ये समय-चक्र ही है, जो अखबारों के लिए सुनहरा अवसर ले कर आया है।90 के दशक में जब खबरिया चैनलों का प्रादुर्भाव हुआ, शनैः शनैः विस्तार होता गया,भविष्यवाणी कर दी गई कि अब प्रिंट मीडिया ,अर्थात अखबारों के दिन लद गए। अखबारों की प्रसार संख्या में गिरावट की खबरें आने लगीं।विज्ञापन का बड़ा भाग चैनलों को जाने लगा।कहा जाने लगा कि ताज़ा खबरें पहले ही मिल जाती हैं, दूसरे दिन अखबार क्यों पढें! आंशिक रुप से ही सही, आकलन सही थे।दिन की शुरुआत से ले कर विलंब रात्रि तक देश-विदेश की प्रायः सभी महत्वपूर्ण खबरें टीवी पर मिल जाया करती थीं। राजनीतिक विश्लेषण, बहसें भी सटीक!नगण्य अपवाद छोड़ दें तो निष्पक्ष-तथ्यात्मक!पत्रकारीय मूल्य, नियम, सिद्धांत का अनुपालन। लेकिन, दुःखद कि इसके स्थायित्व को ग्रहण लग गया।
पिछले कुछ समय से खबरिया चैनल अपने दर्शकों की खबरों की भूख मिटाने में विफल साबित हो रहे हैं।सिर्फ खबरें ही नहीं राजनीतिक विश्लेषण बहसें भी निष्पक्षता से दूर प्रायोजित, एकतरफा! सत्तापक्ष के भोंपू-प्रचारक की भूमिका में!कहा जा रहा है कि सत्तापक्ष साम दाम, दंड, भेद की नीति अपना,उनपर दबाव बना उन्हें मजबूर कर रहा है। शायद, ये सच भी हो।लेकिन, पीड़ा व सवाल कि इस कथित नीति-दबाव के सामने दंडवत होने की मजबूरी क्यों?
लेकिन, ये अखबारों के पक्ष में,सुखद संकेत देने लगे हैं।खबरिया चैनलों के कारण, जिन पाठकों ने अखबारों से मुंह मोड़ लिया था, वे अब पुनः खबरों के लिए अखबारों की बाट जोहने लगे हैं। तथ्यात्मक विश्लेषण के लिए अग्रलेख और संपादकीय पृष्ठ की ओर वापस आने लगे हैं।ये एक अवसर है जिसे अखबार ,खबरिया चैनलों के मुकाबले अपने पक्ष में भुना सकते हैं। खबरों के चयन, विश्लेषण, अग्रलेख आदि में निष्पक्षता बरतते हुए, हर पक्ष को समायोजित कर, खोजी खबरों की अपनी विशेषता को पुनर्जीवित कर,अखबार अपने खोए पाठकों की वापसी कर सकते हैं।अपनी विश्वसनीयता पुनः कायम कर सकते हैं। शर्त है, वे किसी पक्ष का भोंपू न बन निष्पक्ष, जिम्मेदार, देशहीत में सामाजिक सरोकार वाली पत्रकारिता चिन्हित करें !