्य-8-स्थायित्व-9-समता-10-सहयोग…और तृतीय चरण में 6 वें माह से 9 वें माह तक ये 5 गुण मिलते है-11-कल्याण-12-परिपूर्णता-13-निष्काम-14-निश्छलता-15-अभेद…और 16 वीं कला दिव्य प्रेम है।यही गर्भ से बाहर निकल कर अपनी माँ-पिता-भाई-बहिन के सम्बन्ध में व्यवहार में आती ओर बढ़ाकर उपयोग में लायी जाती है।और इसी 16 कला के माँ से प्राप्त दिव्य ज्ञान को नवरात्रि भी कहते है।बच्चा रूपी जीवात्मा गर्भ में से माँ से अपने जन्म जन्मों के कर्मों को काटने की दिव्य प्रार्थना करता है।यही दुर्गासप्तशती में माँ से जीव की मुक्ति प्रार्थना है।ये विकर्षण शक्ति की ही आराधना है।बड़ा गूढ़ रहस्य ज्ञान है।जो मैं संछिप्त में यहां बता रहा हूँ।
अब इसके बाद पुनः आकर्षण शक्ति का वर्चस्व बढ़ता है और विकर्षण शक्ति सन्तुलन बनाती है।
यो बच्चे और माँ में एक विछोह यानि गर्भ से एक दूसरे को हटाने का भाव बढ़ता है और प्रसव प्रक्रिया घटित होती है।तब बच्चे के बाहर आने तक ये विकर्षण शक्ति अपने चरम से अंत तक को दोहराती है और बच्चे के माँ के गर्भ से बाहर निकल कर जन्म लेने तक चरम से अंत होता है और तब बच्चे को भी अपनी साँस को अंदर से जो विकर्षण शक्ति के बल से अंतर्मुखी हुयी पड़ी थी,उसे थपथपा कर जीभ को बाहर खिंच कर उस अवस्था को तोड़ा जाता है।तब विकर्षण शक्ति का प्रभाव कम होकर, आकर्षण शक्ति का प्रभाव बढ़कर साँस प्रसांस चलती है।और बच्चा इस बाहरी प्रकर्ति से प्राण वायु को ग्रहण करता है और उसका स्वतंत्र जीवन शरू होता है। ठीक यहीं शास्त्र कहते है की-जैसे भोग वेसा योग और वेसी प्राप्ति।
यानि भोग के क्षण में यदि मन को एकाग्र नहीं किया और केवल भोग को ही एन्जॉय भाव से किया है,तो आने वाली संतान में अनेक निम्न कोटि के निम्नतर भाव गम्भीरता से प्राप्त होंगे और पत्नी को भी प्रसव समय विशेष कष्ट होगा।क्योकि आकर्षण शक्ति का पूरा और उच्चतम यानि चरम तक उपयोग नहीं किया गया है और मध्य स्तर तक उपयोग होने से जीव और उसकी विलपावर यानि इच्छा और क्रिया और ज्ञान शक्ति भी निम्न या मध्यम स्तर की ही प्राप्त होगी और वेसी ही इच्छा और क्रिया और परिणाम प्रसव समय स्त्री को कष्ट आदि रूप में मिलेगा।यो योग शास्त्र कहते है की- सभी अवस्थाओं में और विशेषकर भोग से प्रेम योग के चरम तक सम्पूर्ण मन तन एकाग्र करके क्रिया करोगे।तो जो चाहोगे वो पा जाओगे।यही है भोग से योग और समाधि का सूत्र।जो मेने यहां सञ्छित में अपनी खोज से बताया है।बाकि रहस्य गुरु के सानिध्य में बैठकर श्रद्धाभाव से सीखना समझना पड़ता है।और जो इसे जानता है,वहीं निर्वाण में स्थित होकर कहता है-मैं अपनी त्रिगुण माया को अपने वशीभूत करके स्वयं और अजन्मा हूँ।यही गीता का महावाक्य घोष है।और वही योगी है।यही पाना सत्य प्रेम का साक्षात्कार है।
यो ही योगियों ने अपने विद्यार्थियों को भोग और योग की स्थूल से सूक्ष्म स्तर तक के प्रयोगिक ज्ञान को अन्तर्द्रष्टि से उन्हें दिखाया और समझाया और इसे समझने पर और जिनकी समझ में नहीं आया या कम आया,उन्हें एक धार्मिक संस्कार के रूप में एक पवित्र ज्ञान बंधन के रूप में इस संस्कृति की रक्षा के लिए “रक्षा सूत्र” को परस्पर बांधने की परम्परा को चलाया।
और ये ज्ञान चूँकि आज के दिन माँ पूर्णिमां और पिता सत्यनारायण ने अपने दोनों पुत्र अर्ंज यानि अमोघ और पुत्री हंसी को दिया और उन्हें समझ आया,यो इसी पवित्र ज्ञान को सुनने और समझने के दिन का नाम श्रावण यानि ईश्वर के पवित्र ज्ञान को सुनना और समझना के दिन और माह को श्रावण मास कहते है।और इस पवित्र दिन पर जो ज्ञान बंधन को अपना कर उस नियम का कर्तव्यता से पालन करता है,उस रक्षा नियम को ही “रक्षा बन्धन” कहते है।
और बाद के वर्षों में इस रेशम यानि धागों में सबसे पवित्र धागें रेशम के रंगीन धागों और उस पर अनेक इस पवित्रता को दर्शाते चिन्हों का चांदी या सोने आदि से अलंकृत करते हुए विकास होता गया।
ये सब सुनकर दोनों अरजं और हंसी ने अपनी माता पूर्णिमां को और पिता सत्यनारायण को नमन करते हुए कहा,की-माँ पिता जी हम दोनों आज से ही इस ज्ञान को अपने में धारण करते और अपनाते है,यो माँ ने एक प्राकृतिक कीड़ें से निर्मित पवित्र धागें को अपनी योगमाया से सुंदर अलंकार से रचित गठित करके हंसी को दिया और हंसी ने अपने भाई अरजं के सीधे हाथ में उस रेशम के धागें को अपने भाई के रिश्ते की भक्ति से रचित गीत को गाते हुए बांधा और भाई अरजं ने बहिन हंसी को सदा सुखी रहने और सदा उसके सुख के लिए प्रयत्नशील रहने का वचन दिया और बहिन हंसी ने भी भाई अरजं की सभी ख़ुशी के लिए अपना हर प्रयत्न करने का वचन दिया और उन दोनों को माँ पूर्णिमां और पिता सत्यनारायण ने अभय वरदान दिया की जो भी ऐसा ज्ञान सुनकर इस रक्षा सूत्र रूपी कवच को बंधेगा और परस्पर इस भक्ति गीत वचन को निभाएगा,उसे सदा ईश्वर की अतुलिनीय कृपा प्राप्त होगी।
यहाँ अनेको प्रश्न रह गये है,क्योकि स्थान कम है,इस विषय पर पूरा ग्रन्थ लिखा है-मेने।यो वो शीघ्र प्रकाशित होगा।तब सम्पूर्ण ज्ञान मिलेगा।तब तक लिखे विषय को ध्यान से पढोगें,तो सब स्पस्ट होगा। आशीर्वाद..
इस लेख को अधिक से अधिक अपने मित्रों, रिश्तेदारों और शुभचिंतकों को भेजें, पूण्य के भागीदार बनें।”
अगर आप अपने जीवन में कोई कमी महसूस कर रहे हैं घर में सुख-शांति नहीं मिल रही है? वैवाहिक जीवन में उथल-पुथल मची हुई है? पढ़ाई में ध्यान नहीं लग रहा है? कोई आपके ऊपर तंत्र मंत्र कर रहा है? आपका परिवार खुश नहीं है? धन व्यर्थ के कार्यों में खर्च हो रहा है? घर में बीमारी का वास हो रहा है? पूजा पाठ में मन नहीं लग रहा है?
अगर आप इस तरह की कोई भी समस्या अपने जीवन में महसूस कर रहे हैं तो एक बार श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येन्द्र जी महाराज के पास जाएं और आपकी समस्या क्षण भर में खत्म हो जाएगी।
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श्री सत्यसाहिब स्वामी सत्येंद्र जी महाराज
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः